वैदेही की आत्मकथा - भाग 101

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 101 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक  से आगे -

मैं वैदेही  !

तू इतनी सुन्दर क्यों है त्रिजटा ?  

 तू सांवरी होकर भी  सुन्दर लगती है !

त्रिजटा नित्य शाम को आजाती थी मेरे पास ........मुझे  उसका संग अच्छा लगता......वो मुझे कहती थी ......"राम नाम"  मेरे घर के  द्वार पर अंकित है ..........तुलसी का पौधा और  राम नाम ..........ये दोनों  मेरे पिता  विभीषण जी  को बहुत प्रिय हैं ..................

रावण कुछ नही कहता,  राम नाम लिखनें पर ? ............मैं पूछती थी  त्रिजटा से ..........तब वह हँसती   और  हँसते हुए कहती .........एक दिन   रावण  मेरे घर में आगये थे........उन्होंने   द्वार पर लिखा हुआ देखा ......"राम".......तब  वह क्रोध से  लाल पीले हो गए ....और  चिल्लाकर बोले ..........विभीषण !   मेरी लंका में   ये राम नाम ?     वो भी घर के द्वार पर ही क्यों लिखाया है ....?

मेरे पिता जी ज्यादा चतुर नही हैं ........वो झूठ  बोल नही सके .....

तब मैं  आगे आई ...............हँसते हुए   त्रिजटा बोल रही थी  ।

मैने कहा ....ताऊ जी !  आप  इतनें क्रोधित क्यों होते हैं.............

आप का ही तो नाम लिखा है   पिता जी नें ..............मैने कहा था ।

"राम"    मेरा नाम है ?.............रावण नें  क्रोध में ही  पूछा था  ।

हाँ........पर  गलती इतनी हो गयी पिता जी से कि   दो अक्षरों को जोड़ दिया .......इसलिये आपको गलतफहमी हो रही   है ........

ताऊ जी !    "रा"  का अर्थ है  रावण ..यानि आप ...और "म" का अर्थ है मन्दोदरी..यानि ताई......हुआ कि नही   दोनों को मिलाकर   राम !

मैं त्रिजटा की बात सुनकर हँसी .........मुझे  कई दिनों के बाद पहली बार हँसी आयी थी............त्रिजटा और हम दोनों हँसते रहे थे  ।

आपनें पूछा   -  मैं  इतनी सुन्दर कैसे हूँ ...............

आप को शायद पता नही  मेरी माँ  गन्धर्व की कन्या हैं .......इस सम्पूर्ण राक्षस समाज में   मेरी माँ जैसी  सुन्दरी  और कोई नही है .....आपनें तो देखा ही है ना  मेरी माँ  को ......"सरमा".....यही नाम है  मेरी माँ का ।

मेरी माँ  गन्धर्व  पुत्री हैं........और मैं उनकी कन्या .......शायद इसलिये  मैं सुन्दर लगती हूँ ...........त्रिजटा  इतराते हुए   बोली थी ।

एक बात पूछूँ  त्रिजटा ?      अन्यथा मत लेना मेरी बात का ...........मैनें  उससे पूछा  ।

रावण से  तुम माँ बेटी   शत्रुता का भाव  क्यों रखती हो ?   

मेरे इस प्रश्न नें त्रिजटा को क्रोधित कर दिया था ...............

रावण  नें  मेरे नाना जी की हत्या की है..........इतना ही नही  मेरे मामा  और पूरे मामा के  कुनबे को भी  समाप्त कर दिया .........तब से मेरी माँ और मैं ... रावण का सर्वनाश  करनें की प्रतिज्ञा ले चुकीं हैं ..........ये कहते हुए त्रिजटा क्रोध से  काँप उठी  थी ..........मैं उसे देखती रही ........सच में   बहुत अधर्म किया है रावण नें  -   मैं  सोच रही  थी   ।

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रावण,   ऋषि पुलत्स्य का पौत्र  और विश्वश्रवा का पुत्र होकर भी  इतनें  निकृष्ट कर्म  ?    और  तो और  राक्षस भी हो गया -  वो ब्राह्मण रावण ।

क्यों    त्रिजटा  !     ऋषि पुलत्स्य  के पुत्र  विश्वश्रवा हुए ना ?

त्रिजटा  मेरी बात सुनकर  बोली ........ऋषि पुलत्स्य के पुत्र    विश्वश्रवा  नें जब जन्म लिया  और  किशोर अवस्था में पहुँचे ही थे  कि .........

पूज्य पितृ चरण  !   मैं तीर्थ यात्रा में जाना चाहता हूँ .............

चरणों में वन्दन किया था  अपनें पिता ऋषि पुलत्स्य के   विश्वश्रवा नें ।

कहाँ जाना चाहते हो वत्स !    ऋषि पुलत्स्य नें पूछा   ।

कालिन्दी और जान्हवी के पावन संगम में ........विश्वश्रवा नें कहा  ।

कुछ देर आँखें बन्द किये  ऋषि पुलत्स्य ...........फिर  उनके माथे पर संकुचन होंने लगा ...............मानों उन्होनें  कुमार विश्वश्रवा का भविष्य देख लिया था .......फिर  शान्त भाव से  अपनें नेत्रों को खोला   .....

वत्स !   भविष्य  ही सदैव डरानें देता है ...........कल क्या होगा  ?    

पर  जो होगा  अच्छा ही होगा .......... विधान तो   उस  विश्वनाथ  नें लिख ही दिया है ना  !  फिर हमें चिन्ता करनें की आवश्यकता क्या  ? 

वत्स  विश्वश्रवा ! ........तुम जाओ .......प्रयागराज के संगम में जाकर स्नान इत्यादि करो .....और कुछ समय  वहीं बिताओ  ।

पिता का आशीर्वाद मिला  तो माँ नें भी  प्रसन्नता से विदाई दी  ।

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माघ संक्रांति के दिन  संगम में   स्नान किया  था  विश्वश्रवा नें .............

फिर  सामनें ही ऋषि भारद्वाज का आश्रम था ..........ऋषि को  प्रणाम करनें के लिये विश्वश्रवा वहाँ गए   ।

ऋषि भारद्वाज कहीं जा रहे थे .......उन्होंने आवाज दी .......पुत्री !   हमारा सौभाग्य है  कि  विधाता ब्रह्मा के पौत्र  विश्वश्रवा  हमारे अतिथि बनकर पधारे हैं.......इनके पिता  मेरे अच्छे मित्रों में से हैं ...ऋषि पुलत्स्य .........पुत्री  !   मैं  अभी आता हूँ .....तुम अतिथि की सेवा करना  ।

विश्वश्रवा नें देखा ...........सामनें  कलश में जल लेकर  आयी ऋषि भरद्वाज की पुत्री  "देववर्णिनी".......उसकी चाल ऐसी थी जैसे  हिरण ।

वाणी    वीणा की तरह झंकृत हो रही थी ............

हाथों  में जल डाला............हाथों को धुलाया   उस कन्या नें .......कुमार विश्वश्रवा को जब छूआ .................

पाँव में    जल डाले ................विश्वश्रवा सब कुछ भूल गए  थे  .....बस अपलक नेत्रों  से   उस कन्या को ही देखे जा रहे  थे  ।

आचमन करें  अतिथि  !      जल दिया आचमन के लिये .........पर विश्वश्रवा    मुग्ध हैं  "देववर्णिनी" के  सौंदर्य पर ................

स्वयं ही अपनें कोमल हाथों से उस कन्या नें   मुख  धो दिया  ।

कामदेव को जीत पाना  सतयुग में भी मुश्किल ही था ..........दोनों  आलिंगनबद्ध हो गए  थे  ...................

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"देववर्णिनी"  यही नाम था  ऋषि भारद्वाज की कन्या का ...............

मुझे त्रिजटा   रावण  के जन्म का इतिहास  सुना रही थी ।

विश्वश्रवा को अपनी पुत्री  दे दी  थी   ऋषि भारद्वाज नें ............

दोनों प्रसन्न हुए ..........और  वापस  अपनी कुटिया में  आगये थे ।

पिता जी !   ये हैं आपकी पुत्रवधू  देववर्णिनी.............

वत्स !   जगदीश्वर की जो इच्छा ...............इतना ही बोले थे ......ऋषि पुलत्स्य ..............

आप आशीर्वाद नही देंगें  ?       विश्वश्रवा नें अपनें पिता से पूछा ।

आशीर्वाद माँगनें से कहाँ मिलता है वत्स !   और  भोग प्रधान विवाह तो राक्षसों का होता है ..............तुम्हारी वृत्ती  सन्तानोत्पत्ति करके सृष्टि में योगदान की कहाँ थी ..?      क्या  संगम में तुम  ऋषि भारद्वाज के आश्रम में   इन्द्रियों  को जीत  पाये  ?.......क्यों ?   असंयम,  और  इन्द्रियों की दासता,    ये तो राक्षसी वृत्ति है  वत्स ! ........ऋषि पुलत्स्य  और भी बोलनें जा रहे थे ......पर   विश्वश्रवा की माँ नें  ऋषि को रोक दिया  ।

आप को आजकल क्या होगया है .............पुत्र और पुत्रवधू  आशीर्वाद माँग रहे हैं  और आप ?         

मुस्कुराये  ऋषि पुलत्स्य  ।

पास में ही कुटिया बना ली थी ............ऋषि पुलत्स्य की पत्नी   अपनें पुत्र और पुत्रवधू के साथ ही रहती  थीं  ।

त्रिजटा नें मुझे  रावण का इतिहास बताते हुए कहा .........

हे महर्षि पुलत्स्य  ! आपकी पुत्रवधू   गर्भवती है .........उस गर्भस्थ शिशु  को आप एक बार आशीर्वाद तो दें  ............विश्वश्रवा की माँ नें   अपनें पति पुलत्स्य से प्रार्थना की थी  ।

वो  बालक !.....................हँसे थे ऋषि  ......................

तभी    आकाश से वज्रपात होनें लगा था ........देवता और असुरों में संग्राम छिड़ गया था ..............उल्कापात  अंतरिक्ष में होनें लगे थे ।

तभी    विश्वश्रवा की पत्नी के गर्भ से    रावण नें जन्म लिया  .........

और जैसे ही रावण का जन्म हुआ ..........सातों समुद्र में  खलबली मच गयी थी ...........इंद्र का सिंहासन डोलनें लगा था  ।

शेष चरित्र कल ............

Harisharan

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