आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 102 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
हे मेरे श्रीरघुनाथ ! हे मेरे श्रीराघवेन्द्र ! नाथ ! कहाँ हो ?
मैं उस बहुत क्रन्दन कर रही थी ........मेरा रोना रुक ही नही रहा था ।
मैं कहाँ आगयी ..........मेरे श्रीराम कहाँ चले गए ......कब आयेंगें मेरे पास......आयेंगें की नही ......मेरा विरह चरम पर पहुँच गया था ।
किसनें तेरा नाम अशोक रखा ? मैं उस अशोक वाटिका में लगे अशोक के वृक्षों से ही व्याकुलता में पूछ रही थी .........अगर सच में तेरा नाम अशोक है तो अपना नाम सार्थक कर और मेरा शोक दूर कर ।
रामप्रिया ! आप क्यों रो रही हैं ............नित्य शाम को आती थी ये त्रिजटा पर आज मध्यान्ह में ही आगयी थी ।
पर मेरे आँसू बहते ही जा रहे थे ........हे त्रिजटे ! बता ना मेरे श्रीराम आयेंगें ना ? मुझ अभागन को ले जायेंगें ना ? बता ना ?
आप शान्त हों पहले.............मुझे अपनें हृदय से लगा लिया था उसनें .........थपथपी देती रही तब जाकर मैं कुछ शान्त हो पाई थी.....पर मै सुबुक ही रही थी ।
मेरे पिता श्रीविभीषण आज कह रहे थे कि श्रीराम भगवान हैं.......और उनका अवतार ही इसलिये हुआ है कि रावण का आंतक इस पृथ्वी से समाप्त हो.........।
पूर्णब्रह्म हैं श्रीराम .........और रावण, जो श्रीरामप्रिया को यहाँ हरण करके लाया है ....ये सब मेरे श्रीराम की लीला है ...............मुझे अपनें हृदय से लगाते हुये त्रिजटा बोल रही थी ..............
मेरे पिता जी को विश्वास है श्रीराम पर......आप को विश्वास नही है ?
ये बात त्रिजटा नें जैसे ही कही मैने त्रिजटा के मुख में देखा ..........ओह ! कितनी गम्भीर बात कह दी थी इसनें ...............
है , मुझे पूर्णविश्वास है ..............मैने तुरन्त अपनें आँसू पोंछे ।
पता है मेरी हर बात सच होती है ............रावण भी मुझे बुलाकर कहता है .......बता ये कार्य होगा या नही ? लंका का हर व्यक्ति मुझे सम्मान से देखता है ..........पता नही क्या है .....मैं जो कह देती हूँ ........वो ही जाता है ! त्रिजटा नें बड़ी दृढ़ता से ये बात कही थी ।
अच्छा बता ! मेरे श्रीराम आयेंगें ना ?
आयेंगें ........और देखना रावण का वध करके मेरे पिता ही लंकेश बनेगें.........और मेरे पिता को लंकेश बनानें वाले भी श्रीराम ही होंगें ।
और हे रामप्रिया ! आप को ससम्मान पुष्पक विमान में अपनें वाम भाग में बिठाकर अयोध्या ले जायेंगें ...................
तू बहुत अच्छी है त्रिजटा ! मैने ही इस बात उसे अपनें हृदय से लगा लिया था ।
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रावण !
क्या उसे कोई जीत नही सकता ?
त्रिजटा और मैं कुछ देर तक शान्त बैठे रहे......फिर मैने ही पूछा था ।
नही.......कोई पराजित नही कर सकता रावण को ......त्रिजटा नें कहा ।
अच्छा जन्म के बाद क्या हुआ रावण का ? और त्रिजटा ! ये तो बता कि इतनी शक्ति कैसे पाई रावण नें ........एक ऋषि कुमार ऐसा राक्षस कैसे बन गया ........? मैने पूछा त्रिजटा से ।
त्रिजटा नें रावण जन्म से आगे की घटना का उल्लेख इस प्रकार किया था ..........
पिता जी ! आप किसका स्तवन कर रहे हैं ?
चार वर्ष के कुमार नें अपनें पिता विश्वश्रवा से पूछा था .............
जब अपनें पिता को स्तुति करते हुये कुमार रावण नें देखा तब पूछा ।
"देवराज इन्द्र की" ऋषि विश्वश्रवा नें उत्तर दिया .....और ये भी कहा कि वत्स ! देवों की भी स्तुति हम लोग कर लेते हैं .....वैसे तो देव भी जीव कोटि में आते हैं ............स्तवन तो मुख्य श्रीहरि का ही करना चाहिये ..........विश्वश्रवा उपदेश देंनें लगे थे ........पर रावण को उपदेश प्रिय नही है ...................।
इन्द्र की स्तुति आप क्यों करते हैं ?
रावण को पता नही क्यों देवों से चिढ सी है ।
वत्स ! इन्द्र लोकपाल हैं .............इससे ज्यादा उत्तर देना विश्वश्रवा को उचित नही लगा ........क्यों की प्रश्न जिज्ञासा वश नही था ।
लोकपाल ? रावण बारबार इस शब्द को दोहरानें लगा था ।
क्या केवल इन्द्र ही लोकपाल है ?
नही वत्स ! लोकपाल तो अग्नि और वरुण भी हैं ....विश्वश्रवा नें समझाया ।
मैं भी लोकपाल बनूंगा ........................
रावण चिल्लाया ...........।
मन खिन्न हो गया ऋषि विश्वश्रवा का ....................ऋषि कुमार लोकपाल बनना चाहे ये अच्छी बात तो नही है .............लोकपाल बनना कोई बड़ी बात नही है ............बड़ी बात तो ऋषि का तपोबल पाना है ................पर रावण को कौन समझाये ।
लोकपाल कैसे बनते हैं ? रावण नें फिर पूछा ।
सौ अश्वमेध यज्ञ करके ..............सत्य बात तो बतानी ही पड़ेगी अपने पुत्र को ...........बता दिया विश्वश्रवा नें ।
मैं भी करूँगा यज्ञ ! रावण नें प्रतिज्ञा कर ली थी ।
पिता जी ! देखिये ना आपका पौत्र गलत मार्ग में जा रहा है !
ऋषि विश्वश्रवा आज अपनें पिता महर्षि पुलत्स्य के पास गए थे ।
उसे कोई रोक नही सकता विश्वश्रवा ! कोई नही रोक सकता .......
इसकी महत्वाकांक्षा ही इसे राक्षस बना रही है ..................
त्राहि त्राहि मचानें के लिए तैयार है ये रावण ..........पुत्र ! मैं देख रहा हूँ रावण आगे क्या करनें वाला है ..............ऋषि पुलत्स्य नें कहा ।
आप रोकिये ना ! आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं .......
चरणों में सिर रखकर रो पड़े थे विश्वश्रवा अपनें पिता के ।
मैं क्या अब तो स्वयं पिता ब्रह्मा भी उसे नही रोक सकते ......
ये अब बढ़ता जाएगा ........................
आँखें बन्द कर लीं थीं ऋषि पुलत्स्य नें .........मानों रावण का भविष्य देख रहे थे ...............पर इनके मुखमण्डल में अब कुछ प्रसन्नता छानें लगी थी ................
श्रीहरि अवतरित होंगें त्रेतायुग में ...............उन्हीं के हाथों उसका उद्धार होगा ...............................ये कोई साधारण नही है .........श्रीहरि का ही निज पार्षद है ................जय और विजय ।
इतना कहकर ऋषि पुलत्स्य शान्त हो गए थे ...............।
ॐ ब्रह्मणे नमः ......ॐ ब्रह्मणे नमः .........
पूरी सृष्टि में गूँज उठी थी रावण की ये तपस्या ...........प्रारम्भ कर दी थी रावण नें अपनी क्रूर महत्वाकांक्षा की यात्रा ।
शेष चरित्र कल ..................
Harisharan
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