वैदेही की आत्मकथा - भाग 2

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 2 )

ताके जुग पद कमल मनावौं...
( रामचरितमानस )

कल से आगे का प्रसंग -

मै वैदेही  !

ये क्या हो गया !

  ओह !    मेरे प्राणधन नें ये क्या किया ?   क्यों किया ?

कितनें प्रश्न हैं मेरे मन में ......कौन देगा इनका उत्तर  ?

कहते हैं  एक धोबी के कहनें से  मुझे छोड़ दिया मेरे "प्राणधन" नें ?

एक धोबी के कहनें से ?    मेरा हृदय नही मानता ...........

मुझ सिया के लिये  जिन श्रीरघुनाथ जी नें  आकाश पाताल एक कर दिया था..........हाँ ........रावण मुझे जब चुराकर ले गया था ......तब मेरे लिये क्या नही किया  मेरे प्राण नें  ।

वानरों को जोड़ा, सागर में पुल बाँधा......रावण  जैसे दुर्दांत  असुर को मार गिराया ...........पर   मै ये क्या सुन रही हूँ  आज   एक धोबी के कहनें से   अपनी प्यारी सिया को छोड़ दिया  !

अरे !      ये क्या   ताल पत्र फिर से भींग गया   ।

हाँ .....कल ही  मुझे  महर्षि वाल्मीकि कह रहे थे ............कि राजा बननें के बाद  उसका  निज जीवन  समाप्त ही हो जाता है ..........।

फिर वह राजा  प्रजा के लिये ही समर्पित होता है...........प्रजा ही उसके लिये सबकुछ है ......सब कुछ  ।

बात मुझे ठीक लगी ये ..............तभी तो  राजा बननें से पहले ......मेरे लिए  क्या नही किया  मेरे प्राण धन नें  ...................

धर्म   के  साक्षात् रूप ही तो हैं  मेरे प्राण  श्री रघुनाथ जी  ........

वही अगर  धर्म का पालन नही करेंगें  तो  फिर  कौन करेगा ?

महर्षि ठीक कहते हैं ..................,  

पर  तार्किक दृष्टि से भले ही ये ठीक लगे .........पर    

मेरा हृदय   फटा जा रहा है ...........ये सोचकर की  वैदेही !  तेरे राम नें तुझे छोड़ दिया  ।

नही ................नही...............ये कैसे हो  सकता है ...........

हा हा हा हा हा हा ..........पगली हूँ मै कुछ भी सोचती रहती हूँ .....

कहाँ छोड़ा है   ?      

क्या  धर्म रूप श्री राम झूठ बोलते हैं   ?   

नही नही ..............श्री राम झूठ कैसे बोलेंगें   !

फिर  पवनसुत के हाथों  भेजा गया  वो सन्देश  क्या झूठ था  ?

कि   हे प्रिया !  तुममें और मुझ में कोई भेद नही है ............हम दोनों एक हैं ..............ये बात तुम जानती ही हो ना  !

हाँ ......प्राण धन  !   मै सब जानती हूँ ..............तुम  कैसे मुझे  छोड़ सकते हो ...............!

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मुझ में सहन शीलता बहुत है ..............हाँ  और सब कहते हैं  ये सहनशीलता  मेरी माँ के कारण मुझ में आई ।

मेरी माता  धरती है ना !    मेरा जन्म धरती से हुआ है  .........

मेरी सखी चन्द्रकला कितनें प्यार से बुलाती थी .....भूमिजा ..।

हाय !       अगर मै भूमि की पुत्री न होती ......तो शायद अभी तक मैने अपनें देह को त्याग दिया होता ............पर    ।

भूमिजा !        ( सीता जी इसे कई बार दोहराती हैं )

पर मुझे  तो विदेहजा,  मैथिली ,  वैदेही,  सीता,  जानकी .........

मेरा जन्म  हुआ था   जनकपुर में ..............विदेहराज जनक की पुत्री होनें का सौभाग्य मुझे मिला  ।

ओह !  वो विदेह राज  जिनके आगे बड़े बड़े योगी   बड़ों से बड़े ज्ञानी तत्व की शिक्षा लेंने आते थे .........वो गद्दी ही थी ......हाँ मेरे पिता की गद्दी ............जो  सिद्ध थी ........उसमें बैठनें वाले ......सब  विदेह ही कहलाये......देहातीत .........सब को "विदेह" उपाधि ही मिल गयी थी.......पर मेरे पिता का नाम तो था  ........श्री शीलध्वज .......जनक ।

उनके जैसा प्रजा वत्सल कौन होगा ?    एक पुत्री का पिता के लिए पक्षपात नही है ये कहना ................

मेरी  मिथिला में  अकाल पड़ गया था ..............कई वर्षों से वर्षा ही नही हुयी थी ...........कहते हैं  मेरे पिता  का हृदय तड़फ़ उठा था ......प्रजा जल के बिना   त्राहि त्राहि कर उठी थी  ।

विदेह राज !     आप  एक यज्ञ कीजिये .........और  उस  यज्ञ की समाप्ति पर  स्वयं   आप और  महारानी सुनयना जी .....हल  चलाइये ...

वर्षा  होगी !

..............वेदज्ञ  शास्त्रज्ञ  ऋषियों की एक मण्डली नें  मेरे पिता  को  सलाह दी   थी  ।

मेरे पिता  नें सिर झुकाकर   उन  पूज्य ऋषियों की बात मान ली थी ।

यज्ञ भी हुआ ............और   हल भी चला रहे  थे  मेरे पिता और मेरी माँ सुनयना .......।

पर    वो हल  एक स्थान पर रुक गया ............ओह !

बड़ा प्रयास करना पड़ा  ...........हल का अग्र भाग   किसी  वस्तु में  अटक गया  था .............

खोदा गया   .........धरती को खोदते गए ..................

और कहते हैं ................एक सुवर्ण का  मोती माणिक्य से जड़ा हुआ ......एक   सन्दुक था .............वो   थोडा खुला हुआ ही था  ......

उसमें  से रोनें की आवाज  आरही थी ......................

कहते हैं ...........उसमें  मै थी .........हाँ  मै भूमिजा  !  

सीता ,  मैथिली.....वैदेही ........जानकी ................

और कहते हैं .............मै कुछ ही पलों में माता सुनयना की गोद में थी ।

ओह ! तभी वर्षा होनें लगी थी.............घन घोर वर्षा............लोग नाच उठे ........और   हाँ ............कहते हैं  उस दिन  मेरे पिता जनक जी  बहुत नाचे थे .........सब नाचे थे ...............पूरी  सृष्टि नाची थी   ।

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वन देवी !  आपको महर्षि वाल्मीकि बुला  रहे हैं .......

एक     आश्रम की  सेविका नें आकर  सीता जी को कहा ................

हाँ ...................अपनी लेखनी रखकर  ताल पत्र को  लपेटकर  सीता जी  गयीं  ऋषि वाल्मीकि  जी के पास  ।

शेष प्रसंग कल ..........

Harisharan

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