वैदेही की आत्मकथा - भाग 40

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 40 )

जहँ तहँ देहिं कैकेई गारी ..
( रामचरितमानस )

मैं वैदेही ! 

***कल से आगे का चरित्र -

तभी  प्रजा की  आवाजें  महल के भीतर तक आनें लगीं थीं .....

सुमन्त्र !  चलो  बाहर देखतें हैं प्रजा  का आक्रोश कितना है  !

ये बात  कुल गुरु नें  महामन्त्री से कही ...........और  दोनों ही बाहर चले गये थे  ..............।

एक  घड़ी बाद ही  जब वापस  महल में आये   तब कुल गुरु नें जो कहा .....वो अवध के लिये शुभ तो था ही नही   ।

""अवध की हजारों प्रजा  महल के चारों ओर  इकट्ठी हो गयी है .....और उनमें  जो पंचायत के प्रधान हैं ........उन्होंने निर्णय लिया है ......कि कोई सेवक और कोई सेविका   कैकेई के साथ या कैकेई  की कोई आज्ञा नही मानेंगें.......और अगर किसी नें कैकेई की सेवा की और उसकी आज्ञा मानीं   तो  उसे हम समाज से अलग रखेंगें ............उससे किसी का कोई सम्बन्ध नही होगा ..........।

कुल गुरु नें आकर   महाराज श्रीदशरथ  को ये बात सुनाई  ।

किसी राजा को प्रजा का इस प्रकार आंदोलित होना  कहाँ प्रिय लगता है .........पर  आज  महाराज दशरथ  प्रजा के इस  व्यवहार से कुछ प्रसन्न से हुये थे  ।

हे दुष्टा  कैकेई !    

तुम्हे पता भी है  बाहर क्या हो रहा है ..........देखो  !   

कुल गुरु नें  बाहर का दृश्य   दिखाया  झरोखे के  पर्दे को हटा कर ।

वो देखो  अवध के सेना नायक ..............!

चतुरंगिनी सेना के नायक ........पता है कैकेई  !  

सेनापति   निर्णय कर चुके हैं .........कि   अवध की सेना अब  किसी की बात नही मानेगी ............महाराज के प्रति भी उनकी निष्ठा अब समाप्त हो गयी है .........पूरी सेना  नें कह दिया है ........हम सब  श्रीराम के साथ ही  वन में जायेंगें .............हमारी अब कोई जिम्मेवारी नही है ।

कितनी मूर्खता कर दी तुमनें कैकेई  !  

अब कैसे  चलाएगा  राज्य,  तेरा पुत्र भरत ?.......बोल कैकेई !

कुल गुरु अत्यन्त रोष में बोल रहे  थे  ।

ये सुनते ही कैकेई काँप गयी.........उसके मुख का रँग   डर के कारण  बिगड़नें लगा था  ।

बोल !     क्या  तू  और भरत  और   तेरे मायके के लोग आकर इस अवध के राज्य को चला लेंगें ..............?

क्यों की कैकेई !      तेरी और निर्दोष भरत की सेवा के लिये भी कोई अवध वासी तैयार नही होगा.......ये पंचों नें निर्णय कर लिया है ।

चतुरंगिनी सेना भंग हो गयी !  

लक्ष्मण को बहुत अच्छा लगा था ये सुनकर  ।

पर ये बात मेरे श्रीराम को  अच्छी नही लग रही थी .......वो गम्भीर हो गए थे ......और  उन्होंने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि  अवध को इस समस्या से मुक्ति दिलाकर ही वे वन जायेंगें  ।

प्रमुख सेना पति  बाहर ही नग्न खड्ग लेकर खड़े हैं .......और उनकी सेना की  टुकड़ी  अवध के हर मार्ग में  फैल गयी है ......."श्रीराम को हम वन  जानें नही देंगें".......बस यही कहना है सब का  ।

महामन्त्री सुमन्त्र नें आकर फिर ये बात सुनाई ।

दुष्टा कैकेई !    ये सुमन्त्र मुझ से पूछ रहे थे .....कुल गुरु !  आप श्राप क्यों नही दे देते कैकेई को ......मैने कहा था  .....महामन्त्री !  कोई ऋषि उसे क्यों श्राप देंनें लगा ...........जिसे पति नें ही त्याग दिया हो ......जिसनें सत्यवादी पति का इस तरह से अपमान किया हो ......उसे श्राप देनें की जरूरत ही क्या  !    वो तो  स्वतः ही  श्रापित हो  गयी है ।

हर मार्ग में फैल गये हैं  सैनिक .....राम को जानें नही देंगें बाहर ....और भरत को आनें नही देंगे...........भरत के अवध में प्रवेश करते ही उसे बन्दी बना लेंगें ..............तुम्हारे समस्त सेवक और सेविकाएँ  सब को नजर बन्द करके रखा जाएगा ..........क्या करेगी  तू कैकेई !  बोल !

इतना सुनते ही कैकेई  पहली बार मूर्छित होकर  गिरी थीं   ।

पर    तुरन्त आगे बढ़े  मेरे श्री राम,  और उन्होनें ही कैकेई को सम्भाला । 

पर मूर्छित है कैकेई ........।

उस समय  महाराज दशरथ कुछ प्रसन्न  उठे थे  ..........और उन्होंने  अपनें सेनापति को भीतर महल में बुलाया ............

मैं  अवध नरेश   तुम को  अपनी आज्ञा के बन्धन से मुक्त करता हूँ .......तुम को जो उचित लगे वही करो  ।

पर  सेनापति ! मेरा भरत निर्दोष है उसको कोई हानि नही होनी चाहिये  ।

महाराज के वचनों को सुनकर  सेनापति नें सिर झुकाया था ।

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माँ !   उठो माँ !    

कैकेई को सम्भाल  रहे हैं   मेरे श्रीराम  ।

माँ !  ऐसा कुछ नही होगा ..............मै कहता हूँ  .....।

ये हमारे सेनापति हैं ......अवध के सेनापति हैं ......ये जो भी कह रहे हैं  मेरे प्रेम के कारण कह रहे हैं.........पर इनके मन में  अपनें राष्ट्र के प्रति पूरी निष्ठा है ।...... कैकेई  को सम्भाल रहे हैं  श्रीराम ।

इस दृश्य को देखते ही....महाराज  दशरथ जी  फिर धम्म् से बैठ गए थे ।

माँ !   भरत ही राजा बनेगा ..........ये सेनापति मेरी बात का आदर करते हैं ..............ये सेनापति धर्मनिष्ठ हैं माँ !    राज भक्त हैं ..........ये ऐसा कोई भी कदम नही उठायेगें  जिससे अवध राज्य को कोई हानि हो ।

 माँ !  आप इन सेनापति को क्षमा कर देना ........मैं इनकी ओर से क्षमा माँगता हूँ आपसे ...........।

उफ़ !   किस मिट्टी के बने हो राम !  

मेरे श्रीराम  का  कैकेई के प्रति इस व्यवहार को देखकर   सब  यही कह रहे थे ।

सेनापति नें अपना खड्ग  म्यान में रख लिया .......अपनें अश्रु पोंछें  ।

आप कितनें महान हो राम !  
ये कहते हुए  चरणों में गिर गए थे सेनापति  ।

माँ !  देखो !    आप  उठो  .........सेनापति मेरी बात को मान गए हैं ....और  मैं जाते जाते प्रजा को भी समझा दूँगा ......प्रधानों से भी बातें कर लूंगा ...........ये जो भी कह  रहे हैं   मेरे प्रेम के कारण ही है  ।

कैकेई माता   अपलक   मेरे श्रीराम को देखे जा  रहीं थीं..................

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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