आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 82 )
मुनि अगस्ति कर शिष्य सुजाना...
( रामचरितमानस )
****"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे पढ़िए -
मैं वैदेही !
मुझे अद्भुत ऋषि लगे ये सुतीछन..........इनके जीवन में न कोई तप था ....न कोई व्रत......बस एक ही साधना थी ........प्रतीक्षा !
हाँ प्रतीक्षा .........राम आयेंगें ! आज आयेंगें .........नही आये ! पर कल तो आयेंगें ...........अब आही रहे होंगें ! पेड़ का पत्ता टूट के गिरा .........ओह ! कहीं मेरे राम तो नही आये ?
हवा चली .............मेरे राम आये !
ऋषियों की अलग अलग साधना थी ..........कोई तप कर रहा था इस दण्डकारण्य में ......कोई व्रत लेकर जप कर रहा था ........पर ये कैसे महात्मा थे सुतीछन ..........बस प्रतीक्षा ............।
मेरे श्रीराम आगे बढ़े थे ...............सीधे हृदय को ही छूआ था मेरे श्रीराम नें सुतीछन के ।
कम्पन हुआ ऋषि को ........और जब उन्होंने अपनें नेत्र खोले ........
सामनें खड़े हैं ..........सौंदर्य घन श्रीराम चन्द्र .............भावातिरेक में नेत्र बह चले थे ...........वो उठे ............और नाचनें लगे ............मुझे बहुत अच्छा लग रहा था इनका ऐसा प्रेम देखकर ।
फिर नाचते नाचते रूक गए .........और साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे ।
धरती में ही लोट रहे थे .........................पर लोटते लोटते फिर उठ जाते ......और नाचनें लगते फिर ।
मेरे श्रीराम आगे बढ़े ............और उन ऋषि को अपनें हृदय से लगा लिया था ...........।
पता है नाथ ! आपके दर्शन करते हुये अब मैं भी अपनें देह को त्यागूँगा.......ऋषि शरभंग की तरह ...............
ये बात ऋषि नें कह तो दी बड़ी प्रसन्नता मै......... ...पर मैं सिहर गयी थी .........अब क्या हमें फिर ऋषि शरभंग की तरह इनके भी देह को जलते हुए देखना पड़ेगा ...उसका साक्षी बनना पड़ेगा.......नही !
मेरे श्रीराम नें अपनें हस्तकमल ऋषि के ऊपर रखे .........हे ऋषि सुतीछन ! आपके गुरुदेव कहाँ हैं ?
बड़े भोले थे ये महात्मा ओह ! मुझे तो दक्षिणा देनी है गुरुदेव को ।
आप चलिए ..............बड़े भोलेपन से हाथ पकड़ लिया था मेरे श्रीराम का .....ऋषि नें ।
मेरे श्रीराम हँसे ..................बहुत प्रतीक्षा की है नाथ !
हाथ जोड़कर यही कहा ऋषि नें ....................।
महामुनि सुतीछन की साधना सफल हुयी थी........पूर्ण ही हो गयी थी ..............हाँ इनकी प्रतीक्षा पूर्ण हो गयी थी .....अब कुछ पाना रह नही गया था ......कर्तव्य कोई शेष रहा नही था......श्रीराम नें इन्हें स्वीकार कर ही लिया था ...................।
प्रतीक्षा ...........हर पल स्मरण ! .......................यही साधना थी इन ऋषि सुतीछन की .......और ये साधना सर्वोच्च है ।
हम आगे बढ़ रहे थे ऋषि सुतीछन के साथ इनके गुरुदेव अगस्ति ऋषि आश्रम की ओर ................................
शेष चरित्र कल .............।
Harisharan
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