वैदेही की आत्मकथा - भाग 88

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 88 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

रावण की बहन  सूर्पनखा ......जो इस दण्डकारण्य की सम्राज्ञी थी.....

रावण नें ही उसे दण्डकारण्य दिया था......और दिया इसलिये था कि   इस विधवा बहन को खुश किया जाए.....क्यों की इसको विधवा किया ही  रावण नें था.....यानि अपनें ही  बहनोई को मार दिया था रावण नें   ।

लंका में  मै जब थी...........वहाँ मुझे  त्रिजटा  जो  विभीषण की पुत्री .......उसनें मुझे बताया   था  - मैं उसे यहाँ लिख रही हूँ  -

सच ये है कि  रावण की  बहन सूर्पनखा  अपनें पति का बदला लेना चाहती थी......अपनें भाई रावण को  बर्बाद करके वो बदला लेना चाहती थी .........और उसनें बदला लिया ........अपनें भाई के पूरे खानदान को मिटा कर ..............

मैने  त्रिजटा से पूछा था  कहाँ गयी  अब वो सूर्पनखा ......?  

तो त्रिजटा का उत्तर था .............उसका काम पूरा हुआ   अब वो तपश्चर्या करनें  गयी है  ।

तपश्चर्या ?     मुझे आश्चर्य हुआ  ।

हाँ  तपश्चर्या  !     वो   श्रीराम को पति चाहती है .................इसलिये वो तपश्चर्या करनें गयी है .............ये बातें मुझे त्रिजटा नें बताई थीं  जब मैं लंका में थी   तब   ।

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कोई  राजकुमार आये हैं .....................

दो राक्षस जो दूत थे ,   उन्होंने  सूर्पनखा को सूचना दी ।

दण्डकारण्य में    स्वतन्त्र विचरण कर रहे हैं ...................

कौन हैं ये  राजकुमार ?    सूर्पनखा नें पूछा  था ।

सुबाहु  को मारनें वाले यही हैं .............और  मारीच को लंका में फेंकनें वाले भी यही हैं ...............

ओह !   बल और पराक्रम भी है  उनमें ।

सूर्पनखा खुश हुयी थी ........।

मैं अभी जाती हूँ .........और   पता लगा के आती हूँ  कि कैसे हैं ?

आकाश मार्ग  से  विचरण करते हुये  दण्डकारण्य को बड़े बारीकी से देख रही थी ............सूर्पनखा  ।

सूर्य को अर्ध्य देकर    अपनें कुशा  आसन में बैठे ही थे मेरे श्री रघुनाथ .....

ओह ! कितनें सुन्दर !.............मोहित हो गयी ये राक्षसी तो ।

सिंहस्कन्ध , सुकुमार,   कामदेव  इनके आगे  क्या है !

नीला वर्ण ............बल्कल धारण किये हुये ..........जटा   वो भी अत्यंत सुन्दर लग रहा था ................चौड़ा वक्षस्थल ............लम्बी लम्बी भुजाएं ................ऐसा तो त्रिभुवन में कोई नही है ............लम्बी आह भरती हुयी बोली थी सूर्पनखा ..............

"ये मेरा पति बन जाए"................कामना की सूर्पनखा नें ।

फिर हँसी ...............क्यों नही बनेगा .......मैं इसको ऐसा रूप दिखाउंगी  की मोहित हो जाएगा .............और ये  मेरे पीछे पीछे भागेगा  ।

राक्षसियाँ   रूप बदल सकतीं हैं ..........सुपर्णखा नें   आँखें बन्द कीं .....और  विश्व् में  सबसे ज्यादा सुन्दरता जो हो ..........वही रूप धारण किया इसनें ...........................

सरोवर के जल  में जाकर अपनें रूप को देखा भी इसनें .............

वाह !  क्या   लग रही है तू  ...........इस रूप को देखकर तो   देव भी मोहित हो  जायेंगें .....ये मानव क्या है  !    

रुनझुन करती हुयी ...........वो  मेरे श्रीराम के पास आरही थी  ।

शेष चरित्र कल ....

Harisharan

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