आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 49 )
वन्दे विदेह तनया .....
( वाल्मीकिरामायण )
मैं वैदेही !
गंगा के किनारे बैठी हूँ ..........मात्र शरीर से ........मेरा मन तो श्रीराम के चरणों को छोड़कर कहीं और लग ही नही सकता ।
यहीं महर्षि वाल्मीकि आश्रम में हम लोग आये थे ........श्रीराम और लक्ष्मण के सहित मैं ...............।
आप अयोध्या की महारानी सीता हैं ना ?
मुझे पता नही था ..............हाँ मेरे सामनें दो तीन महिलाएं खड़ी थीं इतना ही मुझे भान था .........पर वो मुझे देख रही थीं ............और चर्चा कर रही थीं ............मैने ध्यान नही दिया था ।
पर अब मेरे पास आगयी थीं वो महिलाएं ..........
आप अयोध्या की महारानी सीता हो ना ?
नही ...........मैं वन देवी हूँ ....................यही नाम दिया है मुझे महर्षि वाल्मीकि नें .........मैं वन देवी हूँ ।
मै ये कहते हुये उठी ..........और जानें लगी ।
महारानी सीता ! क्यों आगयीं तुम वन में ?
मैं जा रही थी .............उन महिलाओं नें पीछे से मुझे कहा ।
मैं रुक गयी .........आगे मेरे कदम बढ़ न सके ।
तुम्हारे राम को वन मिला था तो तुम उनके साथ वन में गयीं थीं ......पर आज तुम जब वन में आयी हो .....तब राम वन में क्यों नही आये ?
निष्ठुर हैं राम ! कठोर हृदय के स्वामी हैं तुम्हारे राम !
वो महिलाएं बोलती जा रही थीं ।
मुझ से सुना नही जा रहा था मैने अपनें कान बन्द कर लिए ।
महारानी ! कान मूंद लेनें से सत्य बदल नही जाता ..........
सत्य यही है कि ..............राम को एक बार वन मिला पर तुम्हे दो बार वन मिला ..............सत्य ये है महारानी सीता ! कि जब राम को वन मिला था तब तुमनें उनका साथ दिया .....पूरा साथ दिया ..........पर जब तुमको वन मिला तो राम नें अकेले तुम्हे छोड़ दिया !
मेरे नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ..............
मत कहो और कुछ मेरे श्रीराम को.........वो मुझ से बहुत प्रेम करते हैं !
प्रेम करते हैं ? अरे ! प्रेम तो आप करती हो ............वो क्या जानें प्रेम क्या है ? आपनें हर पग में उनका साथ दिया ..........
पर आज उनके साथ देनें की बारी आयी तो आपको अकेले छोड़ दिया ........क्यों ? इसे आप प्रेम कहती हो ?
उनका ये राज धर्म है .........वो राजा हैं प्रजा को देखना है उन्हें ।
मैने अपना तर्क दिया ।
ठीक है .......राजधर्म तो उन्होनें निभा लिया .......पर दम्पति धर्म में तुम्हारे राम फेल हो गए हैं महारानी ।
अग्नि को साक्षी मानकर ही तो पति पत्नी का रिश्ता बनता है .......फिर क्या उस दम्पति धर्म की कोई मान्यता नही ?
मुझे चक्कर आनें लग गए थे .............मै गिरनें ही जा रही थी ......कि उन्हीं महिलाओं नें आकर मुझे सम्भाला ।
महारानी उठो ! हमनें कुछ गलत नही कहा है महारानी !
तभी मेरी मूर्च्छा टूटी ................
हे पुत्री सीता !
गम्भीर आवाज मेरे कानों में गयी ।
वो महिलाएं उठ खड़ी हुयी थीं ..........हाथ जोड़कर सिर झुकाया था ।
मैने देखा .........ऋषि वाल्मीकि मेरे सामनें खड़े हैं ।
मैं उठी ................मैने प्रणाम किया ।
उन महिलाओं की और देखते हुए ऋषि बोले -
क्यों परेशान कर रही हो ?
उन महिलाओं से पूछा था ऋषि वाल्मीकि नें ।
हम तो प्रजा हैं महर्षि ! जो हमें सही लगेगा ...उसे सही कहेंगें ...
और जो गलत लगेगा उसे हम गलत कहेंगें ।
आप ही बताइये महर्षि ! राजा राम नें ऐसा क्यों किया ?
क्यों सीता को दो बार वनवास ?
इस कोमलांगी को क्यों इतना कष्ट ?
क्यों इतनें आँसू इस नारी जाति की महिमा को ?
रोष में बोल रही थीं वो ग्रामीण वधूटी !
महर्षि के भी नेत्र सजल हो गए थे ...............
राम के जितना त्याग किसका होगा , विचार करो ?
महर्षि बोले ।
कितना भी बड़ा त्यागी हो .................पर राम जैसा त्यागी कौन ?
अपनें आप को त्याग दिया .................सीता आत्मा है राम की ....अपनी आत्मा का भी जो त्याग कर सके ........वो राम है ।
महर्षि बोल रहे थे ।
पर क्यों त्यागा ? बिलख उठीं थीं वो महिलाएं ।
हे महर्षि ! हमारा प्रश्न यही है ...............क्यों ?
जगत में अपनी "प्रिया सीता" की महिमा बतानें के लिए !
महर्षि नें रहस्य बताया ।
उस वनवास में राम आगे चले ..................राम आगे रहे ।
पर इस वनवास में .......केवल सीता ही आगे है ...........
अपनें आपको महिमामण्डित न करवा के .......अपनी प्रिया वैदेही की महिमा जगत में बतानें के लिये राम नें ये सब किया ।
स्वयं की निन्दा होगी .........पर राम नें इसकी परवाह नही की .........महिमा अपनी प्रिया की हो ........इससे ज्यादा राम को और क्या चाहिये । महर्षि बोले जा रहे थे ।
अगर ये वनवास न होता ................तो सीता का नाम राम के पीछे आता ........"राम सीता" कहते लोग ।
पर राम ये चाहते हैं की जन मानस उनका नाम पहले न ले ......पहले सीता का नाम आये ...............अब लोग "राम सीता" नही कहेंगें ....."सीता राम" कहेंगें .........सीता राम !
मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो रहे थे .......................
हे सीता पुत्री ! अपनें कुक्षि में पल रहे राम वंश का ख्याल रखो ।
मैंनें अपनें आपको सम्भाला था ।
उन महिलाओं नें महर्षि के चरणों में प्रणाम किया...........और मेरी परिक्रमा करके चली गयीं थी ।
( आज मैं आत्मकथा को आगे नही बढ़ा पाई....कल से फिर क्रमशः )
Harisharan
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