आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 84 )
'वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
पंचवटी के निकट हम लोग पहुँच चुके थे .....सघन वन था वो ।
भैया ! देखो वो राक्षस ! लक्ष्मण नें कहा ।
धनुष बाण सम्भाल लिया था फिर दोनों भाइयों नें ।
मैने भी देखा ........एक विशाल पक्षी ........पक्षीराज कहा जाए ।
मै कोई राक्षस नही ..........मैं जटायू हूँ .......हाँ पक्षीराज जटायू ।
आश्चर्य ! मानव की बोली बोलनें वाला ये पक्षी था .................।
तुम कौन हो ? और इस तरफ क्यों बढ़े चले आरहे हो.....क्या तुम्हे पता नही ये राक्षसों का केंद्र है...उस पक्षिराज नें हमें समझाना चाहा ।
आप जटायू हैं तात !
मेरे श्रीराम नें धनुष से अपना हाथ हटाया ............और धरती में अपना मस्तक रखकर प्रणाम किया था ।
मै देखती रही ...............मुझे और लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ था कि ये इस तरह व्यवहार कर रहे थे इस पक्षी के साथ ......जैसे ये हमारे अभिभावक हों ........पिता तुल्य हों ।
मैं दशरथ नन्दन राम हे पक्षिराज ! अपनी भार्या और अनुज के साथ आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ ।
राम ! दशरथ नन्दन राम ! नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे थे श्रद्धेय जटायू के ।
ओह ! कैसे हैं ? मेरे मित्र दशरथ ?
अब उनका शरीर नही रहा .........मेरे श्रीराम नें बताया ।
क्या ! मेरे मित्र दशरथ नही रहे .....!
उन पक्षीराज की बातें सुनकर ऐसा लगा जैसे इन्हें बहुत दुःख हुआ था ।
कुछ देर तक वो बोल भी नही सके ...........फिर कुछ देर के बाद में बोले .........राम ! मैने तुम्हे बचपन में देखा था ..........जब तुम महारानी कौशल्या के गोद में थे ..............मैं गया था उस समय अयोध्या ................
ये कहते हुये कहीं खो गए थे पक्षीराज जटायू ।
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बचाओ ! बचाओ !
महाराज दशरथ जी पृथ्वी की और बढ़ी तीव्रता से गिर रहे थे ।
स्वर्ग से गिरे थे ..................जटायू नें बताया ।
पर पिता जी स्वर्ग से गिरे क्यों थे ? आश्चर्य से पूछा था मेरे श्रीराम नें ।
हे राम ! स्वर्गपति इन्द्र तुम्हारे पिता के अच्छे मित्रों में से एक थे ।
जब भी स्वर्ग जाते तुम्हारे पिता .........तभी देवराज अपना आधा सिंहासन छोड़ देते .....................
एक दिन की बात ................इन्द्र की सभा चल रही थी ......अप्सराओं का नाच गाना चल रहा था ........तभी इन्द्र के कान में तुम्हारे पिता कुछ बोले ............।
नही दशरथ ! नही ......ऐसी जिद्द मत करो ..................
ये शनिदेव हैं ...............ये अपनी दृष्टि नीचे ही रखते हैं ।
पर मुझे इनको देखना है ..............दशरथ जी की जिद्द थी ।
इनकी दृष्टि क्रूर है अवधेश ! ये जिसे देख लें ..........उसका तो नाश ही है ................इसलिये ये जैसे हैं इन्हें रहनें दो ..........।
पर मुझे इनकी दृष्टि से अपनी दृष्टि मिलानी है ...............
राजाओं की अपनी जिद्द होती है .........आज अपनें मित्र से यही जिद्द कर बैठे थे भूमण्डल के चक्रवर्ती दशरथ ।
शनिदेव ! चक्रवर्ती दशरथ तुम्हे देखना चाहते हैं......ऊपर दृष्टि करो !
इन्द्र की बात मानकर जैसे ही शनिदेव नें अपनी दृष्टि उठाई ............
बचाओ ! बचाओ !
बड़ी तीव्रता से पृथ्वी की ओर गिरनें लगे थे दशरथ जी ।
बचाओ बचाओ ! वो चिल्लाते जा रहे थे .......
मैं अपनें भाई सम्पाती के साथ था .....................मैने सुना ........कोई मानव गिर रहा है अंतरिक्ष से ..............
मैं उड़ा ..............और मैने महाराज दशरथ को अपनी पीठ में रख लिया ...........फिर उसी तीव्रता के साथ नीचे आगया था ।
धन्यवाद पक्षिराज ! मुझे बार बार धन्यवाद कर रहे थे महाराज ।
आपनें दशरथ के प्राण बचाये हैं...........बोलिये क्या चाहिये आपको ?
राम ! उस समय मेरे मुख से निकल गया .......आपका प्रथम पुत्र !
क्या ! मैं चौंक गयी ........लक्ष्मण भी चौंक गए ...........मेरे श्रीराम मुस्कुराते हुए सारी बातें सुन रहे थे ।
तात जटायू ! फिर आगे क्या हुआ ?
हे राम ! महाराज दशरथ के उस समय कोई पुत्र था नही ....इसलिये जो वस्तु है नही .........उसे देनें की "हाँ" कहनें में क्या दिक्कत है !
ठीक है ! कहना ही पड़ा ..............महाराज चक्रवर्ती नरेश के मैने प्राण जो बचाये थे ।
कुछेक वर्ष बाद ही मुझे पता चला की उनके पुत्र हुए हैं .......और चार पुत्र .................मुझे देखना था, अपनें पुत्र को देखना था ........हे राम ! मैं गया .......................आकाश में उड़ते हुए मैने महारानी कौशल्या के गोद में ...............तुम्हे देखा ...........ओह ! अपूर्व सौन्दर्य .............................
हे पक्षीराज ! महाराज दशरथ मेरे सामनें खड़े थे ................
आपका ही बालक है............पर आप इन्हें लेकर कैसे जायेंगें ?
नही ......मैं बालक को ले जानें नही आया हूँ ........मैनें जब चक्रवर्ती से ये कहा .......तब उनके मुखमण्डल में प्रसन्नता छा गयी थी ।
मैं तुम्हे खूब देखता रहा राम ! .............आनन्दित होता रहा ।
महाराज नें मेरा बड़ा आदर किया....पर मेरा ज्यादा रुकना मुझे ठीक भी नही लगा क्यों की हम गिद्ध का दीखना शुभ कहाँ माना जाता है !
फिर कुछेक वर्ष बाद पता चला कि तुमको वनवास दे दिया है तुम्हारे पिता नें ......सच कहूँ हे राम ! मुझे चक्रवर्ती पर बहुत क्रोध आया था ।
वो अब नही रहे तात जटायू !
सजन नयन से बोलते हुये अपना मस्तक पृथ्वी पर रख दिया था मेरे श्रीराम नें ..................................
हाँ ...............................
आँसू बहाते रहे थे श्रद्धेय जटायू ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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