वैदेही की आत्मकथा - भाग 43

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग  43 )

तमसा तीर निवासु किये, प्रथम दिवस रघुनाथ ।
( रामचरितमानस )

**कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

महामन्त्री सुमन्त्र नें मेरे श्रीराम जी की आज्ञा का पालन किया था ....

रथ को   उछालते हुए  ले गए थे........भीड़ पीछे रह गयी थी  ।

पर कुछ दूर ही रथ चला होगा  कि  सामनें  खड़े दिखाई दिए........कुल गुरु वशिष्ठ जी.........और अकेले नही थे.......उनके साथ  उनकी  प्राणप्रिय गौ  नन्दिनी भी थी  ।

महामन्त्री नें रथ को रोका था .......................श्रीराम के सहित  हम दोनों  लक्ष्मण भैया और मैं  ..........हम लोग  उतरे  ।

आयुष्मान भवः  !

मेरे प्राणनाथ को   गुरु वशिष्ठ जी नें   आशीर्वाद दिया  था   ।

हे राम !  

 कुल गुरु के नेत्र भी सजल थे  ।

महाराज की स्थिति ज्यादा ही चिन्ताजनक मैने देखी........उनका वह विलाप......मुझ से देखा नही गया.....मैं  अपनें आश्रम आगया  था  ।

पर घड़ी भर पहले ही    ये नन्दिनी  अशान्त हो उठी थी ............इधर उधर  भागना .............बैचेनी  इसमें  स्पष्ट दिखाई दे रही थी  ।

मैं  समझ गया ...............मैने  अपनी इस गाय नन्दिनी को  पकड़ कर पूछा ...........राम से मिलना है   ? 

बस तुम्हारा नाम लेते ही   इसनें "हाँ" में   सिर हिलाया ...............

हे राम !   तुम जा रहे हो.....पर अवध का क्या होगा  !  ये सोच सोच कर मैं ज्यादा ही  परेशान हो रहा हूँ......पता नही  विधाता क्या चाहता है ? 

हे गुरुदेव !       

श्रीराम चरणों में झुक गए थे   गुरु वशिष्ठ  जी के  ।

हे गुरुदेव !    इस राम की एक प्रार्थना है ...........

क्या  कहना चाहते हो  राम !  कहो .........गुरु नें आज्ञा दे दी थी ।

हे गुरुदेव !    मेरी माँ कैकेई  की अवज्ञा - उपेक्षा नही होनी चाहिए ! 

मेरी माँ कैकेई  से कुछ गलती नही हुयी है.......हे गुरुदेव ! आप तो जानते हैं .......मै ही  नही चाहता था  कि  मेरा राज्याभिषेक  अभी हो ........मैं  आर्यावर्त में घूम घूम  कर पहले सबको देखना चाहता था..............

ये सब मेरी इच्छा से ही हुआ है  गुरुदेव !  

मेरे श्रीराम  चरणों में बैठे थे गुरु  वशिष्ठ जी के  ।

हे राम !   अब  कठिन ही नही  मुझे तो असम्भव सा प्रतीत हो रहा है ....

कि कैकेई वापस अपना  पहले जैसा सम्मान  अवध में पा लेगी ।

सब के हृदय से उतर गयी है कैकेई ...........हे राम ! आज के समय में  कैकेई  को अपना बोलनें वाला कोई नही है .........ऐसी   विपदा  को  स्वयं ही तो आमन्त्रित किया है  कैकेई नें........गुरुदेव नें कहा  ।

श्रीराम   कुछ  देर के लिए नही  बोले ..............फिर  कुछ देर बाद ही  गुरुदेव से कहा .....भरत को राजा अवश्य  बनाइएगा  ...........।

वो स्वीकार करे तो........हे राम ! मुझे तो लगता है   भरत स्वीकार नही करेगा  ।

श्रीराम फिर  सोच  में पड़ गए थे...........पर  घड़ी भर बाद ही  मुस्कान चेहरे में बिखर गयी थी  , श्रीराम के  ।

अब मुझे आज्ञा दें  गुरुदेव !      श्रीराम नें आज्ञा माँगी  ....और  चार कदम आगे बढ़कर  नन्दिनी गाय को  अपनें गले से लगा लिया था ।

नन्दिनी गाय नें  श्रीराम का सिर सूँघा ..........मैने प्रदक्षिणा की  गाय नन्दिनी की ..............और जब मैने अपना सिर नन्दिनी के पैरों में रखा ......तब मेरे सिर में  अपना गला रख दिया था .....नन्दिनी नें  ।

हुँकार देते हुये  लक्ष्मण की  और देखा था नन्दिनी नें  ।

हे राम !  नन्दिनी  का आशीर्वाद  कभी व्यर्थ नही जाता ..........ये आप सबको,  "मंगल" का आशीष दे रही है ........।

मेरे श्रीराम  नन्दिनी के आगे  हाथ जोड़कर खड़े हो गए थे .....

हे गौ माता नन्दिनी !     अब ये अवध आपको ही सौपें जा रहा हूँ ......इसकी रक्षा  करना ........अयोध्या का राज्य,   प्रजा की रक्षा का दायित्व भार आपको  देता हूँ ......माता नन्दिनी !   आप  इस  अयोध्या का ध्यान  रखियेगा  ।

श्रीराम नें   नन्दिनी से प्रार्थना की .............तब नंदिनी नें  अपनें दक्षिण पैर से  भूमि को कुरेद कर .........."हाँ"   में  सिर हिलाया  ।

गुरुदेव आनन्दित हो गए थे .....हे राम !     नन्दिनी नें आपकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है .........अब  किसी  शत्रु  की हिम्मत नही होगी कि  अयोध्या की और   देख भी ले ............।

हे राम !  तुम धर्मज्ञ हो .......तुम सत्य संकल्प राम हो .........जाओ !   तुम्हारी  ये वन की यात्रा  धर्म की यात्रा बने .......जाओ राम ।

गुरु वशिष्ठ जी  नें भी  आशीर्वाद  दे दिया था  ।

तभी ......पीछे से  हजारों लोग   ""राम !  हमें भी ले चलो अपनें साथ""

मुड़कर देखा ............तो  एक विलक्षण दृश्य दिखाई दिया ..........गौ,  हाथी,  घोड़े ,  अन्य पशु ..............और   उनके पीछे  हजारों की संख्या में जन सैलाब .................।

इतना ही नही .......ब्राह्मण  वर्ग ..............सब  वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करते हुये आरहे थे  ।

हे राम !   तुम रथ में जाओ .......गुरु वशिष्ठ जी ने कहा  ।

कैसे जाऊँ  रथ में   हे गुरुदेव !     मेरे सन्मान्य लोग पैदल चलें और मैं  रथ में  चलूँ   ?      ये  उचित नही होगा। ।

फिर श्रीराम   उस भीड़ की और मुड़े .........

आप लोग क्या चाहते हैं ..........?   

हम ये चाहते हैं   कि  या तो आप  अयोध्या  चलें ...............या हमें  अपनें साथ ले लें   राम  !

चलो !     आओ मेरे पीछे !

....इतना कहकर  मेरे श्रीराम पैदल ही चल पड़े थे गुरु देव को प्रणाम करते हुए ।

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तमसा नदी के किनारे पहुँचे  साँझ के समय .............

विप्रो नें सन्ध्या किया ....गायत्री का जाप किया  ।

मेरे श्रीराम नें भी  तमसा में  साँझ के समय.....सन्ध्या वन्दन किया था  ।

दो दिन से अन्न नही खाया है  मेरे प्रभु नें ......ओह ! 

मेरा हृदय यही सोचकर  दुःखी हो रहा था ।

तभी मैनें देखा ............नव पल्लवों  का बिस्तर स्वयं ही  श्रीराम नें अपनें लिये बनाया ...........ये देखते ही दौड़ पड़े थे लक्ष्मण और मैं  ।

लक्ष्मण नें    श्रीराम को  बिठाया......और स्वयं ही  पत्तों को खोजखोज कर   ..........सुमन्त्र जी   स्नान करके आये थे .....घोड़ो को पानी पिलाकर आये थे ......जब देखा   श्रीराम के लिए बिस्तर लग रहा है ....पत्तों का बिस्तर ...........ये देखा नही गया था  महामन्त्री से ।

अयोध्या वासी  जल मात्र पीकर  सो गए थे  ........रात्रि जो हो गयी थी ।

थकान भी थी ..........इसलिये  सबको नींद भी जल्दी ही  आगयी   ।

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अर्ध रात्रि को   मेरी नींद खुली थी.......मेरे पास में  "प्राणनाथ" सोये थे .........पर मुझे दूर से   किसी के  रोनें की आवाज आरही थी ....और ये  रुदन जाना पहचाना ही था  ।

मैं गयी ........तो   मै  देखती रह गयी  ............

लक्ष्मण भैया  बैठे थे ........और हिलकियों से रो रहे थे  ।

भैया लखन !    मैने जाकर  उन्हें शान्त कराना  चाहा  ...........

पर मुझे देखते ही   ......भाभी माँ !    ये क्या हो गया  !     देखो ना !   जो  राज्य गादी में बैठनें वाला था  वो आज   इस तरह  ?

फिर हिलकियाँ छूट पड़ी थीं ............लक्ष्मण भैया की  ।

पर लक्ष्मण भैया !     देखो  मेरे  प्राण नाथ के मुख मण्डल को ......

मैने कहा ...........लक्ष्मण भैया !  देखो !     

उस राजमहल में ..........राजमहल के  रेशमी  गद्दे में सोते हुए  जितना प्रसन्न मुख मण्डल  इनका  रहता था ..............आज  इन पत्तो में सोते हुए  भी   कोई म्लानता  इनके मुख में नही दिखाई दे रही  ।

तभी   मैने  और  लक्ष्मण नें  फिर  एक  कोनें में किसी के रोनें की आवाज सुनी ........लक्ष्मण नें  अपनें आँसू पोंछे .........और हम दोनों उसी  तरफ गए थे  ।

महामन्त्री जी !     मैं  चौंक गयी थी ............

ये तो बच्चों की तरह  बिलख रहे थे...........रोनें की आवाज बाहर न जाए  इसके लिये   उन्होंने अपना उत्तरीय मुँह में भी दबा रखा था ।

पर हम लोगों को जब देखा .............तब  भीतर का गुवार और बाहर निकल गया ............हे लक्ष्मण !   ये क्या हो गया  ?

ऐसे  कोमल राम  ...........आज  इस धरती में ......इस तरह  ! 

तात ! सुमन्त्र !  ..........पीछे से आवाज आयी ...............

मैने  चौंक कर जब पीछे देखा .......तो  राजीव नयन श्रीराम खड़े थे ।

वो शान्त थे ..........उनके मुखमण्डल में  शान्ति थी  ।

तात !     आप क्या सोचते हैं ..............जीवन -  एक जैसा ही चलता रहेगा ?        सुख आया है  तो  तात !  दुःख भी आएगा  ।

ये जीवन का चक्र है  घूमता ही रहता है ..........पर मैं तो इतना ही कहूँगा  दुःख  से लाभ है ........दुःख हमें बहुत कुछ  सिखा जाता  है .........।

इसलिये  जो होता है जीवन में ........उसे  देखो ......उससे शिक्षा लो .....ये  जीवन एक सा नही रहनें वाला   तात  ! 

दिन के बाद  रात है ....रात के बाद दिन .............उलूक सोचता है ......रात ही रात रहे .......काक सोचता है  दिन ही दिन रहे .....पर उलूक के सोचनें से   रात ही  रात नही रहेगा .......न   काक के सोचनें से   दिन ही दिन रहेगा ........।

हम सब ध्यान से सुन रहे थे  श्रीरघुनाथ जी की वो दिव्य वाणी  ।

तभी .........तात सुमन्त्र !    रथ को जोड़ लो .........उनमें अश्वों को लगा लो ............और  चलो  !

मेरे प्राण नाथ नें   आज्ञा दे दी थी  सुमन्त्र को ।

पर ये अयोध्या वासी  ?  

तात सुमन्त्र !   जिसे यात्रा में चलना हो .......उसे  इतनी गहरी नींद में   सोना नही  चाहिये ..........सच्चे यात्री को नींद कहाँ  तात  !  

मै समझ गयी थी ......ये सन्देश  हम लोगों के लिए है ......लक्ष्मण और मुझे.......लक्ष्मण नें मेरी और देखा था......मैनें  सिर हिलाया था  ।

बात सही तो है ..............यात्रा में चलनें वालों को   चैन की नींद सोनें का विचार ही त्याग देना चाहिए ........चैन की नींद सोनी है .....तो फिर यात्रा में ही  न चलो .............जागो !   जागृति ..............

सुमन्त्र जी रथ ले आये थे .............अयोध्या वासी सोते रहे ..........रथ में हम लोग बैठ गए ........और   रथ  धीरे धीरे  आगे  बढ़ गया  था ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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