वैदेही की आत्मकथा - भाग 55

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 55 )

छिनु छिनु पिय बिधु बदन निहारी...
( रामचरितमानस )

****कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

मुझे याद है  वो चित्रकूट में   ग्रीष्मकाल का  अंतिम भाग था .........

मै तो अपनें रघुत्तम श्रीराम को ही देखती रहती थी .........कभी प्रेमालाप उन्होंने किया नही था......आदत ही नही थी  उनकी  ।

हाँ सच भी है ............प्रेम के आलाप  से लाभ ही क्या है ? 

प्रेम का ढिढ़ोरा पीटनें से भला कोई फायदा है  ?   

"मै प्रेम करता हूँ......मैं प्रेम करता हूँ".......सच्चा प्रेमी इन विज्ञापनबाजी  से दूर ही  रहता है .........है ना ? 

मेरे प्राणप्रियतम श्रीराम का भी यही स्वभाव   था..........तुम्हारा प्रेम यदि किसी से है   तो उसे अपनी  हृदयवाटिका  में ही अंकुरित, पल्लवित,प्रफुल्लित और परिफलित तो होनें दो .......जितना प्रेम छुपाओगे  उतना ही वह पवित्र बना रहेगा ...........।

आज ये अपनी आत्मकथा लिखते हुये ........मुझे हँसी भी आरही है ......मारुती नन्दन  हनुमान के हाथों मुझे पहला प्रेम सन्देश भेजा था  ....मेरे प्रियतम नें.......पता है उसमें क्या लिखा था  ?

हे प्राण प्रिये !  तुम्हारे वियोग में ये राम प्राणहीन सा हो गया है ......

मुझे  हँसी आती है ................सामान्य नायक थोड़े ही थे  मेरे श्रीराम ...जो   लम्बे चौड़े  पत्र लिखलिख कर यही जताते कि  मैं कितना प्रेम करता हूँ ......पर नही ......मुँह से निकला  कि - मै तुमसे  प्रेम करता हूँ .... तभी प्रेम की  सुगन्ध उड़ गयी  .........।

श्रीराम के साथ मेरे  जो भी  प्रेम विहार हुए .............वो  चित्रकूट की भूमि में ही ..........चाँदनी रात्रि में ....मन्दाकिनी की तट पर .......प्रेम रस रास हुआ था ........।

मेरे श्रीराम का प्रेम तो   सत्य,  अनन्त, और अव्यक्त था ..........।

उनके गम्भीर व्यक्तित्व में भी छुपा था ......अगाध प्रेम .......।

एक प्रेम की  ज्वाला थी  जो मेरे रघुत्तम श्रीराम के हृदय में धधकती रहती थी .....।

हे प्राण प्रिये !    प्रीत का बाजा मै क्यों बजाऊं ? 

और बजाऊं भी तो कौन सुनेगा ?   सुनेगा भी तो समझेगा कौन ?

क्यों की इस प्रेम के गीत को या तो  प्रिये !  तुम समझती हो ....या मै ......फिर क्यों लोगों को  बताया जाए  ! 

नही नही ............आपकी आँखें ही बहुत कुछ बोल देती हैं प्रीतम !

मैने  उस  दोपहर के समय कहा था ................

जब लक्ष्मण  बाणों के लिये,  लकड़ी की खोज में गए थे ............कुछ देर में ही  काले काले बादल छा गए आकाश में  ।

नाथ !    इधर आइये ना !       मैने  कितनें दिनों के बाद  उनका हाथ पकड़ा था ............वो मुझे देखनें लगे थे ...........पर मैने  उनका हाथ छोड़ा नही ........अर्धांगिनी हूँ .........."श्रीरामबल्लभा"........बड़े ठसक से कहती हूँ  अपनें आपको  ।

कामद गिरि  में   असंख्य मोर नाच रहे हैं ...........देखिये ना ! 

मै अपनें प्रियतम को बाहर ले आयी थी........और  दूर में  कामद गिरि को  दिखाया था .........जिस कामद गिरि पर्वत में  मोर नाच रहे थे .....बुँदे पड़ रही थीं  चारों और........क्या दिव्य छटा थी  चित्रकूट की  ।

मै उछलती थी  ताली बजाते हुये .........बच्ची की तरह  चहकती थी ...जब जब मोर  अपनें पंखों को हिलाते ................नाचते नाचते  मोरनी उनके  नयनो से गिरे आँसुओं को पी लेती  ।

मेरे रघुनन्दन  मेरी और देखते ...............मै शरमा जाती ।

मेरे मुख को अपनी हथेलियों में भर लेते ............फिर .............

मैं भाग जाती  भीतर   कुटी में  ।

मै मुस्कुराती हुयी  अपनी आँखें मूंद लेती ..... .........तब  ! 

प्रिये !     मैथिली !    सीते !     

वो फिर  कुटी में आजाते ..................।

मेरे पास  आते .........जानकी !     मै अपनें प्राण धन के मुँह से अपना नाम सुनकर  धन्य हो जाती .........लम्बी साँस लेती ..........।

सीते !     मेरे लटों से खेल रहे होते  तब मेरे श्रीराम .............।

उनकी सुरभित साँसें  , मेरी साँसों से  टकरातीं ................मेरा हृदय धक्   करनें लगा था.........वो  आज रसिक शेखर बन गए थे  ।

प्रेम गूँगा होता है ........है ना  प्रिये !   

मेरे कानों में धीरे से कहते   ।

पर आपकी  हर धड़कन  मुखर है  नाथ ! ............आप की हर   साँस कह रही है  कि ......................

क्या कह रही है  ...............वो  फिर  मेरे कानों में धीरे से पूछते  ।

आपकी हर साँस कह रही है ......कि  इस हृदय की हृदयेश्वरी  मै ही हूँ ।

ये कहते हुये   मै अपना मुख   प्रियतम के वक्ष में छुपा लेती ।

वो मुझे चूमते .............मेरे केशों से खेलते ..... ......उनको उलझाते , फिर सुलझाते ...............

वो चित्रकूट का प्रेम विलास ..........................

पर  सच्चे प्रेमी बोलते नही है ...............मेरे श्रीराम प्रेम पर बोलते नही थे .........पर  हाँ उनकी आँखें  बहुत बोलती थीं ...........उनकी वो मस्त आँखें ............वही बोलतीं .......जुबां चुप रहते  ।

मुझे चित्रकूट में बहुत  अच्छा लग रहा था.....

शेष चरित्र कल.........

Harisharan

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