एक ब्रजवासी ठाकुर जी को 'परे' कहता था ! वह गायों की खिरक में सेवा करता था और एक रोटी भण्डार में से ले जाता था वह आठों प्रहर गायों की सेवा करता था| एक बार श्रीगुसांईजी किसी वैष्णव को श्रीठाकुरजी सेवा के लिए दे रहे थे| उन्हें उस ब्रजवासी ने देखा| एक दिन उस ब्रजवासी ने श्रीगुसांईजी से प्रार्थना की - "महाराज, मुझको भी श्रीठाकुरजी सेवा के लिए दें|" उस समय श्रीगुसांईजी स्नान करके आ रहे थे| आगे एक पत्थर पड़ा था, उस पत्थर को श्रीगुसांईजी के खड़ाऊँ की ठोकर लगी अत: वह पत्थर दूर जाकर पड़ा| वहाँ पर ब्रजवासी भी खड़ा था, अत: श्रीगुसांईजी ने कहा - "परे ---- परे ----" इस प्रकार कहकर श्रीगुसांईजी अन्दर चले गए| उस ब्रजवासी ने उस पत्थर को उठा लिया और उसने समझा कि श्रीगुसांईजी ने मुझे श्रीठाकुरजी सेवा के लिए दिए है और इन श्रीठाकुरजी का नाम "परे -- परे" है| वह इतना भोला था कि पत्थर को ठाकुरजी मानकर उठा लाया| अब जब घर आया तो उसने विचार किया| एक रोटी मिलती है, उसे तो यह 'परे' (श्रीठाकुरजी) खायेगें फिर मैं क्या खाऊँगा?" उसने भण्डारी से कहा - "आज से मुझको दो रोटी दिया करो|" भण्डारी ने दो रोटिया दे दी | ब्रजवासी ने जाकर रसोई की और दो पत्तल रखकर कहा - "आ भाई 'परे" इनमें एक पत्तल तेरी और दूसरी मेरी|" श्रीठाकुरजी आये ही नहीं| ब्रजवासी बड़ा भोला था| उसने पुन: कहा - "देख भाई, अपनी पत्तल उठाकर भोजन करने बैठना नहीं तो मैं दोनों पत्तल उठाकर तालाब मैं डाल आऊँगा|" श्रीठाकुरजी उसके शुद्ध और भोले भाव को जानते थे, अत: अपना साक्षात् स्वरुप धरकर खाने बैठ गए ! इस प्रकार दोनों समय प्रतिदिन ब्रज़वासी पर कृपा करते थे| एक दिन श्रीगुसांईजी ने ब्रजवासी से पूछा - "तू दो रोटीया ले जाता है| एक तो खाता होगा और दूसरी रोटी का क्या करता है|" ब्रजवासी सहज भाव से बोलै - "आपने ही तो मुझको 'परे' (ठाकुर जी ) सेवा के लिए दिए है| अत: एक पत्तल उन्के लिए लगाता हूँ और एक मेरे लिए लगाता हूँ| हम दोनों साथ - साथ खाते हैं| श्रीगुसांईजी मुस्करा कर चुप रह गए| एक दिन भण्डारी ने उस ब्रजवासी से कहा - "तुम सूरत गाँव जाकर भेंट लेकर आओ|" उस ब्रजवासी ने कहा - "सूरत गाँव कहां है|" उस भण्डारी ने कहा - "सूरत तो बड़ा शहर है|" उस ब्रजवासी ने कहा - "भेंटपत्र और प्रसाद की थैली दो, मैं सूरत चला जाऊँगा|" भण्डारी ने उसे भेंट पत्र और प्रसाद की थैली दे दी| उसने घर आकर सूरत जाने की तैयारी करने लगा| उसने श्रीठाकुरजी से कहा - "भैया परे, मैं तो सूरत जाऊंगा, तू चलेगा या यहीं रहेगा?" श्रीठाकुरजी ने कहा - "मैं तो तेरे संग ही चलूँगा|" उस ब्रजवासी ने कहा - "भैया, तू छोटे छोटे हाथ पैरों से मेरे साथ कैसे चलेगा?" श्रीठाकुरजी ने कहा - "जब तक मुझ से चला जाएगा मैं चलूँगा, नहीं तो तेरे कंधे पर बैठ जाऊँगा|" इस पर ब्रजवासी सहमत हो गया और सूरत के लिए 'परे' के साथ चल दिया| दो तीन कोस चलने पर श्रीठाकुरजी ने कहा - "मैं थक गया हूँ, मुझे कंधे पर बैठा लो|" ब्रजवासी ने उन्हें अपने कंधे पर बैठा लिया| सांझ के समय श्रीठाकुरजी ने एक स्थान पर कहा - "यहाँ आज विश्राम कर लो, कल सूरत चलेंगे|" दोनों वहाँ सो गए जब जागे तो वहाँ आँख खुली जहाँ से सूरत केवल दो कोस था| दुसरे दिन चलकर सूरत आ गए, गाँव बाहर डेरा कर लिया| श्रीठाकुरजी को डेरा पर बैठा कर ब्रजवासी भेंट पत्र व प्रसाद की थैली लेकर वैषण्वों के पास गया| वैष्णवों ने पत्र देख कर विचार किया - "यह कल से चलकर आज सूरत कैसे आ गया?" श्रीगुसांईजी की सामर्थ का ध्यान करते हुए वैष्णवों ने सबके रूपये एक ही दिन में इकट्ठे करके, पांच हजार रूपये की हुण्डी करा दी| हुण्डी लेकर ब्रजवासी डेरा पर आया और परे को साथ लेकर गोपालपुर के लिए रवाना हो गया| रास्ते में दोनों एक स्थान पर सो गए| फिर प्रात:काल उठकर प्रहरभर दिन चढ़ने पर गोपालपुर आ गए| गोपालपुर आकर वह भण्डारी क पास आया और बोला - "दो रोटी दे दो |" उस भण्डारी ने कहा - "तू सूरत क्यों नहीं गया?" उसने कहा सूरत जाकर आज ही आया हूँ| उसने भण्डारी को सब सामान दिया| भण्डारी ने पत्र देखा और हुण्डी को सँभाला| उस पर तारीख देखकर भण्डारी को बड़ा आश्चर्य हुआ| उसने सारी बात श्रीगुसांईजी से निवेदन की| श्रीगुसांईजी ने पत्र की तारीख पढ़कर कहा - "यह सब तो श्रीनाथजी (ठाकुर जी )का चमत्कार है| आज के बाद इस ब्रजवासी को ऐसा कोई काम मत देना| जीवन पर्यन्त इसको दो रोटीया देते रहना|" श्रीगुसांईजी सब कुछ जान गए अत: उसे बुलाकर 'परे' (ठाकुर जी )की बातें पुछा करते थे| वह ब्रजवासी इतना भोला था कि जीवन पर्यन्त श्रीठाकुरजी को 'परे' ही समझता रहा| श्रीगुसांईजी का कृपा पात्र ऐसा भगवदीय था जो श्रीनाथजी को 'परे' के रूप में मानता रहा|
जय हो ऐसे भग्तो की
जय हो ठाकुर जी की
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