वैदेही की आत्मकथा - भाग 52

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 52 )

26, 11, 2019

बालमीकि आश्रम प्रभु आये ......
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

हे राघव !   चौदह वर्ष के लिये .....आप इसी तीर्थराज प्रयाग को ही अपना स्थान नियुक्त कीजिये.......क्यों की इसकी महिमा अपार है .....गंगा , यमुना और सरस्वती का संगम इसी तीर्थ में ही मिलता है ।

आपको एकान्त चाहिये ?.........हे  राघवेन्द्र !    आपको एकान्त में पर्णकुटी बनाकर मेरे  ब्रह्मचारी शिष्य लोग दे देंगें .........आप   चौदह वर्ष के लिये यहीं रहिये  ।

महर्षि भारद्वाज नें   विनीत होकर  ये बात कही थी  ।

आपका स्नेह  राम के शिरोधार्य है ................पर  हे महर्षि !   प्रयाग  अयोध्या के निकट है ......इसलिये  मैं चाहता हूँ कि  कुछ दूर और ।

मेरे श्रीराम नें  महर्षि के चरणों की और देखते हुये  अपनी बात रखी ।

हाँ ......मै समझ गया   हे रघुकुल नन्दन ! आप  चित्रकूट में  निवास कीजिये ........ऋषि भारद्वाज नें   स्थान बता दिया था ।

वहाँ आपकी,     मेरे वनवासी लोग  भी सेवा करके  अपनें को धन्य बना लेंगें  ।

निषाद राज !         मेरे श्रीराम चौंके ............ 

उसी समय निषाद राज भी आगये थे  ।

हाँ .........चित्रकूट !         

महर्षि !     अब आप हमें आज्ञा दें..............

मेरे श्रीराम नें   चरणों में वन्दन करते हुये .............महर्षि  भरद्वाज से आज्ञा मांगी ।

हे राम !  आपके दर्शन की कामना   लेकर  बहुत काल से  प्रतीक्षा में बैठे हैं  महर्षि वाल्मीकि ...........आदिकवि वाल्मीकि  ।

आप उनके पास भी अवश्य जाना   ।

मुस्कुराकर ............मेरे श्रीराम चल दिए थे आगे के लिये ........

पीछे मै थी,   मेरे पीछे लक्ष्मण थे .............निषाद राज  कभी आगे होते  तो कभी पीछे हो जाते  ।

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मैने कभी सोचा भी नही था ...........कि   महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में मुझे फिर आना पड़ेगा ............और अकेले आना पड़ेगा  ।

सेविकाएँ आती हैं .................महर्षि वाल्मीकि नें  मेरे लिये  सेविकाएँ लगा दी हैं ................यहाँ आश्रम की नारियाँ पूछती हैं  कि  इनका शरीर देखकर लगता नही है  कि ये वन में रहनें योग्य हैं .........ये तो कोई  राज कन्या  .......राज पत्नी ...........महलों में रहनें वाली लगती हैं !

तब महर्षि वाल्मीकि कहते ........वन देवी हैं ये .................

इतना ही उत्तर देते हैं   ।

आठवाँ  महीना चल रहा है ...................वनदेवी !   आपके गर्भस्थ शिशु का  आठवाँ महीना चल रहा है .............।

नाड़ी देख रही थीं  मेरी  वो  सेविकाएँ  ।

युगल  शिशु हैं  आप के गर्भ में  देवी !   

क्या !     दो बालक हैं   मेरे गर्भ में ?   

आप इस समाचार से प्रसन्न हो  ?       आप  प्रसन्न रहो ......ये आपके स्वास्थ के लिये भी ठीक रहेगा ............

हाँ .......गर्भ में दो बालक हैं आपके ..........ये कहते हुए   चली गयीं थीं वो  सेविकाएँ  ।

प्रसन्न ?      हँसी आती है .......रोना आता है ...............

दो बालक  ? 

और वो भी चक्रवर्ती नरेश  राघवेन्द्र के  पुत्र !  

पर ................................

( फिर दुःख के अपार सागर में डूब जाती हैं  सीता जी )

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(  दो दिन बाद  फिर लिखना शुरू किया था  माँ वैदेही नें )

प्रयाग को पार करते ही  वन का क्षेत्र और सघन हो गया था ..........

वन में  हिंसक पशुओं के रहनें की  सूचना हमें निषाद राज दे ही रहे थे ।

पर हे नाथ !  हमारे रहते  आप लोगों को डरनें की कोई जरूरत नही है ।

मैने अपनें कोल, किराँत , भीलों को  सूचना पहुँचा दी है कि  मेरे स्वामी अब चित्रकूट में ही निवास करेंगें ..............हे नाथ !  इस  सूचना से पूरा वन प्रदेश बहुत आनन्दित है  ।

निषाद राज गदगद् हैं ........और  कुछ न कुछ बोलते हुए चल रहे हैं  ।

दूर में एक कुटिया दिखाई दी थी ..........कुटिया यही तो थी  .......

यहीं  तो था   वो आश्रम .............जहां मेरे श्रीराम के चरण पड़े थे  ।

आदिकवि वाल्मीकि !    

महर्षि प्रचेतस के पुत्र  प्राचेतस  वाल्मीकि  अपनी कुटिया के आगे खड़े होकर प्रतीक्षा ही कर रहे थे  ।

हे राम !   हे  राघव !  हे रघुनन्दन ! 

सुध बुध भूल गए थे महर्षि  .....और  दौड़ पड़े ...........

श्रीराम नें  अपनें पिता के नाम के सहित अपना नाम और गोत्र   उच्चारण करते हुये ........महर्षि वाल्मीकि के चरणों में प्रणाम किया था  ।

उठाया  श्रीराम को  महर्षि नें.......और भरे नयन  दर्शन करनें लगे ।

श्याम वर्ण ,  जटायें ,  लम्बी भुजाएं .........सुगठित  दिव्य देह.......कन्धे में  धनुष  और बाण .........नंगे  चरण  ।

फिर  ऊपर की और देखा ......मुस्कुराता मुख चन्द्र  ।

नेत्रों से  जल बहनें लगे  थे  महर्षि के ...................

मै  धन्य हो गया  राम !   

इन नेत्रों की  सफलता इसी में तो है  कि  तुम्हारी  इस  माधुरी मूरत को निहारूँ ............इस त्वचा की धन्यता इसी में तो है  कि   तुम्हारे इन दिव्य देह का स्पर्श करूँ ................आहा !     मै धन्य हो गया  राम ! 

महर्षि  गदगद् भाव से बोले जा रहे थे  ।

पिता की आज्ञा पालन करनें के लिये मै वन में आया हूँ महर्षि !

मेरे श्रीराम नें  विनम्रतापूर्वक कहा  ।

मुझे ऐसे स्थान  की खोज है ......जहाँ  मै  दीर्घ काल के लिये रह सकूँ ।

हे महर्षि !  क्या आप मुझे  वो स्थान बतायेंगें  ।

बिलख उठे थे  महर्षि .........राम ! इस वाल्मीकि को वंचित मत करो !

नही ...महर्षि !    आपके मनोविचार में समझता हूँ ......पर  मेरे यहाँ  रहनें से  कोई  साधक तपश्वी   उद्विग्न न हो ........क्यों की हम तो क्षत्रिय हैं ना ........रजोगुणी हैं ............चंचलता हममें  भरी हुयी है ......इसलिये कोई एकान्त स्थान  आपके संज्ञान में हो तो ......

मेरे श्रीराम नें  सब कुछ कह दिया था महर्षि को  ।

अपनें आँसू पोंछते हुए महर्षि वाल्मीकि बोले थे -

हे राम !   जिस साधक या तपश्वी को  तुम्हारे कारण उद्विग्नता  हो ........वो साधक नही .....वो तो श्मशान का प्रेत है  ।

अरे ! मेरे  प्यारे  राम !     जन्म जन्म के  योग,  तप , मन्त्र जाप का यही फल तो है    कि  तुम्हारी ये सांवरी सलोनी छवि मन में बस जाए ...........

हा हा हा हा हा ..............हँसे थे महर्षि वाल्मीकि ..........

तुमनें  मुझ से पूछा  राम !   कि मैं कहाँ रहूँ  ? 

अरे !     तुम मुझे पहले ये बताओ कि ..........तुम कहाँ नही हो  ? 

ठीक है .........मै बताता हूँ .......कि तुम कहाँ रहो ..........

पर संकोच हो रहा है बतानें में भी .....क्यों की तुम तो हर जगह हो ।

हे राम !  तुम उनके हृदय में रहो .......जो तुम्हारा नाम लेता रहता हो ।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो......जिसे  सत्य का संग प्रिय लगता हो ।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो .......जिसे तुम्हारी चर्चा प्रिय लगे ।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो ...जो सब में तुम्हे देख कर आनन्दित हो ।

हे राम !  तुम उनके हृदय में रहो .....जो तुम्हारे लिए बेचैन हो  ।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो......जो दूसरों  के सुख में सुखी रहे ।

हे राम !  तुम उनके हृदय में रहो.....जिसके हृदय में कपट नही है ।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो..जो गुण तुम्हारे देखे, और दोष स्वयं का।

हे राम ! तुम उनके हृदय में रहो..........जो परनारी  को माँ समझे ।

हे राम !  तुम उनके हृदय में रहो.......जिसके जीवन में तुम्हे छोड़कर और कोई रह ही न गया हो ...............यानि  जिसके जीवन का ध्येय मात्र तुम हो ........हे राम ! उनके हृदय में तुम रहो  ।

हे राम !  तुम उनके हृदय में रहो....जिसे एक मात्र तुम्हारा ही भरोसा हो ।

हे राम !  जिन्होनें  अपना हृदय ही आपका मन्दिर बना लिया है .......उस हृदय को तो आप भी नही त्याग सकते ......है ना  राम ?

जिनका मनोराज्य तुम्हारी ही  लीलाओं का विलास है .........हे राम !  वह  हृदय ही तो सचमुच तुम्हारा  स्थाई निवास है ......है ना ?

महर्षि गिनाते गए ....गिनाते गए .......मेरे प्रभु श्रीराम को   उनके रहनें के स्थान .............

पर श्रीराम मुस्कुराये .................अपना मस्तक झुकाये रहे ।

 अब   मेरी ओर देखनें लगे थे महर्षि उस समय .............मुझे देखकर  वो कुछ सोचनें लगे थे  ।

राम को "श्री" से  सुशोभित करनें वालीं  तो  ये  "सीता"  ही हैं  !

ये वैदेही ,    राम !  तुम्हारे जीवन से  चली जाए ........तो क्या रह जाएगा  राम के पास ?

मै ये सब सुनकर  संकोच से धरती में गढ़ी जा रही थी ...........

हे मैथिली !   आप जिस हृदय को प्रकाशित कर दो .......उसी हृदय में  ये राम अपना निवास बनानें के लिए बाध्य हो   जायेंगें ।

क्या  निर्गुण निराकार  को साकार रूप देनें का कार्य आपका ही नही है ?

मै क्या कहती ..........मै संकोच वश धरती में ही देखती रही  ।

हे महर्षि !     हमें अभी स्थूल  निवास के लिये स्थान का चयन करना है ..........हम आपसे उस सम्बन्ध में पूछ रहे थे ......

मुस्कुराते हुये  श्रीराम नें कहा  ।

चित्रकूट !    

हे राम !   चित्रकूट  में ही अत्रि पत्नी अनुसुइया का आश्रम है .........सुरसरी गंगा को  वहाँ अपनें   पातिव्रत के प्रताप से अनुसुइया  ने  मन्द मन्द चलाया......इसलिए उस सुरसरी गंगा का नाम "मन्दाकिनी" पड़ गया है ...।

हे राम ! आप वहीं अपना स्थान बनाइये ..........

ये कहते हुए कन्द मूल फल  स्वीकार करने की प्रार्थना महर्षि नें की ।

हम लोग कन्द मूल फल स्वीकार कर,   आगे के लिये बढ़ गए थे  ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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