वैदेही की आत्मकथा - भाग 56

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 56 )

पर्णकुटी प्रिय प्रियतम संगा ....
( रामचरितमानस )

****कल से आगे का चरित्र -

मैं  वैदेही !

प्रातः की बेला थी.......कामदगिरि पर्वत को मैने उठते ही देखा ........

आहा !    वन   पुष्पों से भर गया था.....पुष्प भी  कोई सफेद , कोई लाल, कोई पीत ......सुकुमार पुष्प, सुरभित  पुष्पों से  महक रहा था पूरा चित्रकूट का  वन प्रदेश ........मन्दाकिनी में कमल खिल गए थे ........उनमें  भौरों का झुण्ड .......उन भौरों की गुनगुनाहट ......मै  झूम उठी थी.....मन्दाकिनी में जाकर मैने स्नान किया.........मै सब भूल चुकी थी ....अयोध्या  की याद मुझे  नही आती थी......हाँ  जब जब  मुझे प्रेम से मेरे श्रीराम देखते ......तब मुझे जनकपुर की याद अवश्य आती ........पुष्प वाटिका में  जब मुझे प्रथम मिले थे .......तब भी  ऐसे ही  देखते रहे थे मुझे ।

चित्रकूट   मेरे  प्रेम की  विहारस्थली है .........12 वर्षों  तक  यहाँ हम लोग रहे हैं ........यहाँ का कण कण हमें पहचानता है  ।

मै उस दिन स्नान कर रही थी मन्दाकिनी में.....तभी मेरे श्रीराम आगये ।

मुझे स्नान करते देखा  तो वहीं ठहर गए.........खड़े हैं  और  अपलक मुझे देख रहे हैं .......मैं शरमा गयी हूँ .........वो मेरी और बढ़ रहे हैं ..........मत्त गजेन्द्र की  चाल  ..।

जैसे  मद चुचाता हाथी  सरोवर में प्रवेश करता है ............और  उस सरोवर की सारी बाँधों को तोड़ कर रख देता है ...........ऐसे ही  मेरे श्रीरघुत्तम श्रीराम   मन्दाकिनी में प्रवेश करते हैं  .........।

कमल खिले हैं .......उन कमलों को तोड़कर मेरे   नयनों में  छूवाते हैं  ...............मेरे नयन बन्द हो गए ................।

उनका वो उन्मत्त आलिंगन ......................पक्षी चहक उठे थे  ।

मन्दाकिनी नदी   उछाले मार रही थी ................हवा   सुगन्धित पुष्पों की सुगन्ध को लेकर     हमारे ऊपर ही उड़ेल रही थी ..........।

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वैदेही !  लाखों युगों  तक भी तुम्हे  अपनें हृदय से लगाये रखें   तब भी  राम का हृदय शान्त नही होगा .........

मुझे  कह रहे थे  ।

ऐसा लगता है   हम मिले तो हैं ..............पर  मिलनें पर भी   मिले नही  ऐसा लगता है ........पता नही क्यों  ?

फिर मुझे देखते रहते हैं  मेरे श्रीराम ........................

शायद यही प्रेम है  मैथिली ! ......इसी को प्रेम कहते हैं   ................।

पल पल वचनामृत पीते रहें ..........फिर भी लगे  की इन कानों नें उस सुधा का पान तो किया ही नही !  

वैदेही !   देखनें , छूनें, सुननें या बोलनें में जहाँ अन्तःकरण द्रवीभूत हो जाए .......हृदय पसीज उठे .........बस समझ लेना  प्रेम का प्रादुर्भाव हो गया है.......मै उनकी ही बाहों में आबद्ध थी......और वे बोले जा रहे थे  ।

उनके वे अधर  सूख रहे थे............उनके मुख मण्डल में लालिमा छा गयी थी ......उनकी आँखें   प्रेम से  लवालव  थीं   ।

वैदेही !    कहते हैं    ईश्वर  नें  सर्वप्रथम अपनी सृष्टि में  प्रेम का ही निर्माण किया ।   मन्दाकिनी  में  जल विहार हो रहा था  हमारा  ।

फिर उस प्रेम के लिए ही   ईश्वर  नें  इस  संसार की  रचना कर डाली ।

फिर जब  उस परमात्मा  नें     इस  प्रेममय विश्व दर्पण में  अपनें "प्रेमरूप"  को देखा    तब उसे अपनें आनन्द का अंत नही मिला .........क्योंकि   सर्वत्र प्रेमरस ही प्रेमरस   लहरा रहा था ..........

हे मैथिली !   विश्व में प्रेम ही है  जो सर्वव्यापक है .............और वही प्रेम तो ईश्वर है ना  ?

मुझे मन्दाकिनी से बाहर निकाला ............अपनी गोद में लेकर  ।

एक शिला थी ..........उसी शिला में    स्वयं बैठ गए  थे   मेरे श्रीराम  ।

मुझे सजानें लगे थे ...............मेरा आज श्रृंगार  मेरे प्रियतम के हाथों हो रहा था .................मै महक उठी थी   ।

कदलीतन्तु   के सूत्र से  माला बनाना शुरू किया .......मैं मुग्ध थी  अपनें स्वामी की इस कला को देखकर  ।

मेरी भुजाओं में  केयूर ,  मेरे हाथों में कंकण,  कमर में  करधनी ......

मेरी वेणी गूंथनें लगे  थे ..............उस वेणी में  सफेद फूल ,  फिर लाल, फिर पीले   ऐसे  बीच बीच में  फूलों को भी सजा दिया था  ।

गले में  लम्बी सुन्दर  माला  गुलाब की .......जिसकी पंखुड़ियाँ  मेरे देह में  बिखर रही थीं ......मेरा श्रृंगार करके   आह भरी मेरे  श्रीराम नें .......".आज मेरी देवी  अपनें पूरे  श्रृंगार में प्रकट हुयी हैं "..........

मैने उनके वल्कल से  ही अपना मुख ढँक लिया था .......

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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