वैदेही की आत्मकथा - भाग 85

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 85 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही  ! 

आप मेरे पितृतुल्य हैं  हे तात जटायू !  

मेरे श्रीराम नें  हाथ जोड़कर प्रणाम   करते हुए कहा था ।

राम !    

    हृदय से लगा कर   असीम शान्ति का अनुभव करनें लगे थे  जटायू  ।

तुम यहीं रहो  राम !  पंचवटी में,      हाँ राक्षसों का आतंक तो है यहाँ........पर मैं हूँ,   सारे  राक्षसों की   गतिविधि पर मेरी नजर है....निश्चिन्त हो जाओ ।.........जटायू जी नें  हम सब को  यहीं कुटिया  बनानें के लिए कहा था  ।

लक्ष्मण भैया नें  व्यवस्था की..........गोदावरी के निकट ही स्थान का चयन किया गया था .......ये स्थान  बहुत सुन्दर था .....पाकर के वृक्ष , पीपल,  वट,  समी और  कदम्ब...  इनके घनें  वृक्ष थे  ।

पर मैने देखा  कोई  प्राणी नही थे यहाँ ........सिंह , रीछ ,   ये दूर दूर तक नही थे .......हाँ यदा कदा हिरण दिखाई दे जाते  .......जो राक्षसों के भोजन बननें से बच गए  थे  ........नही तो  राक्षसों नें किसी को नही छोड़ा था.....।   ये बात हमें    जटायू जी नें ही बताई थी ।

पुत्री वैदेही की रक्षा करना  हे राम !        मेरी और देखकर  वो  यही कहते थे ........राक्षसों की वृत्ती से ये  अच्छे से परिचित थे  ।

भैया !   पर्ण कुटी तैयार हो गयी ..............

कुछेक  घड़ी में ही   लक्ष्मण नें   कुटिया तैयार कर दी थी  ।

हाँ  दिक्कत तो हुयी   भैया !  क्यों की   चित्रकूट में  कुटिया बनानें के लिए सहायक बहुत थे .....पर यहाँ  !    

फिर मेरे श्रीराम के चरणों में प्रणाम करते हुए  बोले ......आर्य !     इन चरणों की कृपा से क्या नही हो सकता ......ये तो पर्ण कुटी ही है ।

इतना सुनकर   मेरे श्रीराम हँसते .........जटायू भी हँसते ........मैं   अपनें श्रीराम को   प्रसन्न देखकर   आनन्दित होती थी  ।

हमारा समय बीत रहा  था ........................

गोदावरी में स्नान करनें के लिये  हम  जाते ................सन्ध्या , तर्पण मेरे श्रीराम नित्य करते थे ......................

फिर  नित्यकर्म से निवृत्त होकर   पक्षीराज जटायू के पास   पहुँच जाते .......और पृथ्वी में अपना मस्तक रखकर  प्रणाम करते ।

राम !  ये क्या करते हो  तुम  !       नित्य प्रातः  मुझे प्रणाम करनें क्यों आजाते हो ..............देखो राम !   प्रातः के समय  गिद्ध का दर्शन करना शुभ नही माना जाता  ।

तात !    जो  आपको  अशुभ मानें  ...........वो स्वयं अशुभ हैं ...........आप  पक्षी होनें के बाद भी     हृदय से पवित्र हैं ........।

पवित्रता हृदय की होती है तात !        जन्म - जाति का क्या महत्व !

सच कहा था मेरे श्रीराम नें..........जन्म जाति का क्या महत्व !

मुझ वैदेही  को पुत्रवधू माना,    तो श्री जटायू नें   निभाया भी ......।

कभी कभी    जटायू जी    मेरे श्रीराम से कहते ........राम !  हम गिद्ध की  दृष्टि बहुत  दूर तक जाती है ............कहीं के बारे में  कुछ पूछना हो..... .......कहना हो  तो बोल देना  ।

मेरा भरत !         तात ! मेरा भरत कैसा है   ?   

भाव से भर जाते थे मेरे श्रीराम  ये पूछते हुए     ।

भरत !   

      कुछ देर  आँखें लगाये उत्तर दिशा की ओर देखते रहते जटायू  जी .....फिर  जो वर्णन करते .........उससे    हम  सब  विरह सागर में डूब जाते थे ...........।

इतनी सर्दी में  भरत  रात्रि को ही सरजू में स्नान करता है !        मेरे श्रीराम रो पडते ।

अग्नि से  भी तो दूर रहता है    मेरा भाई भरत  ।

मेरी माँ कैकेई  कैसी हैं   तात !   

मेरे श्रीराम  कैकेई के लिये ही पूछते  जटायू जी से ।

उन्होंनें तो अपनें कक्ष के कपाट खोले ही नही हैं  राम !  

जब चित्रकूट से गयीं हैं  कैकई ......तब से   वो    बाहर निकली ही नही हैं ...............अन्न जल  सब त्याग कर  बैठी हैं ............कंकाल की तरह देह हो गया है  माँ कैकेई का  ..........जटायू जी बताते थे ।

मेरे श्रीराम कैकई माँ के   बारे में ही पूछते .................या भरत के बारे में ...........हाँ कभी कभी शत्रुघ्न कुमार के बारे में भी पूछते ......

तब  नेत्रों से  अविरल अश्रु बहते रहते  थे    हम सबके .....शत्रुघ्न कुमार के बारे में  सुनकर ............

श्रद्धेय जटायू   अपनी दूर दृष्टि से सब देख लेते और हमें बताते  ........

किसी को  कुछ   नही बोलते  हैं कुमार शत्रुघ्न .......पर अकेले में ......दीवारों    से अपनें सिर को पटकते हैं ...........और रोते हैं ......दीवार में लाल   लाल धब्बे हो गए हैं.............रक्त के  ।

कौशल्या माँ  ये सब देखतीं हैं ...............और समझाती हैं   ।

पर कुमार शत्रुघ्न ! 

हम सब  विषाद में डूब जाते थे   ये सब सुनकर   ।

इस तरह हमारा समय बीत रहा था  पंचवटी में .........हमें   पितातुल्य  जटायू  जी मिल गए थे.......इस बात की हम सब को प्रसन्नता थी ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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