वैदेही की आत्मकथा - भाग 103

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 103 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही -

त्रिजटा से मैने पूछा था ...........पर  रावण के तो दो भाई और हैं ना ?

एक तुम्हारे पिता विभीषण और ?   ।

"कुम्भकर्ण"   त्रिजटा नें  मुझे नाम बताया  ।

पर आप भूल रही हैं   रामप्रिया !  एक बहन भी  है  आपको याद तो होगा......?        सूर्पनखा ........मैने ही कहा  था  ।

हाँ ..........त्रिजटा नें हल्की मुस्कुराहट  देते हुए कहा  ।

पर  मंझला भाई  कुम्भकर्ण कहाँ है  ?    मैने जानना  चाहा  ।

"वो  सोता रहता है"...........अगर वो जागा रहे  तो  शायद ये सृष्टि ही नही बचे.......ये बात हँसते हुए बोली थी त्रिजटा  ।

क्या मतलब ?  मैने  त्रिजटा से पूछा  ।

रावण  से भी ज्यादा महाबली  है कुम्भकर्ण........त्रिजटा बोली ।

देखो !  रामप्रिया !     इन सबके पिता एक ही हैं     ऋषि विश्वश्रवा .....पर माँ  अलग अलग हैं..........विशुद्ध राक्षसी से  जन्म लिया था  कुम्भकर्ण नें..........पर मेरे  पिता की माँ ...यानि मेरी दादी  थीं तो राक्षसी ही .......पर  वो   सरल स्वभाव की  और  निर्मल मन की थीं  ।

आपको सुनाती हूँ  मैं  इन सबका  इतिहास .....त्रिजटा सुनानें लगी -

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ॐ ब्रह्मणें नमः  ॐ ब्रह्मणें नमः  ॐ ब्रह्मणें नमः  ।

कौन है ये    ?   

आज  "सुमाली"  नामक  राक्षसों का राजा  रसातल से बाहर आया था पृथ्वी में.....अपनी बेटी के साथ....इसकी बेटी का नाम था  "कैकसी" ।

चौंक गया था    सुमाली   जब पृथ्वी में पैर रखते ही उसे यही मन्त्र ध्वनि   सुनाई दी थी.......क्यों की हजारों वर्ष बीत गए थे  रावण को तप करते हुये .......उसका  यह मन्त्र  पृथ्वी के कण कण में समा गया था  ।

कौन है  ये  जो   इस तरह तप कर रहा है  ?   चौंक गया था  सुमाली ।

फिर  उसे समझते देर न लगी ......महर्षि विश्वश्रवा का पुत्र है  ।

बेटी !     क्यों न  तुम भी ऐसा ही पुत्र  राक्षस समाज को  प्रदान करो ।

कैकसी  अपनें पिता के मुँह से ऐसी बात सुनकर शरमा गयी थी ।

सुमाली हँसा था ............क्या मानवों के कन्या की तरह तुम लजा रही हो  .......हम तो राक्षस हैं .......जो सत्य है  वह बोल देते हैं ।

अब  सन्तानोत्पत्ति  तो नारी को करनी ही है ना !   फिर इसमें  चर्चा हो जाये तो आपत्ति क्या  ?   सुमाली अपनी पुत्री से ये सब कह रहा था ।

तो मैं क्या करूँ पिता जी !       बेटी कैकसी नें  अपनें पिता से ही पूछा ।

पुत्री !  तुम  ऋषि विश्वश्रवा को रिझा सकती हो ?........उनके  तेज़ को  अपनें गर्भ में स्थान दे  सकती हो ?......अगर ये कर सको  तो   हम राक्षस   देवों के साथ भी लड़नें की हिम्मत दिखा जायेगें.......राक्षस सुमाली नें अपनी पुत्री को इस तरह से समझाया था  ।

आर्य नारी तो थी नही  कैकसी .......राक्षसी तो उन्मुक्त जीवन की आदी होती ही हैं .......तो कैकसी  चली गयी थी ऋषि विश्वश्रवा के पास ।

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काला रँग था   कैकसी का .............मोटे होठ थे ..........आँखें बड़ी बड़ी थी ......देह  मानों कामुकता का सागर  था .........केश राशि   लहराती  कई नागिनों का  समूह प्रतीत हो रहा था ..........उसके देह की गन्ध कामुकता का  प्रसार ही कर रही थीं .....................

ऋषि विश्वश्रवा नें देखा ..............................

काम वासना से कौन सा युग छूटा है ........कामदेव का प्रभाव हर युग में रहा है .........और ऋषि  विश्वश्रवा कोई   जितन्द्रिय बननें का   आग्रह रखनें वाले ऋषि तो थे   नही .............

दोनों  एक दूसरे के देह में  बंध गए  थे .........................।

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पिता जी !  बहन कहाँ गयी  ?        

सुमाली से  उसकी दूसरी पुत्री  "सुवक्षा"  नें  अपनी बड़ी बहन को नही देखा तो पूछ लिया ..................।

वो  गयी है    पुत्री  !    इस राक्षस समाज को  परित्राण  देनें वाले पुत्र को जन्म देंनें के लिये ...........ऋषि विश्वश्रवा के पास  ।

जो बात थी  वो स्पष्ट कह दी सुमाली नें  ।

पिता जी !  मैं भी जाऊँगी  .........सुवक्षा नें कहा  ।

राक्षसी कन्याओं को कब माता पिता नें रोका है......रोक टोक तो आर्य कन्याओं के साथ होता है .......जाओ  !      सुमाली नें कह दिया ।

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तुम कौन हो ?      गौर वर्णी   सुवक्षा को देखा  जब ऋषि  विश्वश्रवा नें  तब  इसपर भी आकर्षित हो उठे थे ....................

कैकसी के पुत्र हुआ .........वो  बड़ा भयानक था ...........उसके कान  बड़े  विशाल थे .....बड़े बड़े थे.... ...    ऋषि विश्वश्रवा नें इसका नाम ही रख दिया  "कुम्भकर्ण" ..........एक पुत्री भी हुयी थी कैकसी के ....जिसका नाम  सूर्पनखा  रखा  था  ।

और मेरी दादी,   त्रिजटा बोली ...........उन्होनें बड़ी सेवा की  ऋषि विश्वश्रवा की.......शान्त थीं मेरी दादी  ..........ऋषि  ध्यान करते थे  तो ये भी    वहीं बैठी रहती थीं ............

ऋषि  विश्वश्रवा को  अर्चन के लिये जो भी सामग्रियाँ चाहिये होतीं   वो ये पहले से ही तैयार कर देतीं ...................ये ध्यान करतीं थीं  ।

ऋषि विश्वश्रवा   मेरी दादी सुवक्षा  को समझाते थे .............

श्रीहरि ही  सबके  पालक हैं ........उन्हीं की आराधना  सर्वश्रेष्ठ है ....

श्रीहरि कौन हैं  ?    मेरी दादी सुवक्षा  पूछतीं थीं ...........

श्रीहरि  के अनेक नाम हैं .......अनन्त नाम हैं .........राम,  जनार्दन, गोविन्द,  नारायण, विष्णु ..........सब नाम कल्याणकारी हैं ।

राम !    मेरी  दादी  सुवक्षा कहती थी ......राम ....राम ...राम .....

उन्हीं दिनों  मेरे  पिता  विभिषण का जन्म हुआ  था ..........।

समय बीतनें में भला क्या देरी लगती है  ?

अब  एक साथ  तीनों भाई   ब्रह्मा की तपस्या में लग गए थे .............

रावण  तो पहले से ही तपस्या में लीन था ही .....अब   कुम्भकर्ण और  विभीषण भी  ................

ॐ ब्रह्मणें नमः  ॐ ब्रह्मणें नमः  ॐ ब्रह्मणें नमः ..........

ये मन्त्र और गूँज उठा था  सृष्टि में .........।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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