वैदेही की आत्मकथा - भाग 76

आज के विचार 

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 76)

अत्रि के आश्रम प्रभु गयहुँ ...
( रामचरितमानस )

** कल से आगे का चरित्र -

मै वैदेही !

नारी  सहज अध्यात्म है ............वो अपनें नारी स्वभाव में रहे  तो उसे साधना करनें की आवश्यकता ही नही है ........क्यों की आस्तित्व नें उसे  समपर्ण का सहज गुण दिया ही हुआ है ......

और अध्यात्म समर्पण की ही तो बात करता है ............

ये शिक्षा मुझे   परमवात्सल्यमयी तपोमूर्ति माँ अनुसुइया से मिली ।

हाँ वही अनुसुइया  जिनके बालक त्रिदेव बने थे ...............

और  चित्रकूट में  मन्दाकिनी   को लानें वाली भी तो यहीं थीं ......नही तो ये चित्रकूट वन प्रदेश   जल से विहीन था .........इनके पति  अत्रि ऋषि तपस्या में लीन थे .........वर्षों के बाद जब तपस्या से उठे .....तो  सीधे  अपनी  पत्नी  अनुसुइया जी से जल माँगा .........जल ? 

वहाँ उस समय जल कहाँ था ........न कोई सरोवर ....न नदी .........

उन  पतिव्रता नें    आँखें बन्द कीं ......और   विष्णु पदी गंगा का स्मरण किया.........कई धाराएं बह चलीं थीं ..........गंगा  तीव्रता से बहनें लगीं .......आवाज ज्यादा  थी  गंगा की .......तब  सती अनुसुइया नें  इतना ही कहा ........हम साधना में लीन हैं ........ध्वनि  प्रदूषण करना  हे गंगे !  आपको शोभा नही देता .......मन्द मन्द गति से  आओ ।

"मन्दाकिनी"  नाम गंगा का  तभी तो पड़ा ..........सती की बात को गंगा  कैसे टाल दे ........मन्द मन्द गति से  आनें के कारण ......मन्दाकिनी नाम पड़ा ....मन्दाकिनी गंगा का उदगम  अत्रि ऋषि के आश्रम से ही  है  ।

मैने  उनके दर्शन किये .............माँ अनुसुइया के ...............मुझे कितना आदर दिया ........मुझ बालिका के ऊपर  उन   माँ नें जो वात्सल्य बरसाया  मै वैदेही  उसे भूल कैसे सकती हूँ  ।

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प्रातः ही    भील,  कोल,  ऋषि मुनि सब इकट्ठे हो गए थे ........

ना  जाओ  राम !    ऋषियों नें  हृदय के भाव व्यक्त किये ।

नाथ !  हम  लोगो को अनाथ करके न जाओ ......भीलों नें  बिलखते हुए कहा था ...........।

मेरे पास तो भीलनियाँ  आयी थीं .........बहुत रो रही थीं .........उनके मुख से यही निकल रहा था ......महारानी ! मत जाओ ।

उफ़ !   वो गिलहरी !  ...........मेरी गोद से उतर ही नही रही थी ।

वो कपि !............जो नित्य  इस  चित्रकूट में  कदली लेकर आते थे ।

वो  आज   मुझे  ऐसे देख रहे थे .........मानों कह रहे हो .......अब हम  किसके लिये  जीयेंगें .........हम केले के गुच्छे किसके लिए लायेंगें ।

पक्षी  आज  कोलाहल भी नही कर रहे थे .................

पूरा चित्रकूट  आज   विरह में डूब गया था  ।

मेरे श्रीराम सबको  समझा रहे थे ..............हम तपश्वी के रूप में हैं ....मात्र सुविधा  देखना हमारा काम नही है ........आप लोगों का प्रेम ये राम  कैसे भूल सकता है ........आप लोगों का  ह्रदय पवित्र है .....उस पवित्र हृदय से आप लोगों नें जो हमारी सेवा की है .........ये राम तो आप सबका  ऋणी हो गया है  ।

मै भी अपनें आँसुओं को रोक न सकी  ।

पर मेरे श्रीराम सत्य संकल्प हैं ...................सबको विदा करके .......हम लोग आगे बढ़ रहे थे  ।

बहुत राक्षस हैं आगे   हे राम !        ऋषिओं नें कहा ।

आपकी कृपा से  राम का कोई बाल भी बांका नही कर सकता ।

हाथ जोड़कर ऋषियों से विदा  लिए थे मेरे श्रीराम ।

अत्रि ऋषि !   

हाँ  रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ जी के भाई ......अत्रि ऋषि ।

इनका आश्रम आगया था .....................

पता नही किसी नें सुचना दे दी थी इनको ..................

स्वस्ति वाचन करते हुये  ऋषि मिले .............

स्वयं अत्रि ऋषि   आगे थे  ................

आपका स्वागत है अत्रि के आश्रम में   हे राम !  

अर्घ्य दिया था  श्रीराम को ................

आप ये क्या कर रहे हैं ............आप ऋषि हैं  ब्राह्मण हैं .........हम तो क्षत्रिय हैं ..............श्रीराम नें कहा था  ।

अतिथि का  स्वागत करना ऋषियों का भी कर्तव्य है  राम ! 

विलक्षण  आध्यात्मिक  ऊर्जा थी उनमें   ।

चौकी में  विराजमान कराया था  मेरे श्रीराम को ऋषि नें ।

हे राम !  पुत्री वैदेही को कहो .....की   सती अनुसुइया  कई वर्षों से   उनकी प्रतीक्षा में हैं ........उनसे जाकर ये मिल लें ........

मेरे श्रीराम नें  मेरी और देखा .....और मुझे आज्ञा दी .........

नही राम !  एक  आज्ञा और दो  पुत्री  वैदेही को  ......कि  सती अनुसुइया इनको जो दें उसे ये  स्वीकार करें ...........एक सती का वो आशीर्वाद होगा .....।

मेरे श्रीराम मेरी ओर  देखकर मुस्कुराये ........और  स्वीकार करनें की भी आज्ञा दे दी  ।

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पास में ही ,   कुछ ऊंचाई पर  उन भुवन वन्दनीया माँ अनुसुइया की कुटिया थी .........मैं गयी वहाँ .................

ओह  ! क्या आध्यात्मिक ऊर्जा थी ..........और वो स्वयं -

कपूर के समान गौर वर्ण था उनका ...........केश भी  हिम के समान शुभ्र थे .......झुर्रियों से भरा हुआ उनका देह था........देह  उनका  बहुत पतला था .......जैसे  ?     जैसे  - कोई ज्योति की रेखा हो  ।

उन तपश्विनी का सम्पूर्ण देह तो ऐसा लग रहा था जैसे - ज्योति पुञ्ज हो ।

मैने जाते ही  उनके चरणों में प्रणाम किया .........

मैं मिथिला नरेश की कन्या , दिवंगत चक्रवर्ती श्री दशरथ की बड़ी पुत्र वधू   मैं वैदेही .....आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ ..........।

ओह !   उन्होंने जैसे ही ये सुना .........वो उठीं ............और लड़खड़ाते हुये मुझे ही उठा लिया .......और   अपनी गोद में बिठा लिया   ।

मुझे गोद में लेते ही उन्हें रोमांच हो रहा था ..............उनके नेत्रों  से प्रेमाश्रु बह रहे थे........वो  आनन्दित थीं ........।

मुझे ? 

  मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं  मैया सुनयना की गोद में बैठी हूँ  ।

वो बोलना चाह रही थीं .....पर उनकी वाणी भावातिरेक के कारण अवरुद्ध सी  हो गयी थी .......।

वत्से वैदेही !  

वीणा की सी झंकार - उनकी वाणी गूँजी  ।

कुछ सुनाओ ना !     अपनें विवाह के बारे में कुछ सुनाओ  वैदेही !

मेरे माथे को  सूँघते हुए ..........आनन्द में बोली थीं  ।

उनकी आज्ञा मै टालती ?      कैसे टाल सकती थी .......ये तो वहीं थीं ना ......जिन्होनें  तीनों देवता - विधाता ब्रह्मा , पालक विष्णु और संहारक महादेव को  अपना पुत्र बना लिया था  अपनें तप से ........और उनका तप  था ......."सिर्फ एक हैं"........हाँ  उन्होंने मुझे  यही तो समझाया ।

मै अपनें विवाह की  बातें   बतानें लगी थी ..............

मेरे श्रीराम कैसे आये महर्षि विश्वामित्र के साथ जनकपुर में  ......कैसे पिनाक को उन्होंने तोडा ....कैसे  विवाह हुआ ......वो आँखें बन्द करके सुनती रहीं .......हाँ  किन्हीं किन्हीं प्रसंगों में  वो मुस्कुराती भी रहीं ।

मिथिला में जिस विधि से विवाह हुआ था हमारा ........उन विधियों को भी  सुन कर आनन्दित होती रहीं ........।

वत्से  वैदेही ! .......उन्होंने मुझे उपदेश देना प्रारम्भ किया था   ।

वैसे उनका कहना था ...........सच्ची सती तो तुम हो  वैदेही  !

हमें तो ..........वो हँसी थीं ..........कितनी निश्छल हँसी थीं उनकी  ।

हमें तो  ईश्वर का भाव करना पड़ता है  अपनें पति पर ...........

पर तुम्हारे पति तो ईश्वर हैं  ..................

फिर कुछ सोच कर बोलीं ..........हे वैदेही ! सच्ची पतिव्रता तो वह है .....जो  अपनें पति के अलावा  कुछ मानती ही नही ..........

जीव  नारी ही तो है......और उसका पति  एक मात्र परमात्मा है .....एक .....उस एक के प्रति निष्ठावान रहना ही  पतिव्रता के  लक्षण हैं  ।

नारी सहज है .........नारी  अहंकार से रहित है ...........सहज समर्पण नारी के स्वभाव में है ...............और इसी सहज  स्वभाव का  आश्रय लेते हुये ......अपनें  पति के प्रति समर्पित रहना ............पति ?   नही मात्र ये देहधारी को पति नही मानना ..ये तो पति के वस्त्र हैं......पर वस्त्र भी तो पति के हैं ना ? .....पति  तो  इसके अंदर जो बैठा है ....वो है ....उसके पति समर्पित रहना.......फिर  सेवा , श्रद्धा ,  सहज होगी ।

निष्ठावान रहना    नारी का स्वभाव है .. ................ठहराव नारी का स्वभाव है ......उसी स्वभाव में स्थित रहना ही  - पतिव्रता  है  ।

देह के सुख को   सुख मानना  निम्न स्थिति है नारी की ............

सेवा धर्म को  ही जिसनें अपनें जीवन की साधना बना ली है .....वो पतिव्रता है ..........

जो  वासना के चलते इधर उधर भटकती हैं ............वो नारी   स्वभाव से गिर गयी हैं ..........वासना  तुच्छ है ...........देह का सुख  कितनें समय के लिये ?    पर   सेवा  का सुख !   ....निःश्वार्थ सेवा का सुख  पतिव्रता ही लेती है ...........जिसके मन में  कोई कामना नही है ........मात्र  ईश्वर रूप पति की सेवा ............यही  नारी के लिये  सहज साधना है  ।

मै सुनती रही .......मैं सुनती रही  उन जगत वन्दनीया की वाणी .........

मेरे लिये  अमृत तुल्य था उनका एक एक शब्द ....................

सत्य  कहा था उन्होंने .....नारी ही इस पृथ्वी को  बचाये हुए है .....

नही नही ...........वो नारी तो भार है  इस पृथ्वी के लिये ......जो देह सुख के लिये .............नाना  देह से  सम्पर्क रखती है ...............।

सती नारी..........सती का  अर्थ  यही है ......सत्य पर चलनें वाली  ।

वो कुछ देर के लिये रुकीं ..........मै उनकी गोद में ही थी .........

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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