वैदेही की आत्मकथा - भाग 27

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 27 )

कोहवरहिं आनें कुँवर कुँवरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै....
( रामचरितमानस )

******कल से आगे का चरित्र -

मै वैदेही ! 

उफ़ !  सर्वत्र श्याम की श्यामलता ही समा गयी है ......

सृष्टा श्रीराम हैं  तो सृष्टि भी श्रीराम हैं ........श्रीराम में जगत है  तो जगत में श्रीराम हैं.........प्रेममय पुरुष और प्रेममयी उसकी प्रकृति ......इन दोनों को भला कौन जुदा कर सकता है .......बताओ  ?

मेरे तो तन मन आत्मा हर जगह  बस   प्रियतम ही छा गए हैं  ।

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भाँवरि हो गई थी....

.अग्नि के सामनें हम  युगल नें  फेरे ले लिये थे....फिर तो   मेरी  माँग भरी  मेरे प्राण प्रियतम नें .........हाँ   सिन्दूर........अपनें हाथों से    मेरी माँग में  लाल  सिन्दूर  भर दिया था ..............मेरी आँखें उस समय बन्द हो गयी थीं ........मानों    उस समय मेरी  समाधि ही लग गयी  ..........मै,  "मै" नही थी उस समय  ।

क्या प्रियतम ही काले कज्जल नही है ............जो हमारे नयनों में ही  बस गये हैं...........अब कुछ और कहाँ से समाये  ?

मै सब कुछ भूल गयी थी ...........बस  मेरे अन्तःकरण में  श्रीरघुनन्दन  मात्र थे ............सिर्फ   श्री रघुनन्दन   ।

हम दोनों की  आरती उतारी गयी ................बड़े प्रेम से  सब सखियों नें ....सब  नारियों नें ............सबनें हम दोनों की आरती उतारी  ।

अब  क्या  ?    अब आगे क्या  ? 

अब  मिलन !     अब  मिलन की  रुत आई है .................ये सब किसलिये  ?    ये सारी विवाह की विधि किसके लिए  ?   

कुछ तो कसक हो ..........कुछ तो   व्याकुलता हो  प्रियतम से मिलनें की ........कुछ तो  तड़फ़ हो ..........कुछ बेकली ................

अब हम दोनों दम्पति को लेकर  सखियाँ  चलीं .............कोहवर में ।

कोहवर  ?              मेरे रघुनन्दन नें  थोडा  मुँह बनाया .........

जी !     कुँवर !    ये कोहवर है .................आपकी  परीक्षा यहीं होगी .........मेरी सखी   चन्द्रकला के बोलनें की बारी अब आई थी ..........

मेरी सारी सखियों नें  इसे उकसा दिया था .............तो  आगे बढ़ चढ़ कर बोल रही थी .........।

"वर"  मानें   पता है ना  कुँवर  !   आँखें मटकाके बोल रही थी ।

आहा !  मेरी ओर देखकर मुस्कुराये थे    श्री रघुनन्दन   .....मानों कह रहे हों      मै ब्रह्म हूँ...मुझे पूछ रही हो ! ........मेरी  श्वास से   चारों वेद प्रकट होते हैं ...............।

हाँ हाँ  पता है ....."वर" कहते हैं   श्रेष्ठ को ...................

इस कक्ष में पता चलेगा  कि   आप श्रेष्ठ हो ......या  हमारी बहन श्रेष्ठ हैं  ।

इसलिये कुँवर !   इस का नाम है  'कोहवर".....यानि कौन है  श्रेष्ठ  ? 

 चन्द्रकला के मुख से  ये सब सुनकर ..........सारी सखियाँ हँस पडीं .......मै बार बार  अपनें श्रीरघुनन्दन  के मुखारविन्द को  चुपके से देख लेती थी .....कि कहीं नाराज तो नही होंगें ,   मेरी सखियों की बातें सुनकर.....पर  नही .........मेरे श्रीरघुनन्दन  भी तो  रसिक शेखर हैं  ।

हटो !   अब जानें भी दो कोहवर में !

.........कोहवर  के द्वार पर  पहुँच गए थे  हम दोनों .....पर  चन्द्रकला और चारुशीला  ये सखियाँ  द्वार को रोक कर खड़ी हो गयीं ..............

अब जानें भी दो कोहवर में  ?    मेरे  श्रीरघुनन्दन  नें सखियों से कहा ।

नेग चाहिये ...........कुँवर !  बिना नेग लिए जानें नही देंगीं  .........।

अब सखी !   हम तो  सीधे विवाह मण्डप से यहाँ आये हैं .........हमारे पास तो कुछ है नही ...............

तो खड़े रहिये .................इतना कहकर  चन्द्रकला और  चारुशीला  मुँह मटकाते हुये  द्वार पर ही  खड़ी रहीं ......।

अब  जानें भी दो ना .....................मेरे पास कुछ नही है  ।

मेरे श्रीरघुनन्दन  के चरण दूख  रहे थे ................

मुझ से भी रहा नही गया ...........मुझ से माँगों  क्या चाहिए नेग में ?

इतना क्या कह दिया मैने !............अहह !    हमारी बहन को  आपकी बड़ी चिन्ता लगनी शुरू हो गयी ............पर आज  कुँवर !  हम अपनी बहन की भी नही सुनेगीं ..........हमें तो नेग चाहिए  वह भी तुमसे......तभी इस कोहवर में प्रवेश मिलेगा .........बोलो  ।

अच्छा !     सालियों !   माँगों। क्या चाहिये  ?        

मेरे श्रीरघुनन्दन  नें  हँसते हुए   सखियों  से कहा  ।

आपकी कोई  बहन है  ?      चारुशीला नें पूछा  ।

ये क्या प्रश्न हुआ  ?    मैने  आँखों से मना किया   अपनी सखियों को   .......कोई उल्टा सीधा प्रश्न मत करना ...............।

पर मेरी बातें आज क्यों सुननें लगीं थीं  ये सखियाँ ...............

बताइये कुँवर !    आपकी कोई बहन है  ? 

हाँ है  तो .............मेरे भाई से व्याह करवा दो .................

सारी सखियाँ हँस पडीं ...................।

पर सखी !  मेरी बहन की तो शादी हो गयी .....................

मेरे श्री रघुनन्दन नें कहा  ।

ओह !    अच्छा किसके साथ हुयी ?     सखी नें फिर पूछा ।

श्रृंगी ऋषि  के साथ मेरी बहन शान्ता का विवाह हुआ है  ।

चारुशीला जोर से हँसी ..........बाबा जी के अलावा और कोई नही मिला आपको  अपनी बहन के लिए  ?

श्रीरघुनन्दन चुप हो गए ...।

खड़े खड़े बहुत देर हो गई.......................

तब सारी सखियाँ बोलीं ..............एक काम कर दो .....यही हमारा नेग है .......और हमें कुछ नही चाहिये  ।

हाँ हाँ ...कहो .......क्या चाहिये तुम्हे नेग में  ?

हे कुँवर !    बस एक बार हमारी किशोरी जू के आगे झुक जाओ ।

ये क्या माँग लिया  !      मेरे श्रीरघुनन्दन    भी  कुछ बोलनें की स्थिति में नही रह गए थे ............

अब जल्दी करो ................नही  तो  पूरी रात यहीं  गुजारनी पड़ेगी  ।

सखियाँ  हँसनें लगीं ये कहकर ..........।

तभी   मेरे  श्रीरघुनंदन नें  मुझे    देखा .......बड़े प्रेम से देखा ...........

और   मेरी और बढ़े .......मै लजा गयी ................

 प्रेम भी विचित्र होता है .........समर्पण भी और  हया भी ........जब  समर्पण है  तो लज्जा किस बात की ..............और जब लज्जा ही है  तो  समपर्ण पूरा कहाँ हुआ   ? 

पर  प्रेम  में ये सब सिद्धान्त कहाँ चलते हैं ..................यहाँ तो  कुछ भी करना,    वो सब   प्रेम ही है ...........बस प्रेम  ।

झुके मेरे  श्रीरघुनंदन  मेरी ओर .....................

मेरी सारी सखियाँ  जोर  से बोल उठीं ........पाँव पकड़ो  हमारी सिया जू के .................कुँवर !  झुको ...........ये प्रेम है .....ये प्रेम का पथ है ......इसमें  जो जितना झुकेगा .............वो उतना ही पायेगा .......ये प्रेम है ..........अकड़ वाले प्रेम को कहाँ जान पाते हैं ............वो तो बेचारे अकड़ में ही रीते रह जाते हैं ...............।

प्रेम का उपदेश  मिल रहा था   परब्रह्म श्री राम को   मेरी सखियों के द्वारा ........है ना विचित्र बात ................परब्रह्म को  दरवाजे में खड़ा कर उन्हें उपदेश और दे रही थीं  मेरी ये सखियाँ .......।

मेरे  श्रीरघुनन्दन झुके ........और मेरे पाँव .........उफ़  !

मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा यहाँ  टूट जाती है ........टूटनी भी चाहिए ....प्रेम नगरी में आकर  मर्यादा नही टूटी  तो  प्रेम नगरी ही कैसी ? 

सारी सखियों नें तालियाँ बजाईं ................नेग मिल गया  ।

अब ?    

अब तो जानें दो   कोहवर में  !    मेरे   श्री रघुनन्दन  नें कहा  ।

पर मेरी दुष्ट सखियाँ मेरी तरफ  देखनें लगीं ..............

मेरी तरफ क्यों  देख रही हो  ?     मैने पूछा   ।

नेग तो अब तुम भी दोगी  हमारी प्यारी सखी सिया सुकुमारी ! 

मस्ती भरे अंदाज में सब सखियाँ बोलीं  ।

पर  मै भी इनकी सखी थी .............मै इन सब को जानती हूँ ......

मैने  तुरन्त  अपनें बगल में खड़े  श्री रघुनन्दन का हाथ पकड़ा .......और  अपनी सखियों के हाथों में दे दिया  ।

मेरी सखियाँ  तो  रो गयीं ...................हे सिया जू !    व्यक्ति सब कुछ दे सकता है ........पर  अपना  प्रेम ?       अपना राम  ?     अपनें प्राण .....कौन देता है  ...........आप जितनी उदार हो .......आप जितनी कृपालु हो  इतना कोई नही है .................

मेरी सखियों नें  आनन्दाश्रुओं से हमारे चरण पखार दिए थे  ..........

कितनी प्यारी  और कितनी अच्छी हैं मेरी ये जनकपुर की सखियाँ ।

शेष चरित्र कल ...................

Harisharan

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