वैदेही की आत्मकथा - भाग 32

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 32 )

जब तें राम ब्याही घर आए ....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

अवध में नित्य उत्सव है.........मेरा कँगन खुलेगा अब .......इसका भी अपना उत्सव होगा  अवध में  ।

ये इस तरफ की रीत है  कि कँगन  कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण ही खोलता है ......।

और  तुम दोनों दम्पति , जो विश्व में  अद्वितीय हो ........तो ऐसे अद्वितीय दम्पति का कँगन  कोई साधारण ब्राह्मण कैसे खोल सकता है .....।

ये बात मुझे मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें  बताया था ।

बहू !   गुरु वशिष्ठ जी   बड़े चिंतित हैं ...........विवाह के इस कँगन को खोलनें वाला ..........ब्राह्मण  श्रेष्ठ हो ........और  इससे भी बड़ी बात ये होनी चाहिये   कि  वही ब्राह्मण,   दम्पति के कँगन  खोलेगा .....जिसनें कभी वेद को बेचा नही है ..........अपनें कर्मकाण्ड का मूल्य नही लिया ।

अब बहू !  तुम ही बताओ .......ऐसा ब्राह्मण कहाँ मिलेगा  ?

अब कर्मकाण्ड करवा के   तो दक्षिणा हर विप्र लेतें ही है  ।

स्वयं  गुरु वशिष्ठ जी भी   कर्मकाण्ड करवा के .......दक्षिणा को स्वीकार करते ही  हैं ...........।

पर  खोज में लगे हैं  गुरुमहाराज  ..........देखो !  कब तक ऐसा अद्भुत ब्राह्मण मिलता है ...........होगा तो कहीं   .........।

मेरी सासू माँ  नें   मुझे आज कहा था ................।

मेरे अवध में आये हुये   तीन चार दिन तो हो ही गए हैं    ।

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ब्राह्मण मिल गया !  ........मेरे पुत्र और मेरी  पुत्रवधू के कँगन को खोलनें योग्य ब्राह्मण मिल गया ...........

चक्रवर्ती महाराज  आज बड़े प्रसन्न थे ..........उन्होंने  मेरी सासू माँ को कहा भी  था ................सुनो महारानी !     गुरु महाराज को  ऐसा ब्राह्मण मिल गया ............जिसनें कभी वेद और कर्मकाण्ड को बेचा नही है .........जो दक्षिणा मिला.....उसे स्वीकार तो किया  पर  किसी और को  फिर  दान में  दे दिया  ..........।

पर .......................सोच में पड़ गए  चक्रवर्ती महाराज  ।

और वहाँ से चले गए  थे  ।

मै जब  वहाँ पहुंची ..............तब चक्रवर्ती महाराज जा चुके थे ......मेरे वहाँ पहुँचते ही   मुझे अपनें हृदय से लगा लिया  था मेरी सासू माँ नें ।

बहू !  मै बहुत खुश हूँ ....प्रसन्न हूँ ...........पता है  आज  चार दिन के बाद जाकर  गुरु महाराज को  एक ऐसा ब्राह्मण मिल गया है ......जो कँगन को खोलेगा .....तुम दोनों के कँगन को   ।

मै आनन्दित होगयी थी .............पर  मै लजा भी रही थी  ।

कल ही वो ब्राह्मण आरहा है  ........वो ब्राह्मण दक्षिण से आरहा है  ।

मुझे बताया  था मेरी माँ कौशल्या जी नें  ।

वो ब्राह्मण  श्रीमन्त लगता है ................बहू !  चक्रवर्ती महाराज नें उसे लानें की व्यवस्था की .......तो गुरुवशिष्ठ जी नें कहा ......उसके पास स्वयं का विमान है .......वो  स्वयं विमान लेकर आएगा  ।

ऐसा ब्राह्मण ?          श्रीमन्त  ब्राह्मण !   लगता है ब्राह्मणों में अपवाद है ये .....है ना बहू  !      मुझे ही ये सारी बातें बताती थीं  मेरी सासू माँ ।

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हम दोनों बैठे हैं ..................मेरे श्रीरघुवर राम ......और मैं  ।

सारी तैयारियां हो चुकी हैं........पर  वो ब्राह्मण अभी तक नही आया ।

गुरुमहाराज !    आएगा न  वो ब्राह्मण  ?      कहीं हमारी ये विधि अधूरी न रह जाए......चक्रवर्ती महाराज  नें  अपनें गुरु वशिष्ठ जी से कहा था ।

नही  आएगा वो ...............ब्राह्मण बात का पक्का है .............इसलिये आएगा ...............गुरु वशिष्ठ जी नें कहा  ।

तभी एक विमान  अवध के आकाश में उड़नें लगा था ...........

सब लोग देख रहे थे   उस विमान को ..................

लगता है वो ब्राह्मण आगया ...................गुरु महाराज  ,  चक्रवर्ती अवध नरेश को लेकर बाहर गए ..................।

बड़ा अजीब ब्राह्मण था वो ............वो हमारे पास आरहा था .....तो वैदिक मन्त्रों का उच्चारण  स्वयं उसके देह से हो रहा था .......

उसकी चाल !    गम्भीर थी .........मानों कोई  गजराज चल रहा हो  ।

वो आया था हम लोगों के पास .........................

मैने  घुँघट से  उसको देखा ...................मैं चौंक गयी  ।

रावण !      ओह !  ये तो दशानन रावण है  ।

मैने अपना घूँघट हटा दिया था ..................रावण मुझे देखता रहा ।

वैदेही !  

  वो मुझे देखता रहा   ।

फिर    उसनें हम दोनों के हाथों में बन्धे कँगन को  खोला  ।

वो मुझे देखता जा रहा था   ।

हे वैदेही !         हे मैथिली  !       हे  जनक दुलारी  !

उसकी आवाज आकाश की तरह गम्भीर थी ............मेरा नाम स्पष्ट सब लोगों के सामनें ले रहा  था  रावण ।

मैं कुछ नही बोली .........क्या बोलती  ?

इस रावण नें आज तक किसी कर्मकाण्ड की दक्षिणा नही ली .......

पर  हे सीते ! आज ये रावण तुम्हारे कँगन खोलनें की दक्षिणा चाहता है ।

क्या चाहते हो ?    माँगो  ?    चक्रवर्ती महाराज नें  कहा था  ।

आपसे कौन मांग रहा है  अवधेश  !   

मै तो इनसे मांग रहा हूँ ..................और इस रावण को  दक्षिणा देनें की ताकत केवल इन "वैदेही"  में ही है  ।

सब चुप हो गए  थे .......चक्रवर्ती महाराज भी कुछ न बोल सके थे ।

आप मुझ से माँग सकते हैं    !       मेरे रघुनन्दन नें कहा था ।

राम !  राम ! राम !         ये नाम तीन बार  बोला था  रावण .....फिर हँसा .........नही .............मै जो माँगनें जा रहा हूँ .......वो  तुम भी नही दे सकते  राम !   

वो  तो यही  "जगत जननी" ही दे सकतीं हैं  !

मैं  स्तब्ध थी .........रावण  जैसा  विद्वान,   रावण जैसा  कर्मकाण्डी .....और मै इसे जानती हूँ ......क्यों की मेरे पिता जनक जी का  ये गुरुभाई है .........जनकपुर में आता जाता रहा है  ।

हाँ  अहंकार चरम पर है इसका ..................।

पर आज मुझे ये "जगत जननी" कह रहा था  ।

मेरे पास आया रावण......और धीरे से कहा......मुझे   दक्षिणा में   इतना ही दे दो  कि  मेरी  लंका में अपनें चरण रख दो    हे वैदेही  !   

और इतना ही नही........मेरा उद्धार करो.......फिर हँसा -  मेरा ही  उद्धार नही ..........मेरे सम्पूर्ण कुल का उद्धार करो ..............।

और ये तुम ही कर सकती हो ..........क्यों की माँ में  करुणा होती है ....माँ में   अपनें बालक के प्रति   स्नेह होता है ......।

आप  इस अहंकारी बालक के ऊपर कृपा करोगी.....ये मेरा  विश्वास है ।

आप को मेरी बात माननी ही पड़ेगी ...............आपको मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा ............ये  बातें  कोई और सुन नही पा रहा था ......क्यों की रावण  बहुत धीरे बोल रहा था ............मेरे श्री रघुनन्दन  नें सुना ।

रावण  इतना ही बोलकर  चल दिया .............मै उसे देखती रह गयी  ।

मै क्या कहती ............वो क्या बोल कर गया  मै समझी भी नही  ।

मेरे बगल में  श्रीरघुनन्दन   बिराजें  हैं .........वो जब  मेरे पास रहते हैं ...तब  मै अपनें में रह कहाँ पाती हूँ ....मैं अपनें आपको भूल जाती हूँ ।

रावण !         

( सीता जी  ये सब लिखते हुये  आज  गहरे चिन्तन में चली गयी थीं )

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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