आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 33)
विमल वंश यह अनुचित एकु....
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
मेरे श्रीराम .....नही नही "मेरे" नही, सबके श्रीराम ।
जन जन के श्रीराम..सम्पूर्ण आस्तित्व के श्रीराम...आस्तित्व ही श्रीराम ।
आप लोग कल्पना भी कर सकते हैं कि मेरे श्रीराम कितनें बड़े त्यागी हैं ......आप लोग कल्पना भी कर सकते हैं कि मेरे श्रीराम कितनें बड़े वैराग्यवान् हैं ....... शायद नही ।
इस त्रिभुवन में मेरे श्रीराम जैसा त्याग किसका है ?
ओह ! जो व्यक्ति अपनें आपको भी त्याग देता है.......वो हैं मेरे श्रीराम ।
वैराग्य इतना कि राग तो मानों इनके जीवन में कभी था ही नही ।
मेरे अवध में आये हुए 4 महिनें लगभग हो गए थे .............
एक दिन दोपहर में मेरे श्रीराम महल में आये ........परेशान थे .....हाँ उनकी परेशानी उनके मुख मण्डल पे स्पष्ट देखी जा सकती थी ......।
वो आये और बैठनें जा रहे थे ....पर वो बैठे नही ........खड़े ही रहे ........मैने जल ला कर दिया उन्हें ।
उन्होंने जल पीया................ फिर झरोखे के पास में आगये ....... उद्विग्नता उनमें साफ दीख रही थी ।
हे नाथ ! आप परेशान लग रहे हैं क्या बात है ?
मुझे पूछना चाहिए ............मैने उनसे पूछा ।
मेरी और देखा मेरे श्रीराम नें ................फिर अपनी नजरें हटा लीं मेरी और से .......फिर झरोखे से शून्य आकाश को देखनें लगे थे ।
नाथ ! मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ ............आप मुझे बताएं कि क्या हुआ ऐसा जिसके कारण आप इतनें परेशान हैं ।
हे सीते ! मेरा नाम लिया मेरे प्रभु नें ...............
इस रघुकुल में आज तक अनुचित कुछ नही हुआ था .....पर आज !
क्या हुआ नाथ ! आज क्या हुआ ?
बहुत गलत हो रहा है ...............मेरे श्रीराम परेशान थे .....।
मुझे आप कहें ........कुछ न छुपाएँ नाथ ! मैने कहा ।
सीते !
कल मुझे अयोध्या के युवराज पद पर अभिषिक्त किया जायेगा ।
किस मिट्टी के बनें हैं मेरे नाथ मैं आज तक समझ नही पाई ।
ये मेरे श्रीराम हैं .................जो स्वयं के राज्याभिषेक की बात सुनकर दुःखी हो जाते हैं .........और वो चाहते हैं कि मेरा भाई क्यों नही ?
सीते ! मै दुःखी इसलिए हूँ कि हम चारों भाइयों का जन्म साथ साथ हुआ ...............खेले साथ साथ, पढ़े साथ साथ .......और तो और विवाह भी हम लोगों का साथ साथ ही हुआ .......।
फिर ये अनुचित कार्य आज क्यों हो रहा है ..........कि अन्य भाइयों को छोड़कर मेरा ही अभिषेक ?
मेरे गौरव .......मेरा अभिमान ........उस दिन मुझे गर्व का अनुभव हो रहा था .......ऐसे महान श्रीराम की मै अर्धांगिनी हूँ !
मुझे पिता जी नें महामन्त्री सुमन्त्र के द्वारा उस सभा में बुलवाया था ।
मेरे श्रीराम वो सारी घटनायें सुनानें लगे थे .............।
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आओ वत्स राम ! आओ !
मै जैसे ही गया उस सभा में ...........जो सभा मेरे लिए ही रखी गयी थी ............मुझे देखते ही मेरे पिता जी नें मुझे अपनें हृदय से लगाया ।
और अपनें ही बगल में मुझे बिठाया था ।
मैने देखा .............ओह ! गुरुदेव वशिष्ठ जी भी बैठे थे उस सभा में ।
मैने फिर उठकर उनको प्रणाम किया ............साथ साथ मैने सबको प्रणाम किया था ...........।
सीते ! उस सभा में अवध का प्रत्येक गणमान्य व्यक्ति बैठा था ।
हे राम !
गुरु वशिष्ठ जी खड़े हुए थे ............और सबसे पहला सम्बोधन मुझे ही किया था ।
हे राम ! आज तुम्हारे अवध वासियों की .....और तुम्हारे पिता चक्रवर्ती महाराज और स्वयं मेरी ये इच्छा है कि तुम इस अवध की गादी को सम्भालो .............।
गणमान्य व्यक्तियों नें करतल ध्वनि से गुरु महाराज की बातों का समर्थन किया ........।
सीते ! उस समय मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो चले थे .......
गुरु महाराज ! मेरा ही राज्याभिषेक क्यों ?
भरत का क्यों नही ......................
ये क्या बात हुयी राघव ! इस कुल की परम्परा है कि ज्येष्ठ पुत्र को ही राज गादी मिलती है ।
और राम ! देखो ! तुम्हारे पिता अब वृद्ध होते जा रहे हैं ........वो अब अध्यात्म साधना के मार्ग पर चलना चाहते हैं ......तुम्हारा कर्तव्य है ये कि अपनें पिता को साधना के मार्ग में , चलनें में सहायक बनो और स्वयं इस जिम्मेवारी को स्वीकारो ।
तभी मेरे सिर में हाथ रखा मेरे पिता जी नें ................मैने उनके नेत्रों में देखा ............बहुत आस थी उनकी मेरे प्रति .........।
स्वीकार कर लो पुत्र ! मेरे पिता जी नें कहा ।
स्वीकार करलो राम ! मेरे गुरु महाराज नें कहा ।
हे ज्येष्ठ राजकुमार ! स्वीकार करो इस अयोध्या की सत्ता को ।
स्वीकार करो ....स्वीकार करो .....स्वीकार करो .....
अवध के वरिष्ठ नागरिक बोल उठे थे, एक साथ ।
सीते ! मै क्या करता ..............मै दुविधा में फंस गया था ।
तब गुरु वशिष्ठ जी नें कहा ................राम ! बात ये है कि दो दिन से तुम्हारे पिता दुःस्वप्न देख रहे हैं ...........सूर्योदय के समय सूर्य की और मुखकर के श्वान रोता है ....................ये स्वप्न अच्छा नही है .......वत्स राम ! इनका कहना है कि राजा के दुःस्वप्न का परिणाम प्रजा को भी भोगना पड़ता है ...........जो सत्य है ।
तुम अगर राज्य को स्वीकार कर लो.......तो प्रजा को लाभ होगा ।
ठीक है .........मैं आप लोगों की आज्ञा स्वीकार करता हूँ ।
मैने सबको प्रणाम करते हुए ये बात कही ।
मेरे पिता आनन्दित हो उठे थे ......मेरे गुरु महाराज भी प्रसन्न थे ।
महामन्त्री सुमन्त्र नें तो जोर जोर से बोलना शुरू कर दिया था ।
युवराज श्रीरामचन्द्र की - जय जय जय ...........
सब लोग बोले जा रहे थे ........सब खुश थे ............
पर मैं ?
मै चल दिया था वहाँ से .......................
सीते ! मुझे अच्छा नही लग रहा ..................मेरे भाई भरत का राज्याभिषेक क्यों नही ?
मै देखती रही .........अपनें श्रीरघुवर को ..............कितनें महान थे मेरे श्रीरघुनंदन ............।
शेष चरित्र कल ..........
Harisharan
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