आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - 29 )
अवधनाथ चाहत चलन .....
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
अब रोना है ...........अब बस आँसू बहेँगेँ ..........इन नयनों से ।
ऋषि वाल्मीकि कहते हैं रामायण "करुण रस" है .........ठीक कहते हैं ।
वो तो मेरे पुत्रों को ही ये रामायण गान सिखानें के लिए , रामायण लिख रहे हैं........और उनका कहना है कि विश्व् में मेरी महिमा उजागर होगी इससे ...........मै महिला नही .....मै महिमा हूँ .........ऐसा ऋषि वाल्मीक का कहना है.........हाँ ...........सही में "महिमा" मै ही हूँ ........।
महि यानि धरती .........और धरती ( महि ) जिसकी माँ हो वही तो महिमा है ....उसी की तो "महिमा" है ।
कैसे लिखूँ आगे के चरित्र को ? क्या लिखूँ ?
वह दृष्य, क्या मै इस लेखनी से उतार पाऊँगी .............
अब मुझे जाना होगा अवध..........मेरे प्राण जहाँ हैं मै वहीँ तो हूँ ।
मेरी वो विदाई का करुण प्रसंग ...................।
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स्नान इत्यादि करके निवृत्त हुए .......वस्त्राभूषण धारण करके हम दोनों गए थे माता पिता के पास ...............चरणों में जाकर हम दोनों नें प्रणाम किया था चक्रवर्ती ससुर जी को ................अखण्ड सौभाग्यवती भवः । यही आशीर्वाद दिया था उन्होंने ।
मेरे पिता महाराज विदेह खड़े थे हाथ जोड़े हुए ..........मेरी माता सुनयना आँसू बहाये जा रही थीं ............
श्रीरघुनन्दन नें जाकर मेरे पिता जी को प्रणाम किया .............अपनें हृदय से लगा लिया था .......श्री रघुनन्दन को ।
मुझे ? मै गयी अपनें पिता जी के पास ...............थक गए हैं अब ये .........कई दिनों से सोये नही हैं .............आँखें बता रही हैं .........।
सिया का विवाह ......मेरी लाड़ली का विवाह ........मेरी लली का विवाह अच्छे से होना चाहिए ................लगे रहे थे दिन रात !
मैने पास में जाकर अपनें पिता जी की आँखों में देखा ...........वो नजरें चुरानें लगे थे .........मानों ऐसा नाटक करनें लगे थे जैसे उनकी आँखों में कुछ गिर गया है .............मै समझ गयी थी ............बादल उमड़ रहे हैं .......पानी भर गया है लवालव .............कब बरस पड़ें कोई पता नही ...........और इस विदाई की वेला में .............इस विरह सागर में कितनें डूबेंगे कितनें उबरेंगे पता नही .........।
अब आज्ञा दीजिये ............हम लोग जाना चाहते हैं ..............
इतना क्या कहा चक्रवर्ती सम्राट श्री दशरथ जी नें .........मेरे पिता जी बिलख उठे थे ...............अभी कुछ दिन और रुक जाते .......!
बस इतना ही बोल पाये थे ।
महाराज ! आप तो महाज्ञानी हैं .........बेटी का विवाह करके, विदा करना ही पड़ता है .....यही रीत है ...........।
मै ज्ञानी हूँ ? पर हे चक्रवर्ती महाराज ! मेरा ज्ञान पता नही आज कहाँ चला गया ............अपनी सिया पुत्री को देखकर ही मै सम्भल नही पा रहा हूँ ...............इसको मै विदा करूँ ?
अपनें कलेजे को काट कर न फेंक दूँ ...................
मेरी धड़कन है ये सिया ........ये अगर गयी तो कहीं मेरी धड़कन ही न रुक जाय ।
चक्रवर्ती महाराज नें जैसे तैसे मेरे पिता जी को समझाया ।
पर महल के बाहर भीड़ लग गयी थी मेरे जनकपुर वासियों की ।
मुझे जो आशंका थी वो होंनें ही वाला था ............ऐसे कैसे अपनी लाड़ली को मेरे जनकपुर वाले जानें देते ..........
एक एक बच्चा तक मेरी विदाई में उपस्थित था ........और सब रो रहे थे .......सबके आँखों में आँसू भरे थे ............
नही नही मेरी विदाई का विरह मात्र जनकपुर के नर नारियों को ही था ऐसा नही है .......जनकपुर के पशु पक्षी भी सब व्याकुल हो उठे थे ।
"पिया के देश चली, रुला रुला के सिया"
सब यही गा रहे थे .............
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मेरे महल का एक एक सामान मेरी माँ भिजवा रही थीं ........
रोती जा रही थीं मेरी माँ सुनयना ........और कहारों से कहतीं एक भी वस्तु यहाँ सिया की मत रहनें दो .............
ऐसा क्यों कह रही हो महारानी ! जब उनकी सखियाँ ऐसा कहतीं .....तो मेरी माता की हिलकियाँ छूट पड़तीं ........ याद दिलाती रहेंगीं इसकी वस्तुयें .............इसलिये सब ले जाओ ......।
उस विरह वेदना में कोई तर्क तो होता नही है ना ।
सीते ! सीते ! सीते !
चिल्लानें लगे थे मेरे पाले हुए शुक सारिका .................
दौड़ पड़ी थी मेरी माता ...........
सुवर्ण के पिंजरे में रख कर मुझे ही दे दिया था ............
ये दिन रात यही बोलते रहेंगें और हमें जीनें नही देंगें ...........
मेरी माता की जो दशा थी ..........मै उसे कैसे लिखूँ ?
मेरे पिता जी ! वो तो अपनें में ही नही थे ।
ये मेरी लाड़ली है ................इसका ख्याल रखना ..............
हे रघुनन्दन ! ये बहुत कोमल है ..............इसका ख्याल रखना ।
ये कहते हुए फिर बिलख पड़े थे मेरे पिता जी ।
फिर अपनें आँसुओं को पोंछा था ............लाल आँखें हो गयीं थी मेरे पिता की .....शायद रात भर भी रोये थे .....इस विदा के प्रसंग को सोच कर ......।
हे राम ! तुम ज्ञानियों के साध्य हो .............हे राम ! तुम भक्तों के हृदय में विराजनें वाले भगवान हो ............मेरा ये सौभाग्य है कि तुम्हारे जैसा दामाद मुझे मिला .........मै धन्य हूँ ...........मेरा ये जनकपुर धन्य है ..............आते रहना ...............
ये कहकर अपना कर श्रीरघुनन्दन के मस्तक में रख दिया था मेरे पिता जी नें ।
तभी मेरी तीनों बहनें भी आगयीं थीं......और उनके पति भी ......
उर्मिला के साथ लक्ष्मण , भरत के साथ माण्डवी, और शत्रुघ्न के साथ श्रुतकीर्ति ...........।
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मेरी सखियाँ खड़ी हैं ..............पँक्तिबद्ध खड़ी हैं ..........
जबरदस्ती मुस्कुरा रही हैं ............पर इनकी आँखें भरी हुयी हैं ।
मै जैसे ही इनके पास गयी ......चारुशीला..........
वो तो मुझे देख भी न सकी...........मैने ही उसे जब अपनें हृदय से लगाया .......तो फूट पड़ी.......हिलकियाँ उसकी रुक ही नही रही थीं ।
बस इतना ही बोले जा रही थी ..............अब हम किसे सखी कहेंगें ?
अब हम क्या करेंगीं ? हमें किसके भरोसे छोड़े जा रही हो ?
हम तुम्हारे बिना नही जी सकेंगीं ...........।
तभी आगे आयी "सिद्धि" नामकी मेरी सखी ............
हमें विष दे दो ............सिया बहन ! हमें विष दे दो ...........हम मर जायेंगी ..........पर आपका वियोग ! हम नही सह पाएंगी ।
मेरी सखियों नें वहाँ ऐसा विरह का दृश्य उत्पन्न कर दिया था ।
पर मेरी वह सखी ...प्यारी सखी चन्द्रकला .............
मै स्वयं को सम्भाल नही पा रही थी .......तो इन बाबरियों को क्या सम्भालती.............
मेरी सखी चन्द्रकला आगे आयी ..........उसनें कहा .........हम लोग ऐसे रोयेगीं........तो हमारी बहन को कितना कष्ट होगा ........विचार तो करो........हाँ सहज बात है ये कि हम अंत्यंत दुःख सागर में डूबनें वाले हैं ............क्यों की हमारी जनक सुता इस जनकपुर को छोड़ कर जा रही हैं ...........पर इनके सामनें ज्यादा अपना दुःख मत दिखाओ ............हम प्रेम करती हैं अपनी सिया बहन से ...........इसलिये इनके सामनें नही रोओ .........अकेले में खूब रोयेंगीं ......रोना ......पर जाते हुए विदा करते हुये मत रोओ ...........।
चन्द्रकला ये सब बोल तो रही थी........पर एकाएक रुक गयी ........
सब लोग देखनें लगे थे ............चन्द्रकला को .......
कहना अलग बात होती है ....................मुझे एकटक देखनें लगी थी मेरी चन्द्रकला...........और दौड़ पड़ी मेरे पास ..........मुझे अपनें हृदय से लगा लिया .................फिर तो जो ये रोई है ........।
हे किशोरी जू ! हमें मत भूलना ..........हे सिया जू ! हमें अपनें हृदय में बसाये रखना ................हम भी आपकी यादों को लिए जीती रहेंगीं जैसे तैसे .........ये आप याद रखना कि मेरी सखियाँ जनकपुर में हैं .....जो मेरी यादों के सहारे जीवन को चला रही हैं .....ये बात आप मत भूलना .......हे सिया जू ! हे किशोरी जू !
ये कहते हुए मेरी अष्ट सखियाँ और उनकी भी अष्ट सखियाँ .......अन्य नर नारी ...... सब विलख उठे ।
चक्रवर्ती श्री दशरथ जी इस दृश्य को देख नही सके थे .......गुरु वशिष्ठ जी की भी आँखें गीली हो गयी थीं ..............
( आगे मै आज लिख नही पाऊँगी )
शेष चरित्र कल ..............
Harisharan
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