आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 89 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
सुन्दरी ! तुम कौन हो ?
मैं कुटिया से बाहर आयी ये सोचकर कि मेरे श्रीराम किससे बातें कर रहे हैं ! मैने देखा कोई अत्यंत सुन्दरी ............गहनों से लदी हुयी .......पर वस्त्रों से लग नही रही थी कि कोई आर्यनारी है ........उसके वस्त्र अंग प्रदर्शन के लिये ही थे ......मेरे श्रीराम को रिझाना चाहती थी ।
सुन्दरी ! तुम कौन हो ? मेरे श्रीराम उससे पूछ रहे थे ..........पर पूछते समय उनका ध्यान सूर्पनखा के आभूषणों कि और था ...........।
पहले तुम बताओ मनोहारी ! नवधन सुन्दर युवक ! तुम कौन हो ?
और हाँ ..........इस घोर अरण्य में क्यों आये हो ?
वो मटक कर बोल रही थी ...........चंचल कटाक्ष करके बोल रही थी ।
मैं राम हूँ......मुस्कुराते हुये मेरे श्रीराम नें कहा.......दशरथ नन्दन राम ......और ये हैं मेरे अनुज लक्ष्मण.......फिर मेरी ओर देखा - ये हैं मेरी भार्या सीता ...........
पर तुम कौन हो सुन्दरी ! इस तरह से जंगल में अकेली क्यों घूम रही हो ? ............मेरे श्रीराम नें उसका परिचय पूछा था ।
पर सूर्पनखा नें झूठ नही बोला .........जो था वह बता दिया .......और बतानें में भी उसका आशय यही था कि सामनें वाले को भी गर्व अनुभव हो ............
मैं दशग्रीव रावण की बहन हूँ ...............सूर्पनखा मेरा नाम है .....
रावण ! विश्रवा मुनि का पुत्र ...........लंकापति रावण मेरा भाई है ।
इस बात को उसनें दो बार दोहराया था ...................ताकि सामनें वाले को लगे कि मैं कितनें बड़े व्यक्तित्व से बातें कर रहा हूँ ।
त्रिभुवन विजयी रावण .............और इतना ही नही ......महाबली कुम्भकर्ण और विभीषण ये भी मेरे भाई हैं ......सुपर्णखा बोले जा रही थी ...........मै इस दण्डकारण्य की साम्राज्ञी हूँ ...............
सूर्पनखा को कुछ भी छूपाना उचित नही लगा .....उसे लगा ये राजकुमार अगर मुझे साधारण समझेंगें तो विवाह करेंगें क्यों ?
हे राम ! इस त्रिभुवन में ऐसा कोई नही जो मुझे न पाना चाहे ........पर मैं किसी को नही चाहती ...............सूर्पनखा नें कहा ।
तुमनें अभी भी विवाह नही किया ?
मेरे श्रीराम नें सूर्पनखा से पूछा ।
नही ना ! कोई मिला ही नही .....................
हाँ हाँ ..........अब मिल गया ..........मेरे श्रीराम की और देखकर नेत्रों को चपल करके बोली थी ...........
बहुत अच्छा ............ कौन है वो ? मेरे श्रीराम नें उससे पूछा ।
तुम !
अपनी मोटी ऊँगली जिसके नाख़ून बहुत बड़े बड़े थे उनको मेरे श्रीराम की ओर करती हुयी बोली .......।
मैं ? मेरे श्रीराम हँसे ...................
पर मैं तो विवाहित हूँ .......और मेरी पत्नी ये रहीं .............
छोडो ! मेरी और देखती हुयी वो सूर्पनखा बोली थी ।
ये दुबली पतली तुम्हे क्या सुख दे पाएगी ..............छोडो इसे .....और मेरे साथ चलो ....हम कामक्रीड़ा का सुख लेंगें ................
पर हम आर्य हैं.......और आर्य एक बार किसी को अपनी भार्या मान लेता है तो फिर उसे छोड़ता नही है.....मेरे श्रीराम नें गम्भीरता से कहा ।
तुम डरो मत...राम ! डरो मत मैं हूँ तुम्हारे साथ अब ........देखो मेरा रूप लावण्य....और तुम्हारी ये पत्नी......वो मुझे ही देख रही थी ......उसकी आँखें लाल होरही थीं काम वासना के कारण .....मेरे श्रीराम को लेकर उसनें मन ही मन में कामक्रीड़ा भी प्रारम्भ कर दी थी ।
शान्त हो जाओ ! मेरे श्रीराम नें उसे शान्त करना चाहा..........एक बार छू लो ना मुझे .........राम ! वो तो काम के अधीन हो चुकी थी ।
सुनो ! वो मेरा भाई है ..........तुम उससे विवाह कर लो ...........
ये कहते हुये मेरे श्रीराम नें मेरी ओर देखा और मुस्कुराये.........।
सूर्पनखा नें लक्ष्मण को देखा .......बड़े ध्यान से देखा ........तो मुझे भी हँसी आगयी ।
हाँ ये भी सुन्दर है...........और तुम तो राम सांवले हो ....पर ये तो गौरवर्ण ! ............तुरन्त ये कहते हुए सूर्पनखा नें अपनें बाहों को लक्ष्मण के गले में डालना चाहा ...............
अरे हटो ! सूर्पनखा को झिड़क कर दूर जाकर खड़े हो गए लक्ष्मण ।
उनकी ऐसी स्थिति देखकर मैं हँसी ..........मेरे श्रीराम भी हँसे ।
अरे ! कहाँ जा रहे हो ......मैं तुम्हे खाऊँगी नही .......सूर्पनखा नें कहा ।
देखो ! मेरे पास आकर तुम्हे क्या मिलेगा ...........मैं तो इनका दास हूँ .....क्या तुम्हे दासी बनना है ? लक्ष्मण भी सहज मूड में आगये थे ।
ना ! मैं दासी क्यों बनूँ ? मैं तो महारानी बनूँगी ...........सूर्पनखा ये कहते हुये फिर मेरे श्रीराम की और बढ़ी .................
पर इस बार अपनें पास आने ही नही दिया मेरे श्रीराम नें ...........
संकोच करता है ..........छोटा भाई है ना मेरा ....अपनें बड़े भाई से संकोच करता है .......तुम्हे पुरुष को रिझाना नही आता क्या ?
मुस्कुराते हुए बोले मेरे श्रीराम ।
पर वो तो कह रहा है .......वो दास है ! सुपर्णखा नें कहा
भाई है मेरा वो ..........और छोटा भाई ..................अपनें बड़े भाई को इतना सम्मान देता है कि मुझे स्वामी कहता है ....और स्वयं को दास ।
सुपर्णखा को ये ठीक लगा ..............हाँ जब छोटा भाई है ....तो इसी से विवाह कर लिया जाए ........और बाद में दोनों भाई मेरे साथ ही रहेंगें ।
मुझ से दूर क्यों जाते हो .......आओ ना ! क्या मै सुन्दरी नही हूँ ?
लक्ष्मण नें जब देखा सुपर्णखा आरही है उनके पास ....तो वह फिर दूर जाकर खड़े हो गए ।
हँसे लक्ष्मण .............बहुत सुन्दरी हो .........तुम वहीं जाओ .......
हाथ जोड़कर लक्ष्मण नें फिर श्रीराम की और भेजा ...............।
इस बार जब सुपर्णखा आई तो मेरे श्रीराम हँसे ...........उनको हँसता देखकर मेरी भी हँसी निकल पड़ी ......लक्ष्मण भी दूर खड़े हँस रहे थे ।
ओह ! तुम लोग मेरा मजाक उड़ा रहे हो..........मैं सब समझती हूँ ।
राम !
ये तुम्हारी पत्नी ही हम दोनों के बीच में बाधा है .......मैं इसी को खाऊँगी ..................
ओह ! एक क्षण नही लगे .......उसका वो सौंदर्य कहाँ गया पता नही ..........वो तो कज्जल जैसी काली ......लाल आँखें .........बड़ी बड़ी नाखुनें .......लाल रँग के केश ..............वो मेरी और झपटी ।
मैं चिल्लाई .......मैं डर गयी थी उसका वो बीभत्स रूप देखकर ।
लक्ष्मण ! राक्षसियों के साथ विनोद ठीक नही है .........
आँखें बन्दकर श्रीराम नें लक्ष्मण को इशारा किया ..............
तर्जनी ऊँगली ऊपर की ओर की मेरे श्रीराम ने ...........फिर उस ऊँगली को थोडा झुकाया .......फिर दो बार आगे पीछे किया .......
लक्ष्मण समझ गए थे कि राक्षसराज रावण को अब मेरे श्रीराम चुनौती दे रहे हैं ......................
लक्ष्मण आगे बढ़े ...........खड्ग लिया और सुपर्णखा के नाक कान काट दिए .........वो इतनी जोर से चीखी ....कि हिरण और पक्षी सब भाग गए थे वहाँ से ......मैने भी अपनें दोनों कान बन्द कर लिए थे ।
शेष चरित्र कल.......
Harisharan
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