आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 51 )
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा ....
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
हम लोग तीर्थराज प्रयाग में पहुँचे ही थे कि ......
"वत्स ! राम भद्र तुम्हारा मंगल हो "
तीर्थ पुरोहित आगये थे ।
मेरे श्रीराम भद्र नें हाथ जोड़कर उन सबको प्रणाम किया था ......
हे विप्र देवों ! राम आज वनवासी है....अयोध्या के नरेश तो भरत हैं ।
आप संकोच न करें हे राजीव नयन ! हमारे पास जो भी है ......सब आपके पूर्वजों के द्वारा दान में दिया हुआ ही है ..........इसलिये आप निःसंकोच जितनी श्रद्धा बनें उतना ही दान दीजिये ............
तीर्थ पुरोहितों नें श्रीराम भद्र से कहा था ।
और हमें पता है .....सब पता है कि अयोध्या में क्या क्या घटना घट गयी है.....पर हे राम ! आप ही राजा बनेंगें ..........ऐसा हमारा ज्योतिष का ज्ञान बता रहा है .............बस आपको चौदह वर्ष का ही कष्ट है ......फिर आपको सुशोभित होना ही है अवध के सिंहासन में ।
पर हे विप्रों ! हमारे पास आप लोगों के लिये दान देनें के लिए .....कुछ नही है ......हम वनवासी भेष में आये हैं .............इसलिये संकोच ....।
नही नही राघवेन्द्र ! सब आपके पूर्वजों के द्वारा ही बहुत कुछ दिया गया है .......हम तो बस उस सम्पत्ती के न्यासी है .............हमें सब ज्ञात है .....कि आपके पास इस समय कुछ नही है ..........
पर हे राघव ! हम तीर्थ पुरोहित तो दीर्घकालीन प्रतीक्षा के अभ्यासी होते हैं .....
चौदह वर्ष क्या .........हम तो चौदह जन्मों तक भी प्रतीक्षा करते हैं .....हम न रहें तो क्या हुआ ......हमारे प्रपौत्र या उनके भी पौत्र दान को स्वीकार करके आपके कुल में मंगल हो यही आशीर्वाद देंगे ही ।
हम तो तीर्थ पुरोहित हैं हे राम भद्र ! हमारा यजमान भले ही शत्रु से हारा हो ..........भागा हो ......पाप कर्म से पतन की स्थिति भी जिसकी आगयी हो.......पर हम ऐसे यजमान को भी त्यागते नही हैं........
उनके मंगल की कामना सदैव हमारे मन में रहती ही है ..........और हमारी मंगल कामना से ही उस यजमान का उत्थान होता है ।
हाँ जब तक उत्थान न हो ........हम भी प्रतीक्षा करते हैं ........उस अभ्युदय की ...........कि हमारे यजमान का अभ्युदय हो और यहाँ आकर वे दान पुण्य करें ............हमारा यही कर्म है ......पुरोहितों नें विनम्रता से श्रीराम भद्र को सारी बातें बता दी थीं ।
बहुत अच्छा कर्म है हे तीर्थ पुरोहित विप्रो ! जो सदैव दूसरों के मंगल की सोचता है .....ऐसे पुनीत स्थान में बैठकर ..........उसके जैसा मंगल कर्म और किसका होगा ।
पर आज ये राम वनवासी है ..........इसके पास कुछ नही है ..........
आप बारबार ऐसा न कहें ................आपके रघुकुल से हमें बहुत कुछ मिलता रहा है .......और आगे भी मिलता ही रहेगा ...........
आप संकल्प करें .............और स्नान करें यह त्रिवेणी संगम है ।
श्रीराम नें अपनें धनुष बाण एक तरफ रख दिए थे ..............
विप्रों नें हाथ में जल दिया श्रीराम के.....अक्षत और कुछ पुष्प भी ।
संकल्प शुरू हुआ ................कई तीर्थ पुरोहित आगये थे .....और सब सस्वर संकल्प बोल रहे थे .............
ॐ विष्णु विष्णु विष्णु श्रीमद् भगवतो महापुरुषस्य विष्णो राज्ञा प्रवर्त मानस्य .........ब्रह्मणे द्वितीय परार्धे श्रीश्वेत वाराह कल्पे ......."भारत वर्षे भरत खण्डे" ...............
बस इतना ही बोले थे तीर्थ पुरोहित कि ..................
मेरे श्रीराम के नेत्रों से अश्रु धारा निकलनें लगे ................मै समझ नही पा रही थी कि .....संकल्प बोलनें से श्रीराम रो क्यों रहे हैं ........
पर कुछ देर में जब श्रीराम के मुख से मैने ये सुना .......भरत ! भैया भरत ...........
तब मै समझी कि ....संकल्प में आये भारत वर्षे और "भरत" खण्डे इस वाक्य नें मेरे श्रीराम को भैया भरत की याद दिला दी थी ।
संकल्प पूरा नही हो पाया था.......मेरे श्रीराम हिलकियों से रो पड़े थे ।
हे तीर्थ पुरोहितों ! आप सब प्रार्थना करो .........कि मेरा भाई भरत ही राजा बनें .........वो नही स्वीकार करेगा अयोध्या का राज्य ..........वो नही मानेगा ।
ऐसी दशा हो गयी थी मेरे श्रीराम की .........भरत को याद करके ...
स्नान करके भी श्रीराम "भरत भरत" ही कहते रहे थे .....इस स्थिति से बाहर आने में कुछ समय लगा था उन्हें ।
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आप ऋषि भरद्वाज के आश्रम में तो जायेंगें ना श्रीराम ?
तीर्थ पुरोहितों नें पूछा था श्रीराम से ।
हाँ ...अवश्य ! मुझे दर्शन करनें हैं ऋषि के ।
आनन्दित हो उठे थे सन्त दर्शन के नाम से ही ।
वट वृक्ष का दर्शन किया हम सबनें .......मैने प्रदक्षिणा भी की ।
देव गुरु वृहस्पति के पुत्र हैं ये ऋषि भरद्वाज ।
इनका बड़ा सुन्दर आश्रम है .............वैदिक ज्ञान के पिपासु और अध्यात्म के पिपासुओं के लिये ये आश्रम दिव्य था ।
फूल, तुलसी, पीपल, विल्व, वट पाकर आम इत्यादि के अनेक वृक्ष लगे थे ......हरियाली घनी थी .......दूसरी और गौशाला थी ........उनमें जो गौ थीं ......वो सुन्दर थीं .......स्वस्थ थीं .............
दूसरी ओर ........यज्ञ वेदिका थी ..........उसमें ब्रह्मचारी बालक वैदिक ऋचाओं से आहुति दे रहे थे ........उस यज्ञ वेदिका से उड़नें वाली धुँआ वातावरण को सुगन्धित बना रही थी ।
दूसरी ओर मैने देखा ............जटा धारी , शान्त मनस्थिति के साधक ...युवा अत्यंत तेजवान ये सब ध्यान करके बैठे हुए ........
और इन्हीं के मध्य में महर्षि भरद्वाज .....दिव्य तेजयुक्त महर्षि .........
एक ऋषि युवक नें जाकर धीरे से सूचना दी थी ...........
महर्षि नें जैसे ही सुना .................वो उठे ......
कहाँ हैं मेरे राम !
यही वाक्य उनके मुख से निकल रहा था ........वो बेचैन हो उठे थे .......वो चारों और देख रहे थे...........
जैसे ही श्रीराम उन्हें दिखाई दिए ...........वो दौड़ पड़े .......
इधर श्रीराम दौड़े मै और लक्ष्मण पीछे थे ....................
धनुष को एक तरफ रख दिया और श्रीराम साष्टांग धरती में लेट गए .....
ये दाशरथी राम ! ये महर्षि आपको प्रणाम करता है ...........
मैने भी घुटनों के बल बैठकर महर्षि को प्रणाम किया था ।
पर महर्षि से ये देखा नही गया .......उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ......उन्होंने तो मेरे श्रीराम को जबरदस्ती अपनें चरणों से उठाकर हृदय से लगा लिया था ............।
उस समय महर्षि का रोम रोम पुलकित हो उठा था ...............
अर्घ्य तो नेत्रों के जल से ही चढाया था महर्षि नें श्रीराम को ।
नही नही ....इस उच्च आसन में मै कैसे बैठ सकता हूँ महर्षि ?
जब भरद्वाज ऋषि नें मेरे श्रीराम को उच्च आसन में बिठाना चाहा ....तब बड़े संकोच से मेरे प्रभु नें कहा था ।
आप हमारे अतिथि भी तो हैं राघव ! अतिथि का सत्कार तो ऋषियों और ब्राह्मणों को भी करना ही चाहिये ...............
आप संकोच न करें .......मेरे सुख के लिये इस आसन को आप स्वीकार करें हे राघव !
आहा ! कितनें प्रेमपूर्ण थे ये महर्षि .............मुझे देखकर भावुक हो उठे थे ........मैथिली भी आगयीं वन में ?
ऐसा कहते हुये मुझे भी प्रणाम निवेदित किया , और प्रभु के वाम भाग में मुझे बैठनें का आग्रह किया था ।
आहा ! मेरे ये नेत्र आज सफल हो गए !
लम्बी साँस लेते हुये महर्षि नें कहा था ।
हे राम ! आपके दर्शन से ही तो इन नेत्रों की सफलता है .........
पर मुझे शिकायत है ........मै रुष्ट हूँ ................
महर्षि के ऐसे शब्द सुनकर मेरे श्रीराम काँप गए ........
आप किससे रुष्ट हैं महर्षि ?
मै कैकेई से ..................इतना ही बोले थे महर्षि कि मेरे श्रीराम उच्च आसन को त्याग कर महर्षि के चरणों तक झुक गए ...........
नही ......ऐसा मत कीजिये महर्षि !
आप जैसे महात्मा अगर उस बेचारी माँ से रुष्ट होनें लग गए .....तो उसका तो कभी कल्याण ही नही होगा ।
वो निर्दोष है भगवन् ! कैकेई माँ निर्दोष है ।
फिर आपको वनवास क्यों दिया ?
मेरी इच्छा से ही सब हुआ है ........हाँ महर्षि !
मेरे श्रीराम बिलख कर बोल रहे थे ।
पर क्यों ? क्यों आपको वनवास चाहिये था ?
इस प्रश्न के उत्तर में ......श्रीराम गम्भीर होकर बोले ।
आप जैसे महात्माओं के दर्शन का लाभ मुझे अयोध्या में कहाँ मिलता ?
मुझे आप जैसे अकिंचन साधुओं के दर्शन करनें थे महर्षि !
ये कहते हुये अपना मस्तक महर्षि के चरणों में श्रीराम नें रख दिया था ।
इस दृश्य को देखकर समस्त ब्रह्मचारी , साधक , महात्मा ..........सब प्रेम के सिन्धु में डूब गए थे ............मैने देखा............मनुष्य ही नही .....पक्षी भी......कपि और हिरण भी .......ये भी प्रेमाश्रु बहा रहे थे ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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