आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 87 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे .........
मैं वैदेही !
प्रिये ! अकारण न मैं आया हूँ इस धरा धाम में ...न तुम ।
उस दिन साकेत बिहारी प्रकट थे....और मैं उनकी आल्हादिनी सीता ।
लक्ष्मण उस दिन अकेले गए थे कन्दमूल फल लेनें .......तब एकान्त में मुझे अपनें हृदय से लगाते हुये मेरे प्राणनाथ ने कहा -
प्रिय सीते ! साकेत से हम लोग आये ही इसलिये थे ..........कि कुछ लीला ऐसी रची जाए .......जिसे गा कर मानव अपनें मानस को पवित्र रख सके.........और दूसरा कारण अवतार लेनें का .....अपनें ही लोग जो अहंकार के चरम पर विराज गए हैं ......उन्हें सम्भालना .....क्यों की वो लोग अपनें ही तो पार्षद हैं ना ?
मेरे श्रीराम नें उस दिन मुझे रामावतार में अब आगे क्या करना है ये समझाया था ।
जय विजय अपनें ही तो हैं.........अपनें निज पार्षद .........सीते ! आज रावण राक्षसराज बनकर जो त्रिभुवन में त्राहि त्राहि मचा रहा है ......वो अपना ही जय और विजय ही तो है ना !
इनको सम्भालना .............हमें ही है ना !...............
भक्तवत्सल नाम को सार्थक कर रहे थे आज मेरे श्रीराम ।
इस लीला में मेरी क्या भूमिका है प्रियतम !
मैने भी अपनें बाहों का हार उनके गले में डालते हुये पूछा था ।
मेरे चिबुक को बड़े प्यार से छूकर बोले थे .............
तुम्हारी ही तो सम्पूर्ण भूमिका है - सीते !
तुम साकेत से मेरे साथ आना स्वीकार न करतीं तो ये राम क्या कर पाता .............शक्ति के बिना शक्तिमान कैसा ?
रामायण तुम्हारे बिना अधूरी है .............यही सच है सीते !
आप लीला ही करना चाहते हैं तो ये सीता आपका पूरा साथ देगी ।
मैने अपनें श्रीराम को यही कहा था ।
सुनो प्राणबल्लभा ! रावण इस समय सम्पूर्ण पृथ्वी का आतंककारी हो गया है ..........उसका उद्धार करना............ये तुम्हारे ही हाथों में है ........पर आद्यशक्ति सीता के रूप में उन राक्षसों का "राक्षस भाव" टिक पायेगा......मुझे नही लगता .........श्री रामप्रिया आल्हादिनी शक्ति सीता के मूलरूप को ये राक्षस कहाँ सम्भाल पायेंगें ..........
तो फिर राक्षसों को समाप्त ही कर दो ना .....................
मेरी बात सुनकर मेरे श्रीराम मुस्कुराये ............ये मेरा लीला विलास है ............लीला भक्तों के लिये ........ताकि वो अपनें मानस को पवित्र बना सकें ............राक्षसों को तुम एक क्षण में समाप्त कर सकती हो ........पर सीते ! हमारी लीला का क्या होगा ? मूल रूप से देखो तो रावण कुम्भकर्ण हमारे ही भक्त तो हैं ..............
मैं समझ गयी ............अब आप आज्ञा करें नाथ !
तुम इस मूल रूप से नही जा सकोगी उन राक्षसों के पास .............क्यों की आल्हादिनी शक्ति के पास आनें पर राक्षस भाव समाप्त हो ही जाएगा ......फिर लीला कैसे बनेगी ।
हे सीते ! मेरी बात सुनो अब .................
अपनें मूल रूप को अग्नि में छुपा लो ......और छायाँ .......अपनी छायाँ सीता का रूप बनाकर मेरी लीला में सहायक बनो ।
मेरे श्रीराम नें मुझे कहा था ।
और जब राक्षसों के संहार की लीला पूरी हो जायेगी ............तब तुम अग्नि से अपनें मूल रूप को प्रकट कर लेना ।
पर अब मेरी यही इच्छा है कि .............अपनी छायां सीता प्रकटाओ और राक्षसों के संहार की भूमिका तैयार करो .............मेरे श्रीराम नें मुझे ये सब कहा था ।
लीलाधारी !
आपको लीला करनी ही है तो मैं आपके सदैव साथ ही हूँ ।
इतना सुनकर मेरे श्रीराम नें अग्नि को प्रकट किया ...............मैने उस अग्नि में अपनें मूल रूप को छुपा लिया था .......और छायाँ सीता ......मेरी छायाँ से ही प्रकट हो गयीं ।
छायाँ सीता ?
मैं सोच में पड़ गयी थी ...............
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हे देवी सीते ! मेरे जीवन की जो साध थी वो पूरी नही हो पाई ।
क्या साध थी तुम्हारी देवी ! वो उच्च कोटि की तपस्विनी थीं ....मुझसे आकर कुछ कहनें लगीं तो मैने भी पूछ लिया ।
मैने हजारों वर्ष तक तप किया ...........मात्र इसलिये कि श्रीराम मेरे पति बनें ...................पर मोटे मोटे नयनो से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे उस तपस्वीनी के ।
पर एक दिन मेरे देह को उस दुष्ट रावण नें छू लिया .........और मुझे पता है अब मैं श्रीराम की अंग संगा नही बन पाऊँगी ..........
पर मैं आपसे कुछ सहायता माँगनें आई हूँ.......आप ही हैं चिरसंगिनी श्रीराम की ......आपही हो दोनों अनादि दम्पति.......मैं तो अपनी जिद्द के चलते श्रीराम को पाना चाहती थी .....पर ये हो न सका ।
हे वैदेही ! मैं रावण से बदला लेना चाहती हूँ ............उसनें मेरे देह को छूकर राम के योग्य मुझे नही रहनें दिया .........इसलिये मैं उस रावण से बदला लेना चाहती हूँ ..................
मुझे उस तपस्विनी के ऊपर दया आगयी थी .........प्रेम करती है ये मेरे श्रीराम से तो क्या गलत करती है .....................और उस दुष्ट रावण नें इसके जन्मों जन्मों की कामना को धूलि में मिला दिया था ।
मुझे मेरे श्रीराम नें मूल रूप को छुपानें के लिए कहा है ..........मैं छायाँ रूप में अब रहूँगी जब तक "राक्षसराज" का उद्धार न हो जाए .......
हे तपस्विनी ! तुम मेरी छायाँ में रहो ....................और राक्षस राज रावण से अपनें किये का बदला लो ................
और तुम्हारी ये साध भी तो पूरी हो रही है ..................कि मेरे श्रीराम की अर्धांगिनी भी तुम कुछ समय तक कहलाओगी ही ..............
आओ ! मेरी छायाँ में समा जाओ ......तपस्विनी ! अब तुम रावण के मरनें तक सीता बनकर तुम ही रहोगी ........तुम्हे स्वीकार है ना ?
नेत्रों से उसके अश्रु गिरनें लगे थे ..............
आप सच में करुणा की सागर हो ..................हे मैथिलि ! आप ही हैं रामबल्लभा ........आपका स्थान कौन ले सकता है !
मुझे भी कुछ समय के लिये ही सही .....पर श्रीराम प्रिया कहलानें का सौभाग्य आपनें ही दिया ..........और उस रावण को तो !
नेत्र लाल हो गए थे उस तपस्विनी नें.....मैं उस रावण को बर्बाद करूंगी ।
मैनें उसे अपनी छायाँ में समा लिया था ।
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अब मै निश्चिन्त होकर अपनी लीला करूँगा .........मेरे श्रीराम नें कहा ।
मैनें अग्नि में अपनें मूल रूप को छूपा लिया था .................अब मेरे रूप में मेरी छायाँ थी ........और उस छायाँ में तपश्विनी को समा लिया था मैने ................।
अब लीला होगी ............अब राक्षसराज का उद्धार होगा ..............
लक्ष्मण आगये थे कन्द मूल फल लेकर .......पर इस रहस्य को लक्ष्मण से भी छुपा लिया था मेरे श्रीराम नें ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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