वैदेही की आत्मकथा - भाग 81

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 81 )

नाम सुतीछन रति भगवाना ....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

ये रहे  ऋषि सुतीछन ......महामुनि अगस्ति के  लाडले शिष्य ........।

साथ में चल रहे ऋषियों के समूह नें मेरे श्रीराम से  कहा ..............

पर ये ध्यानावस्थित हैं ...............इनके रोम रोम से   स्वेद गिर रहे हैं ........सात्विकता घनीभूत हो गयी है ........इतना ही इनकी  ऊर्जा  इतनी प्रेममयी थी  कि  प्रकृति पर भी  प्रभाव देखा जा सकता था ।

हम  खड़े हैं ........उन  भाव मग्न ऋषि को देख रहे हैं .............ओह ! कितनें प्रेमपूर्ण महात्मा हैं..........................।

तभी       सामनें से एक ऋषि आये .............उन्होनें   जो बताया  इन ऋषि सुतीछन  के बारे में .......वो अद्भुत था ...........पास में ही आश्रम है  अगस्ति ऋषि का .......वो इन सुतीछन ऋषि के   गुरुदेव हैं  ।

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मंगल हो तुम्हारा ............सुतीछन  !   अब जाओ,   तुम्हारी    विद्या पूरी हुयी ..........ऋषि अगस्ति नें अपनें शिष्य सुतीछन को  आज्ञा दी ।

आपकी दक्षिणा ?         सिर झुकाकर  पूछा था  सुतीछन नें  ।

तू मुझे दक्षिणा देगा  ?          अपनत्व से ही बोले थे गुरु अगस्ति  ।

पर  आपनें मुझे जो विद्या दी है .........उसकी दक्षिणा तो मैं दूँगा .....और मुझे देना ही चाहिये  !           भोला  शिष्य है ये .................इस बात को गुरु अगस्ति जानते हैं ................भावुक हृदय का  है ये   शिष्य   ।

अब  तू जा   ...........तेरा मंगल हो !   तेरा शुभ हो ! 

इतना कहकर  अगस्ति जानें के लिए मुड़े ..........

पर गुरुदेव ! दक्षिणा तो माँगिये ?          जिद्दी है तू तो !       अगस्ति ऋषि  चिल्लाये ......................

जा  !   जा   और  मेरे  परात्पर परम पुरुष  राम को लेकर आ ..........वो आनें वाले हैं .........और यहाँ मेरे पास ला ....यही मेरी  दक्षिणा है  ।

ओह !          सुतीछन  प्रसन्न हो गए ............गुरुदेव ! आपनें तो समस्त विद्याओं का फल भी बता दिया ................आप  समस्त  विद्याओं के ज्ञाता   .......और आप  स्वयं  श्रीराम के दर्शन करना चाहते हैं ...........तो समस्त विद्याओं के   फल  श्रीराम ही हुए ना  !     

मुझे विद्याओं के साथ साथ विद्या  का फल भी देंनें के लिए .......मैं  स्वयं अपनें को आपके चरणों में अर्पित करता हूँ ...........और  .......

गम्भीर होकर  खड़े हो गए थे   सुतीछन .........................

तब तक नही आऊंगा आपके पास    जब तक  श्रीसीताराम को भी न ला सकूँ    ।

पास में ही  कुटिया बना ली ..........और प्रतीक्षा में बैठ गए  ।

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आप क्यों आये  हैं  देवराज इन्द्र  !   

ऋषि सुतीछन की   प्रतीक्षा में बाधक बननें  देवराज  अपनें हाथी "एहरावत"  में बैठकर आगये थे......तब ऋषि सुतीछन नें पूछ लिया ।

"शरभंग ऋषि नें श्रीराम का दर्शन करते हुए  अपना शरीर त्याग दिया है"

देवराज इन्द्र ने कहा ।

और  अब कहाँ  हैं  श्रीराम    ? 

आनन्दातिरेक में उछलते हुए  देवराज की बाहु को पकड़ते हुए पूछा था  ऋषि नें ।

इस तरफ ही आरहे हैं ..............इतना कहकर   अपनें  वाहन एहरावत में बैठकर  चल दिए  थे   इन्द्र   ।

क्या  मेरे श्रीराम आरहे हैं  !  

जीवन का लक्ष्य मिल रहा था ऋषि सुतीछन को ........समस्त विद्याओं का फल मिल रहा था .......राम !  राम !        वो दौड़े ...................किधर जाएँ  ........पता नही भूल गए .............कभी दायें मार्ग की और  जाते ......कभी  वाएं मार्ग की और ...........राम !  हे मेरे प्यारे राम !

ये कहते हुये  नाचनें लग जाते कभी.........फिर दौड़ते ..........कहीं निकल न गए हों !........उनके देह से  निकल रही थी  सात्विक सुगन्ध , जो  वातावरण को महका रही थी ......उनके भाव अलौकिक थे  ।       

पर   भाव शान्त हुए ..............और ये समाधि में यहाँ बैठे हैं ...............

इनका ध्यान लग गया ..............ये  आपके ही ध्यान में लीन हैं  ।

ये बात  एक ऋषि नें बतायीं थी.........जिन्होनें ये सब देखा था .....जो स्वयं पास में ही  रहते थे   ।

मेरे श्रीराम आगे आये .........जितनें ऋषि थे  सबको हाथ जोड़ते हुए बोले   अब आप लोग जाएँ ......और अपनी साधना निर्भय होकर करें,   ये राम ! आप सबको  निर्भय करने को  प्रतीज्ञा  ले ही चुका है  ।

राम !  तुम्हारा मंगल हो ! 

..आशीर्वाद देते हुए सभी ऋषि    वहाँ से चले गए थे ..।

मेरे श्रीराम आगे बढ़े ..........ऋषि सुतीछन जी के पास ...................वो ध्यान में भी मुस्कुरा रहे थे.......हृदय में  मेरे श्रीराम का ही तो ध्यान कर रहे थे .......नही ......ध्यान कर नही रहे थे ...... सहज था ............प्राकट्य ही हो गया था उनके हृदय में  मेरे श्रीराम का ...............

मेरे श्रीराम  आगे बढ़े ..................

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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