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वैदेही की आत्मकथा - भाग 67

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 67 )

पुत्री पवित्र किये कुल दोउ....
( रामचरितमानस )

****कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

महाराज विदेहराज पधारे हैं  ।

मैं पर्णकुटी में थी...........जैसे ही मैने सुना  मेरे पिता जी आगये !

मैं बाहर आयी .............तो वट वृक्ष के नीचे  मेरे श्रीराम और निषाद राज बैठे थे ..........।

हाँ सीते !   देखो !    पिता विदेहराज पधारे हैं .................

मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे .......मैं पिता जी से मिलूंगी ।

तभी मैने सामनें देखा ...........माँ कौशल्या जी   और उनके साथ ? 

ओह !  माँ सुनयना .........मेरी माँ !.........................मैने   श्रीराम की और देखा ............श्रीराम नें मुझे इशारे में कहा .......जाओ ! 

मैं दौड़ पड़ी ..............माँ !           और सीधे  अपनी माँ सुनयना के हृदय से जाकर लग गयी...............।

सुनयना माँ   हिलकियों से  रोये जा रही थीं ................

बेटी !    मेरी लाड़ली !        ये क्या हो गया  !     

तू  ठीक तो है ना  ?      मुझे देखनें लगीं थीं  माँ ...............।

मेरे श्रीराम नें आकर   प्रणाम किया  था  मेरी माँ को ................

पिता जी ! कहाँ हैं  माँ  ?

वो  अपनें शिविर में ही रुक गए हैं ............................

महारानी सुनयना !  आप लोगों नें अपना शिविर कहाँ लगाया है  ?  

माँ कौशल्या जी नें  मेरी माँ से पूछा था  ।

मन्दाकिनी के इस पार आपका शिविर है.....हमारा शिविर  उस पार है  ।

फिर माँ कौशल्या जी  की और देखते हुए मेरी माँ  रो गयीं थीं ......हिलकियों से रो रही थीं  ...........

महारानी !  ये क्या हो गया  ?        महाराज चक्रवर्ती  स्वर्ग सिधार गए ।

वो बरात में  .......जनकपुर  में   कितनें सहज कितनें सरल ............

दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ा है  हमारे ऊपर तो  हे सुनयना महारानी ! 

हमसे तो हमारा  विधाता ही वाम होकर बैठा है ....................

पर  आप  इस तरह विचलित न हों .........आप हमें समझायें  ...आप हमें  सम्भालें ..........क्यों की आप एक महान ज्ञानी की पत्नी हैं .......आपके पति  महाराज  विदेह राज  को तो बड़े बड़े ज्ञानी  भी आदर की  दृष्टि से देखते हैं .............हे मिथिला की  महारानी जी !   आप हमें  कुछ ऐसा समझाइये  कि   हमारा दुःख कम हो ........।

मेरी माता,  ये सब  माँ कौशल्या जी  से सुनकर   शान्त भाव में स्थित ही रही थीं ।

चक्रवर्ती महाराज  महान थे ............देवराज  स्वयं अपना आधा सिंहासन छोड़ देते थे  उनके लिये ............ऐसे  महान  चक्रवर्ती सोचनीय नही थे .......वो  तो हम सब को   रुला कर चले गए ।

अब तो कुछ  अंधकार भी  छा रहा था .......रात्रि होनें जा रही थी ।

मुझे जाना पड़ेगा .............महाराज ध्यान  से उठ गए होंगें .........

मेरी माँ नें   वहाँ  माता कौशल्या और मेरे श्रीराम से  आज्ञा माँगी ।

हे  राम !  अगर आप आज्ञा दें .........हे  महारानी !  आप अगर आज्ञा दें  तो मैं  "लाड़ली"  को उनके पिता  से मिला दूँ ? ......उनकी बहुत इच्छा है   अपनी  पुत्री  मैथिली को देखनें की ......अगर आपकी आज्ञा हो तो ?

कितनी विनम्रता से कहा था मेरी माता नें ..............।

हाँ  हाँ  क्यों नही ..............राम  ! भेज दो  जानकी को ............

माँ कौशल्या जी नें कहा  ।

मेरी और  देखा मेरे श्रीराम नें .....और इशारे में  मुझे जानें की आज्ञा दी ।

******************************************************

माँ !  आप लोग कब चले  जनकपुर से .................

बेटी !     जैसे ही हमें सूचना दी  "प्रलम्ब बाहु" नें     कि वो तुमसे मिला था .......बस हम   उसी समय  रथ लेकर चल दिए थे  ।

"प्रलम्ब बाहु"      हाँ माँ !   मैं  उन्हें  देखती रही थी ................मुझे लगा  कि इन्हें तो कहीं देखा है ...........फिर  उन्होंने जब मुझे  आशीर्वाद दिया .....तब मैं समझी कि  हो न हो   ये मेरे जनकपुर के  ही है   ।

रात्रि हो गयी थी ................हम   दो चार भीलों के साथ  माँ  और मैं  जनकपुर   शिविर की और चले जा रहे थे  ।

जनकपुर कैसा है ?    

मेरे हृदय का प्रश्न था ये  ।

माँ कुछ नही बोलीं   ।

माँ !    मेरी सखियाँ,  और हाँ    चन्द्रकला  कैसी है  ?    

हर समय  तुझे ही याद करती रहती है ............सब सखियाँ भी   ...... कोई ऐसा समय नही होता .......जब  तेरी याद न आती हो ।

माँ फिर भावुक हो चली थीं   ।

उर्मिला  , श्रुतकीर्ति, माण्डवी   .......ये सब कैसी हैं  बेटी  ?

माँ !    विधाता उनकी बहुत परीक्षा ले रहा है ..................

तुम देख ही रही हो ............माण्डवी का सुहाग  क्या करेगा कल  कौन जानता है  ?       क्या पता  वो वन में ही रह जाएँ.............उर्मिला .....और बेचारी श्रुतकीर्ति .............आप सब देख ही रही हो ।

सुबुकते हुए हम माँ बेटी .........मन्दाकिनी को पार किये .......हमारे लिये भीलों नें नाव की व्यवस्था कर दी थी  ।

****************************************************

पिता जी  !          

मैने शिविर में प्रवेश करते ही  पुकारा ।

पिता जी   उठे.....ध्यानस्थ थे.........मेरी आवाज नें उन्हें उठाया था  ।

वही गम्भीर व्यक्तित्व ............बड़ी बड़ी शान्त आँखें .............

मुझे देखा ............ऊपर से लेकर नीचे तक ............पर  मेरे पाँव में जाकर उनकी दृष्टि  रुक गयी थी ................

ये क्या  पिता जी ?   

उनके बड़े बड़े नेत्रों से  अश्रु बिन्दु गिरनें लगे थे........वो मेरे पाँवों की बिवाइयाँ  देख कर रो रहे थे .......फ़टी बिवाइयाँ ।

पर पता नही ......थोड़ी ही देर में  उन्होनें अपनें मस्तक को गर्व से ऊंचा किया था ..................

वो आये मेरी ओर...........मै   दौड़ी अब .............और अपनें पिता जी के गले  से लग गयी ...........और खूब रोई .....खूब रोई  ।

बेटी ! निमि वंश तुझको पाकर धन्य हो गया है ...........पुत्री  मैथिली !   तेरा यश , तेरी कीर्ति  लाखों वर्षों तक गाई जाती रहेगी  ।

तेनें  आज  दोनों वंशों को धन्य किया है .......आहा !  मैं  आज  गर्व अनुभव कर रहा हूँ ........हे दिग्पालों  !  मै हूँ  सीता का पिता  ।

रघुवंश और निमिवंश दोनों वंशों को  हे पुत्री !   तुमनें कृतार्थ कर दिया ।

नेत्रों से अश्रु ही बहाते रहे मेरे पिता जी  ....................।

वो बहुत कुछ बोलना चाहते थे .......पर  उनके मुख से शब्द ही नही निकल रहे थे ........वो   बस रो रहे थे ।

बेटी !  ये आँसू दुःख के नही हैं .........आनन्द के हैं .........कि  जनकपुर की पुत्री  सिया का कितना त्याग !  कितनी सेवापरायणता है !

आज इस पिता की छाती चौड़ी हो गयी बेटी ! .................

पिता जी को प्रणाम किया मैने .................पिता जी !   

आगे मैं  कुछ बोल नही पाई  ।

मैं जाऊँ  माँ !     ये पूछनें की हिम्मत नही हुयी पिता जी से ।

जा !     अब  पर्णकुटी जायेगी ना ?

नही माँ !   मैं  अभी  सासू माँ के पास जाऊँगी .......उनकी चरण सेवा ।

धन्य पुत्री !  धन्य !    ........मेरे पिता जी  बोल उठे  ।

मैं  आँसू बहाती रही .....................महारानी सुनयना  ! आप  सिया को  रानी कौशल्या जी के शिविर में छोड़ आओ ।

नही .............मैं  माँ कैकेई के शिविर में जाऊँगी   पिता जी ।

साथ ही होंगे ना सबके शिविर ?     पिता जी नें पूछा ।

नही ........माँ कैकेई नें अपनें लिए .....एकान्त में शिविर बनवाया है ।

मै प्रणाम करके  चल दी ............पिता जी बाहर आये ............वहीँ खड़े रहे ............मुझे देखते रहे ...............

मेरे पिता जी !         महाराजा सीरध्वज   विदेहराज जनक ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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