वैदेही की आत्मकथा - भाग 42

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 42 )

लागति अवध भयावनि भारी...
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

अयोध्या नें कभी ऐसा दारुण दुःख नही देखा होगा  ।

सृष्टि के लिए भी सबसे अमंगल दिन  मकर का गुरु, मीन का बुध, कर्क का मंगल, वृश्चिक का चन्द्रमा   ये नीच राशिगत ........जिसके कारण  सबकुछ अमंगल ही हो रहा था  .......ये ज्योतिष कहता है  ।

क्या  गलत कहता है.........जब मुझे ब्याह कर  श्रीराम  इस अवध में लाये थे .......तब क्या दिव्य  था  ये अवध  !

पर आज !   आज तो  भयानक  श्मशान  लग रहा था......ये अवध ।

मैं माता सुमित्रा के  साथ  लौटके माण्डवी के महल से आयी  .....तब तक  मेरे श्रीराम   कैकेई के अन्तःपुर से निकल चुके थे  ।

बाहर हजारों  लोगों की भीड़ खड़ी थी .........सेना के प्रमुख लोग थे ....और  अयोध्या के प्रधान पंच लोग  ।

हम आपको वन जानें नही  देंगें  ! 

सब लोग  यही  बोल रहे थे  ।

क्या आप लोग   ये चाहते हैं  कि  वनवास की अवधि पूरी करके  राम अवध लौटकर न आये  ?  

मेघगम्भीर वाणी से   श्रीराम नें सबको सम्बोधित करना शुरू कर दिया था  ।

ये राम आप लोगों से  उत्तर चाहता है ..................बोलिये  ?

क्या आप  लोग ये नही चाहते  कि    राम चौदह वर्ष के बाद  लौटकर  आये  ?

यदि अयोध्या की सेना , प्रजा के प्रतिनिधि मण्डल   राम की इच्छा को अस्वीकार करते हैं.........तो  मैं ये समझूँगा की  आप लोग चाहते हैं कि  राम वापस लौटके ही न आये .......मैं  नही आऊंगा  ।

"हममें से कोई ऐसा अधम नही है".......एक साथ हजारों  आवाजें उठीं .........."हम आपकी आज्ञा मानेँगे"  ।

तब ये राम चाहता है कि  आप सब लोग  चक्रवर्ती महाराज श्री दशरथ जी   की  आज्ञा का पालन करें.........ऐसा कोई कुछ न करे जिससे  चक्रवर्ती महाराज को दुःख हो  ..........भरत का सम्मान ,  भरत का आदर ही  राम का आदर होगा .......ये बात सब समझ लें  ।

श्रीराम पूरी स्पष्टता से बोल रहे थे .......और  वहाँ खड़ी हजारों हजार   प्रजा  श्रीराम के  एक एक शब्दों को  सुन रही  थी ........।

याद रहे - भरत की अवज्ञा  राम की अवज्ञा होगी  ।

ये बात सुनते ही   समस्त  सैनिकों नें  अपना सिर झुका दिया था  श्रीराम के सामनें  ...........जनप्रतिनिधियों नें भी   सिर झुकाकर  श्रीराम के प्रति अपना आदर व्यक्त किया था  ।

जनप्रतिनिधि  अपना निर्णय वापस लें ......और सैनिक लोग  अपनें स्थानों  पर  चले जाएँ  ।  श्रीराम नें कहा ।

सैनिक अपना सिर झुकाये रहे..........पर जनप्रतिनिधि  के नेतृत्वक  आगे आये थे ......और  श्रीराम को प्रणाम करते हुए बोले .........

हम  जातिच्युत कर देंगें    जो कैकेई की सेवा या उनकी आज्ञा मानेगा .....ये बात  हम  वापस लेते हैं ........पर  हे  राम !      किसी पर हम  दवाब नही बना सकते........कैकेई की सेवा  करनें वालों को हम अब दण्डित नही करेंगें.....क्यों की  आपनें हमें ये आज्ञा दी है ......पर हे राम !   अगर कोई सेवा करना ही नही चाहे  कोई कैकेई की आज्ञा पालन करना ही  न  चाहे  तो  हम उसपर दवाब नही डाल सकते ।

मैने देखा  मेरे  श्रीराम को ये स्थिति स्वीकार करनी ही पड़ी ।

इधर उधर  देखा था  श्रीराम नें   ।

हजारों की भीड़  लाखों में बदल रही थी ....................प्रजा का हुजूम ही उठ खड़ा हुआ  था  ।

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हे  राघव !  आप  रथ में बैठें .....मुझे  महाराज अवधेश  नें भेजा है  ।

महामन्त्री सुमन्त्र जी  उसी समय रथ लेकर  उपस्थित हो गए थे  ।

पर तात  सुमन्त्र !    हम वाहन को अपनें साथ नही रख सकते ...ये सम्भव नही है ......हम तपस्वी  बनें    वन में जा रहे हैं ......रथ को लेकर चलना  उचित नही होगा ..।  मेरे श्रीराम नें मन्त्री जी को समझाया था ।

मत जाओ  राम !   मत जाओ !    

लाखों लोग  सब विलाप कर उठे थे  ।

मेरे श्रीराम को   कुछ नही सूझा .......उस भीड़ से बाहर निकलना ही था ....और शीघ्र निकलना था ..............इसलिये  मुझे पहले बिठाया रथ में .....फिर स्वयं बैठे ........लक्ष्मण  भी  बैठ गए  ।

तभी कैकेई के अन्तःपुर से  कुछ भीड़ भाग रही थी.........हम सबनें देखा ........महाराज आरहे हैं !    चक्रवर्ती महाराज आरहे हैं ..........

और  तभी  लड़खड़ाते हुए  पुकारते हुए  महाराज आये   -

...मेरे राम ! मत जाओ !

मेरे राम को कोई रोको !   मेरे राघव को कोई रोको  ।

पीछे माता कौशल्या जी  आरही हैं .....सुमित्रा  जी हैं ........।

मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे   ।

तभी एकाएक  मेरे श्रीराम नें  महामन्त्री जी  से कहा ......तात ! सुमन्त्र ! 

रथ  चलाओ !    शीघ्र चलाओ .........तेज़ आवाज में बोले थे ।

महामन्त्री जी  नें  आज्ञा का पालन किया .......रथ को   हाँका ।

राम !    ऐसे निष्ठुर न बनो   राम !        ये कहते हुए धड़ाम से धरती में गिर पड़े थे ........महाराज  चक्रवर्ती  ।

रथ  चलता ?      ऐसे  में रथ चल पाता ?

 .....चार कदम आगे बढ़कर फिर रुक गया था रथ  ।

महामन्त्री ! हटो !  हमें राम को देखनें दो ! 

सब चिल्ला रहे थे   ।

नगर का राजपथ प्रजा से भर गया था ..........मार्ग में तिल रखनें की जगह भी नही थी.......बहुत अव्यवस्था थी ।

हाथी , घोड़े , गौ  ये सब  अपनें अपनें बन्धनों को तोड़कर  राजमार्ग में आगये थे ....और ये सब  भी  श्रीराम की ओर ही   देख रहे थे  ।

ओह !  क्या हृदय विदारक दृश्य था  वो  ।

पक्षी आकाश में चीखते हुए उड़ रहे थे ....................

बालक वृद्ध नर नारी सब कैकेई का नाम ले लेकर  गालियां दे रहे थे ।

ओ सुमन्त्र !  रथ धीरे चलाओ ...............हमें  देखनें दो  राम को ।

सुमन्त्र !     रथ को रोको !   

युवा वर्ग आगया था  रथ के सामनें ........रथ को रोको  !

जब  रथ को नही रोका सुमन्त्र नें .......तो आगे खड़ी  युवा पीढ़ी   रथ के आगे ही लेट गयी थी .............हमारे ऊपर से रथ चलाओ ..........पर अब हम  रथ को जानें नही देंगें  ।

मैने  श्रीराम को देखा ..............क्यों की रथ   रुक गया था .......सुमन्त्र को रथ  रोकना ही पड़ा  ।

पर श्रीराम नें  उन  युवाओं को समझानें का प्रयास किया ।

पर हम भी जायेंगें .......हे  श्रीराम !  हमें भी ले चलो ............वन में ।

आप लोग उठिये तो सही !

 ......मेरे श्रीराम की  मधुर वाणी से मानों सम्मोहित से हो गए थे  ।

सब लोग उठ गए ।..........तब  श्रीराम नें कहा ........घोड़ों को  उछालते हुये  इस भीड़ को पार करो महामन्त्री जी ।

विवश थे महामन्त्री सुमन्त्र  भी .........मैं देख रही थी  महामन्त्री सुमन्त्र  अपनें आँसुओं को बारम्बार पोंछ रहे थे  ।

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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