आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 77 )
अनुसुइया के पद गयी सीता ....
( रामचरितमानस )
**कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
सीते ! पुत्री ! तुम्हारा नाम लेकर ही बड़ी बड़ी पतिव्रतायें शक्ति प्राप्त करेंगीं ....................
तुम्हारे रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती हैं ना ! वो मेरी छोटी बहन हैं .........वही तुम्हारे बारे में मुझे बताती रहती थी ।
लड़खड़ाते हुये उठीं अनुसुइया जी ............मैं उनकी गोद से उठकर चरणों में बैठ गयी थी ..................
बेटी ! विधाता नें मुझे बहुत कुछ दिया .....मैने कुछ नही चाहा था पर उन्होंने मुझे दिया ......... मैं उनका क्या करूँ !
ये अंगराग है...........सुवर्ण के कटोरे में अंगराग था........
मैं तुम्हारे देह में इसे लगाउंगी ..............ना मना मत करना ।
मेरे देखते ही देखते ...........दिव्य आभूषण उनके पास में आचुके थे ।
साड़ी अत्यंत सुन्दर थी ...................
मेरे पास अयोध्या से चलते हुए एक ही साड़ी तो थी ........जो मैने पहनी हुयी थी .......गंगा नहाते हुए .......वो गीली हो गयी थी .।
आगे चलकर मैने वल्कल पहननें सीख लिए......भीलनियो से ।
चित्रकूट में मेरे पिता जनक जी और माता सुनयना भी आये थे .......वस्त्र वह भी लाये थे ......पर मैने उन्हें स्वीकार नही किया ।
कैसे करती .........मेरे पति वनवासी भेष में और सीता राजसी वस्त्र धारण करे !
यही बात आज मैने कही ..............माँ ! क्या ये शोभा देगा ....?
नही माँ ! मेरे पतिदेव वनवासी भेष में हैं ........और मैं ?
ये सुहागन नारी की पहचान है .............इसमें गलत नही है पुत्री !
सुहागन नारी श्रृंगार में रहे यही उसकी शोभा है ।
मुझे मेरे श्रीराम नें आज्ञा दे दी थी ...............इसलिये इससे ज्यादा मै कुछ बोली भी नही .................
उन्होंने मेरे देह में अंगराग लगा दिया ............ये अंगराज तुम्हारे देह को वर्षों तक स्वस्थ और सुन्दर बनाकर रखेगा ...........
साड़ी पहनाई ...............आभूषण पहनाये .........कानों में दिव्य कुण्डल ........भुजाओं में केयूर .......कण्ठ में माला ........हाथों में कँगन ।
मै धन्य हो गयी थी जगतवन्दनिया माँ अनुसुइया के हाथों ये दिव्य आभूषण धारण करके......................
अब जाओ पुत्री रात्रि हो रही है .......अपनें पति के पास जाओ ..........
फिर मेरे माथे को सूँघा उन्होंने............मैने उन्हें प्रणाम किया ।
वैदेही ! तुम ?
मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक देखनें लगे थे मेरे श्रीराम ।
आपनें ही आज्ञा दी थी मुझे............कि सती अनुसुइया जो दें उन्हें स्वीकार कर लेना .......मैने कहा ।
"वे अनुग्रहमयी" स्वर भींग गया मेरे श्रीराम का ..................
कंगाल राम जब जब तुम्हे देखता था वनवास में ......तब तब राम का हृदय रोता था ..........हे सीते ! तुम्हारे वस्त्रों को देखकर ।
जनकराजदुलारी को, रघुकुल की ज्येष्ठा पुत्र वधू को मैं अच्छे वस्त्र भी न दे सका......मेरे श्रीराम बिलख उठे थे........फिर अपनें आँसू पोंछते हुये बोले........इन वन्दनीया नें इस राम की चिन्ता मिटा दी ।
ये कहते हुये मुझे अपनें हृदय से लगा लिया था ।
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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