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"नाथद्वारा के श्रीनाथ जी"- एक कहानी

आज  के  विचार

("नाथद्वारा के श्रीनाथ जी"- एक कहानी )

हां नाथ रमण प्रेष्ठ, क्वासि क्वासि महाभुजः....
( श्रीमद्भागवत )

मेरा पुत्र  तुम्हारे राज्य में  शरण चाहता है...........मै बड़ी आस लगाकर आया हूँ ........मेरी आस  तुम्हारे उदयपुर में टूट गयी  तो ! 

नही ...नही.....महाराणा !   आपके दरवार में मेरी आस टूटनी नही चाहिये....   गोस्वामी गोविन्द राय नें भरी सभा में आकर ये बात  उदयपुर के महाराणा  राजसिंह से कही थी ।

हे महाराणा !      एक वर्ष  हो गए  मेरे पुत्र को भटकते हुए ............जयपुर तैयार नही है मेरे पुत्र को शरण देनें के लिए.........जोधपुर भी  डरता है ......उन  दुष्ट मुगलों से .........ये कहते हुए काँप रहे थे  गोस्वामी गोविन्द राय  ।

कुछ देर के लिए  वो सभा स्तब्ध रह गयी थी   ।

अपनें बहते हुये आँसू पुनः पोंछें थे   गोस्वामी गोविन्द राय नें .....

मेरे बेटे को   वो औरंगजेब कहता है .....या तो चमत्कार दिखाओ या  मरनें के लिये तैयार हो जाओ  ! 

मेरा छोटा लाला क्या चमत्कार दिखायेगा  !

पर  हे गोस्वामी जी !    आपका लाला ?  आपका कौन पुत्र है ऐसा  जिससे  हिन्दुस्तान  के  बादशाह औरंगजेब को  डर हो !

महाराणा  राजसिंह   के महामन्त्री नें  ये बात पूछी थी  ।

श्री नाथ जी"...............लाला ही तो है  ना  !     बालकृष्ण  ।

उदयपुर के  महामन्त्री  थोडा सा मुस्कुराये ...............फिर बोले ......पर  उदयपुर से पहले ही  औरंगजेब चिढ चुका है ............इसलिये राजनितिक दृष्टि से  हम   श्रीनाथ जी" को अपनें यहाँ  रखकर और  उसके रोष का भाजन नही बनना चाहते  ।

पर ...........गोस्वामी गोविन्द राय    के आँसू अब और बह चले थे ।

महाराणा  राजसिंह  नें  आश्वासन दिया ......आप चिन्ता न करें ...और ये तो हमारा सौभाग्य है   कि  श्रीनाथ जी  हमारे उदयपुर में पधारना चाहते हैं ........महाराणा राजसिंह नें ये बात  सांत्वना के रूप में कही थी ।

पर राजनैतिक दृष्टि से   महामन्त्री ,   औरंगजेब से  दुश्मनी मोल लेनें के पक्ष में नही थे  ..........पर भरी सभा में महाराणा की बात काटी भी नही जा सकती थी   ।

तभी ..........श्रीमान् !       अन्तःपुर से   राजमाता  की दो दासियों नें आकर   महाराणा को प्रणाम किया ............

महाराणा राजसिंह चौंक गए .........आप लोग यहाँ ।

सिर झुकाकर  उन दासियों नें कहा .........राजमाता आरही हैं  ।

क्या  ?      उठकर खड़ा हो गया  था  महाराणा राजसिंह  .......

कभी राजकार्य में  कोई हस्तक्षेप नही किया था  राजमाता नें ....और आज क्या हुआ   !   महाराणा सोच ही रहे  थे   कि  राजमाता वहाँ पर आही गयीं   ।

हे माता !   आपको प्रणाम ......पर यहाँ   राजसभा में आनें का कारण ?

बड़े सम्मान से पूछा था  ...................

राजमाता नें  आकर पहले  गोस्वामी  गोविन्द राय को प्रणाम किया था ।

फिर  महाराणा की ओर देखते हुए बोलीं ..........हे राजसिंह !  तू होता कौन है   त्रिभुवन के स्वामी को  शरण देनें वाला  ?      माता हैं ......कोमल स्वर      पर स्पष्ट और सृदृढ़   बातें ............

वे दयामय श्री नाथ जी .........तुझे शरण देनें आये हैं  ..तुझ पर  कृपा करनें आये हैं ...............

पर बीच में  महामन्त्री बोल उठे ........पर  राजमाता !  ........

राजमाता भला  क्यों   महामन्त्री को अपनें बीच  आने देतीं ..........वो  तो बोलती चली गयीं ..............हे राजसिंह ! ये मत भूलो कि  ये  उदयपुर का सिंहासन  वीरों के लिये ..........कायरों के लिए नही है ।

धन्य माता !   हे  उदयपुर नरेश की जननी ..............हाथ जोड़े थे  गोस्वामी  गोविन्द राय नें   राजमाता के ।

नही .....महाराज ,  मै तो आपके पुत्र की तुच्छ दासी हूँ .....आपके पुत्र   मेरे उदयपुर में रहना चाहते  हैं......तो  ये  इस मेवाड़ का सौभाग्य होगा ...महाराज !       ये शरण नही  ,   आपके पुत्र ....बल्कि  हमारे ऊपर कृपा करनें  यहाँ पधार रहे  हैं  । राजमाता बोले जा रही थीं  ।

राजसिंह !  उठ,    क्या सिंहासन में बैठा हुआ है .............देख जिसका सिंहासन है ......वो त्रिलोकी नाथ स्वयं पधार रहे हैं  ।

हे राजसिंह !  हम लोग तो उसके मात्र सेवक है ....इस बात को समझ ।

राजमाता की बातें सुनकर   तुरन्त सिंहासन से उठ गया था  महाराणा  राजसिंह ............और  राजा स्वयं हाथ जोड़कर  गोस्वामी गोविन्द राय के सन्मुख  ।

माता जी !       महामन्त्री  राजमाता से कुछ कहनें के लिए उठे थे ।

पर ...............राजपूत को राजनीती नही चाहिए  महामन्त्री जी !

जैसे कोई छोटे से बच्चे को  झिड़क देता है ...........ऐसे ही   राजमाता नें  महामन्त्री को कर दिया था  ।

राजनीती को   राजपूत के पैरों के नीचे होना चाहिये ..............और महामन्त्री जी !   आप डरते क्यों हैं  !     क्या उस  यवन औरंगजेब से डरते हैं .........अरे !   त्रिलोक का स्वामी स्वयं  चलकर  आपसे  शरण माँग रहा है ........फिर आपको कैसा डर ?  

राजमाता  और कुछ कहतीं   उससे पहले ही   राजसिंह महाराणा नें कह दिया ............हे गोसाँई जी !  आपके पुत्र का स्वागत है उदय पुर में ।

मेरे ऊपर कृपा करनें के लिए  श्री नाथ जी !  इस उदयपुर की धरती में पधार रहे हैं .............अरे !    त्रिलोक के  धनी को  उदयपुर शरण दे रहा है ...........आहा !    ये क्या है !    ये शरण  लेना है   या कृपा करनें के लिए  ये सब कर रहे हैं आपके पुत्र...........

नेत्रों से भाव के अश्रु बह चले थे  महाराणा राजसिंह के  ।

आप ले आएं .....................श्री नाथ जी का उदयपुर में स्वागत है ।

सभा के सब लोगों नें    स्वागत है ....स्वागत है ....स्वागत है .....एक साथ कहा था ................।

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वि. सं .  1726  में  औरंगजेब नें  मथुरा पर चढ़ाई कर दी थी ।

ओह ! ध्वस्त होगयी थी   ये पावन भूमि .........केशव राय जी के उस विशाल मन्दिर को  तोड़कर  वहाँ  की सारी सम्पत्ती लूट कर ले गए थे  ये  औरंगजेब के लोग  ।

इस सफलता से उनके मुँह में   रक्त लग गया था ............दूसरी ओर भक्तों के हृदय की जो दशा हुयी .....उसका तो  अनुमान भी नही लगाया जा सकता .........टूट से गए थे  भक्त जन  ।

अब भगवान तो भाव के भूखे ठहरे ...........जो जैसे मानता है .....वो वैसा ही बन जाता है ..........श्रीबल्लभाचार्य जी का मार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता है ...........जिसमें बाल भाव की उपासना है ...........नन्हे बाल कृष्ण वात्सल्य के ही पात्र हैं ........वे तो स्नेह और दुलार के पात्र हैं ।

यहाँ  चमत्कार का क्या काम ? ........छोटा सा बालक स्वयं तो माखन खा नही सकता .....भला वो चमत्कार क्या दिखायेगा  ? 

अब बड़ी भारी समस्या आन पड़ी थी ..............श्री नाथ जी  को  उन क्रूर हाथों से कैसे बचाया जाए ...........

वयोवृद्ध  गिरधर राय जी नें ही ये  सम्मति दी थी ........गोविन्द राय जी को  कि .............श्रीनाथ जी को राजस्थान में ही ले जाया जाए  ।

अब बृज का वातावरण  इनके अनुकूल नही रहा ......और लगता है इनकी
अब यहाँ रहनें की इच्छा भी नही है ..........इसलिये राजस्थान  में ही  श्रीनाथ जी को पधराना चाहिये  ।

गोस्वामी गोविन्द राय   श्रीनाथ जी  को  ले कर चले थे .............

गोवर्धन से होते हुए  आगरा पहुँचे ...आगरा से  कोटा , बूंदी, पुष्कर होते हुये  ............पता नही किस किसके भावों को पूरा करते हुए चल रहे थे  ये दयामय  ।

जोधपुर के महाराजा नें स्वागत किया ..............पर  स्थाई रूप से  ठहरने नही दिया .........औरंगजेब से सब डरते थे ..........।

वो औरंगजेब,    दिल्ली का सम्राट  औरंगजेब ........कौन उस क्रूर शासक से   दुश्मनी   लेना चाहेगा  ।

सब डरे हुए थे .......जयपुर के शासक , जोधपुर के शासक ........

बस उस समय आगे आया था .........किसी बात की परवाह किये बगैर ...पूर्ण श्रद्धा से  आगे आया था ....श्री नाथ जी का स्वागत करनें  आगे आया था .........उदय पुर .......मेवाड़ की धरती  ।

स्वागत करनें  स्वयं राजमाता और महाराणा राजसिंह  आगे  आये थे .....

स्वागत किया  श्रीनाथ जी का .........राजमाता तो  श्रीनाथ जी के रथ के आगे नाचीं थीं ...............आरती करते हुये   भाव विभोर होगये थे ....महाराणा राजसिंह जी  ।

पर ये क्या  राजमहल की ओर  बढ़ ही नही रहा  रथ ...........हजारों नरनारियों नें  जोर लगाया ......हाथी नें भी खींचा ....पर नही ।

मेरे पुत्र की यही इच्छा है माता ...........यहीं पर रहेंगें मेरे  श्रीनाथ जी ।

आपके पुत्र की जो इच्छा है   हमारी भी  वही इच्छा है .....हे गोसाइँ जी !

आज से ही श्रीनाथ जी का   विशाल मन्दिर यहीं बनेगा ...........।

राजमाता की आज्ञा से ....मन्दिर निर्माण शुरू हो गया था ........भव्य मन्दिर बनाया गया  था .....एक वर्ष से कम ही समय लगा था ।

फाल्गुन कृष्ण 7 वि. सं. 1728 को  श्रीनाथ जी  विराजमान हुये  नाथद्वारा के उस भव्य मन्दिर में  ।

धन्य हो गयी थी  मेवाड़ की वह धरती..............श्रीनाथ जी के चरण अपनें में पाकर  इतराती रही थी  ये उदयपुर की भूमि  ।

**********************************************************

माँ !   रूपनगर से ये पत्र आया है ........महाराणा राजसिंह  नें अपनी माता से आकर कहा ......और वह पत्र भी दिया  जो  रूप नगर की राजकुमारी नें लिखा था  ।

ये क्या है पुत्र ?     राजमाता नें पूछा था  ।

क्रोध में भरकर बोले थे  राजसिंह .......माँ !  अपनें दादा और  पिता की तरह  राजपूतानी को अपनी पत्नी बनानें का धुन सवार होगया है औरंगजेब को भी  ।

और माँ ! उसनें  उस सुन्दर राजकुमारी को अपनी पत्नी बनानें का निर्णय किया है .........रूप नगर की राजकुमारी को  ।

क्या राजकुमारी तैयार है  ?   राजमाता नें  राजसिंह से पूछा ।

वो तो   कृष्ण को पत्र लिख रही है ........श्रीनाथ जी को उसनें पत्र लिखा है माँ !     जैसे रुक्मणी नें  कृष्ण को लिखा था ....पढ़ो तो  !

राजमाता नें   तुरन्त पत्र पढ़ा ................

हे नाथ !    सबके लिए तुम श्रीनाथ हो .....पर इस रूपनगर की राजकुमारी के  सिर्फ नाथ हो ..............

नाथ !      दिल्ली बादशाह औरंगजेब का फ़रमान आया है ....कि  मै उससे  व्याह करूँ !  

छिः !      ये  पवित्र देह   उस यवन के शरीर को छूएगा .......

मर जाऊँगी मै ........उससे पहले  .......

हे मेरे नाथ !    मै तो तुम्हे मानती हूँ ...........मै बचपन से ही कृष्ण कृष्ण कृष्ण  करती रही हूँ ......तुम्हे तो पता ही है ना ! 

मुझे बचा लो ...........नही  तो  औरगजेब को देखनें से पहले ही मै अपनें प्राणों को त्याग दूंगी ............मुझे शरण में ले लो नाथ  !

पत्र इतना ही था ............राजमाता नें  राजसिंह की ओर देखा ....और मुस्कुराईं ..............श्रीनाथ जी नें क्या शरण ली उदयपुर में ....अब तो सभी शरण लेनें  की बात करनें लगे हैं ......ये  बहुत अच्छी बात है ...।

सबको शरण दो पुत्र .........जो जो माँगें  उसको शरण दो ......

और तो और  औरंगजेब भी अगर शरण माँगे तो उसे भी  ।

लाल मुख मण्डल हो गया था राजमाता का ...........

क्या चिन्ता .....जब स्वयं श्रीनाथ जी  ही   शरण लिए बैठे हैं  उदयपुर में ...........।

जाओ पुत्र ! जाओ .....रूपनगर की राजकुमारी  को मेरी बहु बनाओ ।

एक पवित्र राजकुमारी नें  शरण मांगी है ............और  श्रीनाथ जी की ये इच्छा है  कि    तुम उसे शरण दो .......जाओ !

राजमाता के चरणों में प्रणाम करके  चल दिए   राजसिंह ।

और  एक दिन का भी विलम्ब नही किया था महाराणा राजसिंह नें ।

उस राजकुमारी को उदयपुर की महारानी बना लिया था ।

और हाँ ........ये सब किया था   श्रीनाथ जी की सम्मति से .........उनकी इच्छा से .....उनके ही सामनें ये विवाह हुआ  था  ।

पर    औरंगजेब नें जब सुना  तो आग बबूला हो गया ..........

मैने जिसे  पसन्द किया था  उसे अपनी पत्नी बना लिया  राजसिंह नें ।

आक्रमण करो ...............औरंगजेब नें फ़रमान जारी किया ।

पर  उसी समय औरंगजेब की सेना में  फूट पड़ गयी ................राजपूत    सेनापति थे  उन्होंने स्पष्ट कह दिया औरंगजेब को ....मेवाड़ की धरती  हमारे श्रद्धा का केंद्र है  हम उसपर चढ़ाई नही कर सकते  ।

और राजसिंह नें कुछ गलत नही किया ........आप अगर  राजपूत की बेटियों को इस तरह से देखेंगें  तो  मुँह की खानी पड़ेगी ।

स्पष्ट कह दिया था .......औरंगजेब के सेनापतियों नें   .जयसिंह और यशवन्त सिंह नें   ।

इतना ही नही ...............महाराणा राजसिंह से एक धिक्कार पत्र भी लिखवाया   राजमाता नें  औरंगजेब के लिए  ।

पर इतनें  में ही हार नही माननें वाला था ये औरंगजेब ....अरे ! जिसनें अपनें पिता और अपनें भाई को नही छोड़ा ......वो कैसे छोड़ देता  उदयपुर को .....पर उदयपुर  में  अब रह कौन रहा था.....श्रीनाथ जी ।

औरंगजेब नें    चालाकी करके  जयसिंह को महाराष्ट्र भेज दिया था .......शिवा जी से लड़नें के लिए ......और   यशवन्त को भेज दिया था काबुल अफगान में  ।

माँ !  जोधपुर की माता शरण लेनें आयीं हैं !       राजसिंह नें   अपनी माता से ये बात कही थी ।

अति आनन्दित हो उठीं माता .........राजसिंह !     जब से शरण ली है  श्रीनाथ जी नें उदयपुर में .....तब से सब आरहे हैं  ।

सबको शरण  में ले ले  पुत्र !    सब को शरण दे दे ............राजमाता बहुत खुश हैं ..........।

जोधपुर के राजा को  भेज दिया काबुल ,  औरंगजेब नें .....और वहाँ भेजते ही ..........उन्हें बन्दी बना लिया ...........शायद मार ही दिया  ।

अपनें    पौत्रों को लेकर  राजमाता  आयीं हैं .......उदयपुर  ।

तू शरणदाता का प्रतिनिधि बन गया है पुत्र !    

माँ नें आशीर्वाद दिया  था  राजसिंह को  ।

हँसी थीं  राजमाता ...............उदयपुर से टकरानें चला था वो औरगजेब ............अरे !  जहाँ श्री नाथ जी हों ..........

हिमालय से कोई अपना सिर  टकराएगा .............तो हिमालय का क्या बिगड़नें वाला है .....सिर  ही फूटेगा .......।

औरंगजेब   दुर्भाग्यवश महाराष्ट्र में भीड़ गया था  शिवाजी की सेना से ....

और उन शूरों से भीड़ गया था जिन्हें  समर्थ गुरु राम दास का  वरदहस्त  प्राप्त था ..........।

और मेवाड़ में उलझ गया था  राजसिंह से .........जिसके यहाँ स्वयं श्रीनाथ जी शरण लिए बैठे थे  ..........।

लड़ते हुए   अरावली के जंगलों में चली गयी थी    राजसिंह की सेना ....ये सब  महाराणा प्रताप से ही सीखा था   राजसिंह नें  ।

काफ़िर तो   कायर निकला ...............मुगल सेनापति खुश हुआ ....उदयपुर को खाली कर दिया  इन्हीं लोगों नें ........।

पर ये क्या  ?

अरावली के जंगलों से एकाएक भीलों को हिंसक रूप से निकलते देखा मुगल सेना नें ......जय  श्रीनाथ जी !   सब चिल्ला उठे  थे  ।

भाले ...तलवार .........तीर कमान .....सब थे .......उनके पास ।

ये भीड़ गए ........मुगलों की सेना से ........

राजपूत सेना इसी इन्तजार में थी ........वैसे ही भील भारी पड़ रहे थे ....ऊपर से  राजपूत और आगये ...........काट दिया मुगलों को .....चारों ओर   मुगलों के धड़ और  सिर ही दिखाई दे रहे थे  ।

मुझे शरण दे दो .....मुझे शरण दे दो .........चिल्ला उठा  था मुगल सेना का सेनापति .......।

क्यों की  इन सबको भीलों नें घेर रखा था ...और भील अपनी पे उतर आये तो दया नही करता ............

अब शरण देनें के लिए  महाराणा राजसिंह ही थे .............

सब खतम हो गए थे ....................रूपनगर में आक्रमण करनें वाले  सब मारे जा चुके थे .............उदयपुर में   सब  शरण देंनें की माँग कर रहे थे ......प्रार्थना कर रहे  थे ......।

इतना ही नही.....जब सूचना पहुंची  औरंगजेब के पास ....कि हमारी हार चारों ओर से हो रही है......तो हाँफ गया मुगल शासक औरंगजेब ।

अगर कोई सुलह चाहे तो मै मेवाड़ छोड़ दूँगा ......औरंगजेब नें  कहा ।

दूत आया औरंगजेब का ..........बादशाह  सुलह करना चाहते हैं ......

हम सब शरण चाहते हैं ..................हमको शरण दो  ।

औरंगजेब की  बन्दी मुगल सेना जितनी थी उदयपुर में  .........वो सब  पुकार  उठी ...................।

राजमाता मुस्कुरा रही थीं ........महाराणा  राजसिंह मुस्कुरा रहे थे .....

और तो और  लीला धारी   श्रीनाथ जी मुस्कुरा रहे थे ......ये सब उनका ही तो किया धरा था ..........।

उखड़ गए थे पैर औरंगजेब के ......................

Harisharan

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