आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 39 )
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई....
( रामचरितमानस )
**कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
कैसी विधि की बिडम्बना है ना ! जिन श्रीअंगों में रेशमी वस्त्र ही सुशोभित होते थे .......उन में आज वल्कल पहनाये गए हैं ।
वो चरण ! कितनें कोमल ........मैं तो स्त्री हूँ प्राकृतिक रूप से कोमल ही होती है स्त्री .....पर मुझे विधाता नें कुछ ज्यादा ही कोमल बनाया .........।
किन्तु मेरे श्रीराम !
सीते ! थोडा धीरे दवाओ मेरे पाँव ...........उस दिन बोले थे ।
ओह ! मेरे कोमल कर भी चुभते थे मेरे श्रीराम को .....इतनें कोमल ।
पर आज वही चरण बिना पादत्राण के वन में चलनें को उद्यत थे ।
जब मेरे श्रीराम अपनें राजसी पोशाक त्याग कर वल्कल धारण कर रहे थे ......उस समय वहाँ उपस्थित कौन ऐसा व्यक्ति था जिसके नयन से गंगा यमुना न बहे हों ।
सीता !
मेरी और देखा था कैकेई नें ......
मैं आगे बढ़ी थी .........जी ! माँ ! ।
ये लो वल्कल तुम भी पहन लो....और इन राजसी वस्त्रों को उतार दो ।
कैकेई !
ये आवाज इतनी तेज़ थी कि सब स्तब्ध और भयभीत हो उठे थे ।
मै अभी श्राप देकर तुझे भस्म कर दूँगा ...........मानों अंगार उगल रहे थे वे शब्द .................
ये कोई और नही इस कुल के गुरु वशिष्ठ जी थे ।
कैकेई !
ये याद रहे वनवास का वचन राम के लिये माँगा था तुमनें, सीता के लिये नही ..........सीता राजसी वस्त्रों में ही जायेगी ......।
कैकेई !
मुझे स्त्री पर कभी क्रोध नही आता .........पर तू ! तू तो स्त्री जात पर कलंकिनी है ।
पहली बार मैने गुरु वशिष्ठ जी को इतनें क्रोध में देखा था ............
वो इतनें क्रोधित हो गए थे कि श्राप दे ही देते कैकेई को.....पर मैं ही आगे बढ़ी थी उस समय ......और हाथ जोड़ कर मैने मना किया था ।
मैं उस समय अपनें श्रीराम को लेकर अत्यंत दुःखी थी ........मैं समझ ही नही पाई कि मेरे हाथ जोड़नें पर गुरु वशिष्ठ जी नें मुझे सिर झुकाकर प्रणाम क्यों किया ..........।
मुझे बाद में पता चला ...........वो तो मुझे इष्ट मानते हैं..........
ये बात वो मुझे जनकपुर में ही मेरे श्रीराम के सामनें बोल चुके हैं ।
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कैकेई थर थर काँप रही थी......जब कुल गुरु वशिष्ठ जी नें श्राप की बात कही......वो जानती हैं कि इनको कुछ कहनें की भी आवश्यकता नही है ये मात्र किसी को लेकर हृदय से दुःखी भी हो जाएँ तो सामनें वाला स्वतः ही श्रापित हो ही गया ।
और बेचारी कैकेई माता को तो सब नें श्राप ही दिया है ............।
अरुंधती !
गुरु वशिष्ठ जी नें पुकारा .........ऋषि पत्नियों के साथ वहीं खड़ी थीं अरुंधती .......वो तुरन्त आगे आयीं ।
जी भगवन् !
अपनें पति वशिष्ठ जी को प्रणाम करके बोलीं ।
तुम्हारे पास जितनें आभूषण हैं .......और अपनी दिव्य शक्तियों से जितनें आभूषण मंगवा सकती हो ......मंगवाओ .......और मेरी इन आराध्या भगवती जानकी का श्रृंगार करो ............।
आँखें बन्द करके ये आज्ञा दी थी अपनी पत्नी अरुंधती को कुल गुरु नें ।
मेरा हाथ बड़े स्नेह से पकड़ा था गुरु पत्नी अरुंधती जी नें, और ले गयीं मुझे अपनी कुटिया में.........आँखें बन्दकर करके बैठीं ......उनके अधरोष्ठ चल रहे थे ।
तभी स्वर्ग के आभूषण उनके हाथों में आनें लगे .........वो उन आभूषणों को लेकर मेरे अंगों में लगा रही थीं ...........कर्ण फूल ......हार .....चूड़ामणि ......अँगूठी ............सब बड़े प्रेम से लगा रही थीं वो श्रद्धेया ।
उनका वो स्नेह .......उनका वो मेरे प्रति अनुराग ........मैं गदगद् थी ।
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ये क्या ?
मुझे जब लेकर आयीं ऋषि पत्नी अरुंधती ...........तब मेरा श्रृंगार देखा था कुल गुरु नें ।
ये क्या ?
क्या तुम्हारे पास आभूषणों की कमी हो गयी है ?
या तुम्हारी तप की शक्ति स्वर्गीय आभूषणों को लानें में अब समर्थ नही रही.......मुझे कहना चाहिये था .......माता अदिति के कुण्डल तक लाकर मै अपनी भगवती श्री सीता को धारण करवाता ।
देवी ! इतनी कृपणता क्यों ?
कुल गुरु नें अपनी पत्नी पर रोष किया ।
फिर मेरे पास आये ............उन्होंने एक एक आभूषणों को देखा ।
हाथ में कँगन हैं ...........पर ये क्या ! दूसरे हाथ में कोई कँगन नही ?
और नथ बेसर ?
देवी ! अभी तो और भी आभूषण धारण कराये जा सकते हैं ।
ये तुम्हारा परम सौभाग्य है कि ब्रह्म आल्हादिनी का तुम श्रृंगार कर रही हो ..............फिर क्यों ?
हे भगवन् ! मै जानती हूँ ........मैं और भी आभूषण धारण करवा सकती थी .......पर नही ........ऋषि पत्नी नें कहा ।
क्यों नही ? यही तो प्रश्न था कुल गुरु का ।
क्यों की मेरी एक बहन और है ........जिसका नाम है अनुसुइया ।
वो वन में इंतजार में बैठी है बेचारी ........की भगवती सीता जब वन में आयेंगीं तब मैं अपनें हाथों से उनका श्रृंगार करूंगी ......मेरी बहन अनुसुइया नें कई वर्षों पहले से ही आभूषणों को सम्भाल के रखा है ।
भगवन् ! अगर मैं सारा श्रृंगार स्वयं ही कर दूंगी और सारे आभूषण में ही लगा दूंगी .....तो फिर मेरी बहन ?
वो तो कहेगी ना ........कि सारी सेवा स्वयं ही ले गयी मेरी बहन ......मेरा ध्यान ही नही रखा ।
अब कुछ संतोष हुआ था कुल गुरु को ...........वो शान्त हो गए थे ।
शेष चरित्र कल .........
Harisharan
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