वैदेही की आत्मकथा - भाग 50

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 50 )

करि प्रनामु देखत वन बागा ....
( रामचरितमानस )

मैं वैदेही ! 

गंगा मैया का मैने पूजन किया था ........फिर तो चलते ही रहे ।

ज्यादा ही चलनें के कारण मेरे पाँव दूखनें लग गए थे ..........

श्रम अत्यंत था .......कभी मै इतना चली नही ना  !

पर मै कहूँ किसे ?    अपनें  नाथ  श्रीराम से कहूँ ? 

नही .........कहीं उन्हें मै भार प्रतीत न होऊं !    

मैने ही तो बढ़चढ़ कर  कहा था ..............मै थकूँगी नही  !

पर  मुझे  मुड़कर जब  मेरे श्रीराम देखते ....तब मै डर जाती ......कहीं मेरी थकान इन्हें दिखाई न दे जाए  ।

मेरे माथे से पसीनें आनें लगे थे ......पर मै उन्हें तुरन्त  पोंछ लेती थी  ।

मेरे होंठ सूख रहे थे ..........पर  मै अपनें अधरों पर जिह्वा फेर कर उन्हें सूखनें नही दे रही थी  ।

नाथ !    इस पक्षी को क्या कहते हैं ? 

इस वृक्ष का क्या नाम है  ? 

इस लता को क्या कहते हैं  ? 

मुझे बतानें के लिये   श्रीराम रुक जाते ..............चलो ! कुछ  देर ही सही ....पर   रुकनें के कारण थकान तो  कुछ कम  ............कुछ  देर रुकना भी बहुत  विश्राम दे  देता था  ।

प्रिये !     ये पाकर का वृक्ष .......जो दक्षिणावर्त है........इसमें लिपटी ये लता ............देवी मैथिली  !     ऐसे वृक्षों  का  स्थान  बड़ा मंगलमय समझा जाता है .........ऐसे ही स्थान को तो ऋषि मुनि साधक सिद्ध  सब खोजते रहते हैं  ।   क्यों की    ऐसे स्थान पर किये गए  मन्त्र जाप,  तप, ध्यान  ये सब शीघ्र फल देंनें वाले होते हैं  ।

 नाथ !  आप यहाँ आश्रम बनावेंगे ? 

मैने प्रसन्न होकर  पूछा था  ।

नही देवी !    अयोध्या यहाँ से बहुत निकट है ..............मेरे श्रीराम गम्भीर हो गए थे .............हम तो अभी प्रयाग भी नही  पहुँचे ।

प्रिये !  कहीं  आपको थकान तो नही हो रही  ?  

समझ गए थे  मेरे  स्वामी.........कैसे नही समझेंगें........पति हैं मेरे ...स्वामी हैं मेरे......और  इससे भी बड़ी बात -  ये अन्तर्यामी भी तो हैं  ।

कहाँ बनाएंगे  अपनी पर्णकुटी  ?

    मैने  अपनें  श्रीराम के इस प्रश्न का कोई उत्तर नही दिया ...........क्या देती  ?   सत्य स्वरूप से झूठ कैसे बोलूँ .........और सत्य कैसे कह दूँ   कि -  मै थक गयी हूँ ............।

कहीं फिर न कह दें .................जाओ  !   अयोध्या  जाओ  ।

मैने दूसरा ही प्रश्न  उठा दिया .................

आप पर्णकुटी कहाँ बनायेंगें ? 

मेरी और देखा था  श्रीराम नें ...............बड़े ध्यान से देखा था ......फिर  मुस्कुराते हुये बोले .........अभी तो कई दिन और कई  रात्रियों तक चलते रहनें पर ही वो स्थान आएगा ..........अभी कहाँ  ?  

आ  ह !   

    आगे चल रहे थे .....श्रीराम .......उनके पीछे थी मैं ........फिर सबसे पीछे थे लक्ष्मण  ।

एकाएक  चीख निकली  मेरे श्रीराम के मुखारविन्द से ...........

आ  ह !   

मै घबडा गयी.....ओह !  श्रीराम के कोमल चरणों में  काँटा गढ़ गया था ।

सामनें ही एक विशाल वट का वृक्ष था ........उसी की  छायाँ में जाकर  मेरे श्रीराम बैठ गए थे .......और मुझे भी बैठनें के लिये कहा था ।

लक्ष्मण !     तुम  थोडा जल ला सकते हो  !     प्यास लग रही है ........जल पी लेंगें ...........थोड़ी देर विश्राम भी कर लेंगें .........अब तो लगता है प्रयाग के पास ही आगये हैं  ! 

श्रीराम की आज्ञा मिलते ही ........लक्ष्मण   तुरन्त जल लेनें के लिए चल दिए .........पर  नाथ !  आपके चरण में गढ़ा काँटा  तो निकाल दूँ  ?

ये कहा  लक्ष्मण नें   ।

नही ........मै निकाल लूंगा ......और तुम्हारी भाभी माँ भी  तो है ना ! 

जाओ ....जल लेकर आओ  तुम......भेज दिया  श्रीराम नें  लक्ष्मण को  ।

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मेरी वैदेही !   

    प्रेमपूर्ण नयन  से  मेरी और देखा था  श्रीराम नें   ।

मेरे कपोल को छूआ .................बहुत कष्ट हो रहा है  ? 

आप साथ हैं  तो क्या कष्ट  "प्राण" !

तुम्हारे अधर सूख रहे हैं ..........प्यास लगी है तुम्हे  ?

नाथ !  मेरे  प्यास की चिन्ता छोड़िये ...........आपके चरणों में काँटा गढ़ गया है ........ओह !    ।

कोई बात नही .....काँटा तो निकल जाएगा .............

ऐसा कहते हुये   श्रीराम उठे .............करील की झाडी  पास में ही थी .......उसमें से  एक काँटा तोडा..............उस काँटे से ...........चरणों में गढ़ा काँटा   निकालनें लगे थे   श्रीराम  ।

भैया !    

जल लाये  तुम्बा में   लक्ष्मण ..........जल को वहीं रख कर .............

भैया !     मै निकाल देता हूँ ...काँटे को.....इतनी सेवा तो मुझे दे दो  ।

लक्ष्मण कण्टक निकालनें लगे थे ...............

कहाँ हैं कण्टक  ?     काँटा कहाँ हैं  ?

मै भी खोजनें लगी थी .......चरणों में कहाँ  गढ़ा  है  काँटा  ? 

तब  आँखों के इशारे से  प्रभु नें    लक्ष्मण को कहा .........सीता थकित है ........थक गयी हैं बेचारी ............इसी बहानें से  उन्हें  विश्राम तो मिल जाएगा  ना  ?

मै समझूँगी नही !    इन इशारों को ?   

................मेरा हृदय भर आया ...............कितना प्रेम करते हैं  मुझ से  मेरे श्रीराम  !     

चलो ! निकल गया   कण्टक ................घड़ी  भर के बाद  श्रीराम नें मुझ से कहा .........जल पिलाया मुझे ........स्वयं नें पीया ..........

फिर आगे के लिए चल दिए  थे .............प्रयाग  सामनें ही था हमारे ।

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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