आज के विचार
( अद्भुत रामायण )
रामायण सतकोटि अपारा...
( रामचरितमानस )
प्रभु ! देख के !
लक्ष्मण बारम्बार बोले जा रहे थे ............ .पता नही प्रभु को आज क्या हो गया ............।
श्रीविदेह नन्दिनी को वो दसानन जब से हरण करके ले गया ........तब से प्रभु प्रायः विचित्र सी अवस्था में रहनें लगे हैं .....या नाट्य कर रहे हैं ।
लक्ष्मण जी सोचते हैं...............कल तक ये रोते रहे ........चलते समय भी इनके चरण डगमगाते थे .......हा सीते ! हा सीते ! बस इसी पुकार से पूरा वन प्रान्त गूंजता रहता .........वन जीव जन्तु भी तो दुःखी हो जाते थे .......जब प्रभु को ऐसे देखते तो .......।
पर आज क्या हुआ इन्हें ! किसी की ओर इनका ध्यान ही नही है ।
बीहड़ पथ, सघन जंगल, कटीली लताएँ .......बड़े बड़े पाषाण पथ में ....
पर इनकी ओर ध्यान कहाँ था प्रभु का ।
लक्ष्मण तो अपनी दृष्टि गढ़ाये हुये थे ......उन कोमल चरणों पर ।
और जब जब कोई कण्टक गढ़ जाता प्रभु चरणों में .....तब लक्ष्मण कराह उठते थे .........पर प्रभु को आज कोई परवाह न थी ।
जंगल में हाथी प्रभु राम को......प्रणाम करते थे .....अपनी सूँड़ उठाकर ............कपि लोग फल फूल लेकर खड़े थे......भौरे गुनगुन करते हुए.....वातावरण में मादकता फैला रहे थे ।
पर प्रभु आज किसी को नही देख रहे ...........बस चले जा रहे हैं .......मानों किसी से मिलना हो .....आगे कोई प्रतीक्षा कर रहा था !
हाँ ....प्रतीक्षा ही कर रहा है ............और लक्ष्मण ! आज से नही ....उसे 3 वर्ष हो गए ........वो सोया नही है ..........उसनें कुछ खाया नही है ........बस मार्ग में ........मेरी प्रतीक्षा में ही खड़ा है ..........न प्यास , न भूख .......बस पथ में आँखें गढ़ाये खड़ा है ।
ये कहते हुए प्रभु राम के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ।
आज मै उसी से मिलनें जा रहा हूँ ....लक्ष्मण ।
ओह ! फिर तो कोई योगिराज होगा........लक्ष्मण के मन नें कहा ।
प्रभु अन्तर्यामी बोल उठे ......शायद योगिराज से भी ज्यादा ।
चलो ! अब मेरी समझ में तो आगया ना कि प्रभु अपनें किसी प्यारे भक्त से मिलनें जा रहे हैं ......लक्ष्मण जी यही सोच रहे हैं ।
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राम ! राम ! राम !
यह दुष्ट है । काला शरीर है इसका ........लाल आँखें हैं .......रूखे और गैरिक बाल हैं इसके ।
पर्वताकार शरीर है इसका .........इसके आगे बड़े बड़े राक्षसराज भी वन्दन की मुद्रा में ही होते हैं ।
रावण ? अरे ! रावण इसके आगे बालक है .......कुम्भकर्ण इत्यादि इसको "गुरु जी" कहकर सम्बोधित करते हैं ।
लंका में रावण जो रह रहा है ........इसकी कृपा से ही तो रह रहा था ......या कहूँ इसके संरक्षण में ही रह रहा है ।
राम ! राम ! राम ! राम !
बस यही नाम बोले जा रहा है ......तीन वर्ष से ।
नही ...........राम जैसे ही आएगा ..............उसे मै इस पहाड़ से मार दूँगा ............हाँ इस पहाड़ को मै उसके ऊपर फेंक दूँगा ।
बहुत नाम सुना है उसका ..........राम ! सुना है बहुत वीर है .........अभी अभी सुननें में आया है कि खर दूषण को भी उसनें मार दिया ..............इसका मतलब वो बहुत बड़ा वीर है ........खर दूषण कोई साधारण तो नही थे .......।
वो राक्षस फिर एक विशाल पहाड़ को उखाड़ता है.......इसको फेंक दूँगा राम के ऊपर........तब राम चूर्ण बन जाएगा ........।
पर .......वो तो वीर है .......उसका शरीर तो बज्र का होगा ......नही नही ....बज्र से भी कठोर ...............तब ये पहाड़ उसका कुछ नही बिगाड़ पायेगा .............फिर सोच में बैठ गया ।
हाँ ......विष वाला पहाड़ फेंकूँगा राम के ऊपर ...........बस थोडा सा रक्त निकलनें की देरी है ......रक्त के निकलते ही विष उसके शरीर में प्रवेश कर जाएगा ...............तब तो राम ...........।
हा हा हा हा हा हा ...........वो फिर हँसता है .............उसकी हँसी सुनकर चारों दिशाओं में कम्पन हो रहा है ।
कहीं उसके बाणों में इतनी ताकत तो नही कि ......मेरे विष लगें पहाड़ को ही चूर्ण कर दे ...............अरे ! नही .......अगर इस पहाड़ को भी उसनें काट दिया .......तो मेरा ये मुदगर किस काम का ।
मै इस मुदगर से उसके शरीर को तोड़ दूँगा .............
पर उसका शरीर तो बहुत कठोर होगा ...........महाबज्र होगा ।
फिर विचार में पड़ जाता है .............वो राक्षस ।
इस रास्ते को छोड़कर किसी ओर रास्ते भी राम जा सकते हैं ..........ऐसी बातें ये सोच भी नही सकता ।
बस ऐसे ही ये राक्षस उस मार्ग में बैठा रहता है......अपनें अस्त्र शस्त्रों के साथ ..........कैसे मारना है राम को .....सोच बस यही है .......और साथ में चल रही है अपनें शस्त्रों की आलोचना ।
कहीं मल्ल तो नही होगा वो ?
फिर कहता है .....नही.......अयोध्या का राजकुमार ही तो है ना !
हाँ तो मल्ल नही होगा। .........शस्त्र विद्याएँ खूब आती होंगी ......।
अरे तो मल्ल भी होगा तो क्या हुआ ........अपनें ही मन से उलझ पड़ता है कभी कभी ।
ऐसे पकडूँगा .......और मसल दूँगा ............ऐसा कहकर उसनें एक पहाड़ को उखाड़ा ........और चूर्ण बना कर फेंक दिया ।
बस ऐसे ही ये राक्षस .......नित्य मन में राम की मूर्ति बनाता ......फिर उससे लड़ता .........उसे मिटाता.....मसलता .........नष्ट करता ....
पर रात रात में वह डर भी जाता ...............बड़ी विचित्र मूर्ति है ये तो ...नष्ट ही नही होती ........."कहीं राम मायावी तो नही है"
उहूँ ! पर मै भी मायावी हूँ ..............चुटकी में उसकी माया को भी मसल दूँगा ................पर राम ! कब आएगा ?
यही सोचते हुए इसे तीन वर्ष जो हो गए थे ।
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कौन हो तुम ?
आहा ! सुन्दर अत्यंत सुन्दर नवदुर्वादल श्यामल जटा मुकुट धारी, वल्कल धारण किये हुये ..........कन्धे पर धनुष लिए, पीठ पर तुरीण कसे...... एक अद्भुत मानव आज इस राक्षस के सामनें आकर खड़ा हो गया था ...........।
तब आश्चर्य से देखते हुए उसनें पूछा ........कौन हो तुम ?
जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो.....मै वही राम हूँ ........इतना कहते हुए मुस्कुराये थे प्रभु ।
तुम्ही राम हो ? वो तो पागलों की तरह हँसनें लगा ।
नही ....तुम राम नही हो सकते ......तुम कैसे हो जाओगे राम ?
अरे ! राम तो पुष्ट है .....वो तो बज्र के समान देह वाला है .........महाशक्ति शाली है .......उसनें खर दूषण को मारा है ..........पर तुम तो ! फिर हँसा ये राक्षस ..........तुम तो मेरे घुटनों घुटनों तक भी मुश्किल से आरहे हो .........नही नही ....तुम राम नही हो ।
"राम को कभी असत्य छू नही सकता" ये बात दृढ़ता से कही प्रभु नें ।
ओह ! तो तुम सत्य कह रहे हो .......तुम ही हो राम ?
राक्षस को आश्चर्य हो रहा था ...........पर निश्चय भी हो गया था कि यही राम हैं ......इतनी दृढ़ता से झूठ नही बोला जा सकता ।
हे राम ! तुमको पता है .......मै तुम्हे यहाँ मार दूँगा !.............इतना कहकर उसनें एक छोटी सी शिला उठाई ..............और फेंकनें के लिए तैयार हो गया राम के ऊपर ।
पर राम शान्त खड़े रहे ........।
चिल्लाया ..........मै तुझे पीस कर रख दूँगा ...........ले इस पहाड़ को सम्भाल !
पर ये क्या ? राम तो मात्र मुस्कुरा रहे हैं ।
अरे ! तू धनुष क्यों नही निकालता अपना ? राम ! मै तुझे सच में मार रहा हूँ .....अपनें आपको बचा ......तुरिण से बाण निकाल .......
राक्षस चिल्लाया ।............पर राम मुस्कुराते हुए खड़े रहे ।
तुम डरते क्यों नही ? बोलो राम ! तुम डरते क्यों नही हो ?
तुम्हे डर नही हैं ....? बोलो राम ! बोलो !
तुम डरते नही हो .....? राक्षस बारम्बार पूछ रहा था ।
हे राक्षस राज ! मै सज्जनों के डर को दूर करता हूँ .......और दुष्टों को डर देता हूँ ...........मधुर वाणी गूँजी प्रभु राम की ।
ओह ! कितनी मीठी वाणी है ........आहा !
अच्छा ! तुम डरते नही हो ........पर इस दुनिया में सब डरते हैं राम !
राक्षस सोच में पड़ गया ।
इंद्र डरपोक है , विष्णु भी तो डरपोक है .....वो हिरण्याक्ष के डर से भागा भागा फिरा था ।
शिव को भी भस्मासुर नें भयभीत कर दिया था .....और रावण मुझ से भयभीत रहता है .........रावण मुझ से काँपता है ........उसके नाभि में बसी अमृत निकालनें गया था एक बार मै .......तब वह बहुत रोया ....गिड़गिड़ाया ............मैने उसे तब छोड़ दिया था ।
वह राक्षस बस बोले जा रहा है ................तुम डरते नही ? सचमुच किसी से नही डरते तुम ?
पर डरता तो मै भी नही हूँ ........राक्षस नें कहा ।
मन्द मुस्कुराते हुए राम नें पूछा .......सच ! तुम किसी से नही डरते ?
नही .......मै झूठ बोल रहा हूँ .........राम , राम , राम , राम..........
मै डरता हूँ तुम से .................मै तुम्हे मारना चाहता था ...........क्यों की डरता था ....तुम जिन्दा रहोगे तो कभी न कभी मुझे मार ही दोगे.... ...इसलिये मेरी सोच ये थी कि .......तुमको मार दूँगा तो मुझे कोई ताकत मार नही सकती ।
मै इतना बड़ा वीर ........महावीर .............पर डरता है ऐसा वीर !
पर तुम किसी से नही डरते ना राम !
तब तो तुम मुझ से भी बड़े हुए ! ..........मुझ से बड़े ?
सबसे बड़े ...........राम से बड़ा कोई नही !
ऐसा कहते हुए ..........उसनें राम को ऊपर से लेकर नीचे तक एक निगाह भर देखा .........।
वो हाथ की शिला कब छुट गयी थी उसे पता भी नही चला ।
तुम कितनें सुन्दर हो ! तुम कितनें कोमल हो !
ये कहते हुए वो राक्षस तो राम के चरणों के पास ही बैठ गया .....और अपनें हाथों से चरण सहलानें लगा ।
ये चरण ? नही नही .......वो अंदर से ही काँप गया .........
हे राम ! कितनें काँटे हैं इन जंगलों में ............नुकीले पत्थर भी हैं ........वो गढ़ेगें तो ? नेत्रों से अश्रुपात होनें लगे इस राक्षस के ।
वरदान माँगों क्या चाहिए तुम्हे ?
राम की वाणी फिर गूँजी उस जंगल में ।
मुझे क्या चाहिए ? फिर आकाश की ओर देखकर हँसा .......फिर वो राक्षस अपनें आपसे ही पूछनें लगा .....मुझे क्या चाहिए ?
रावण मेरी दया से लंका में रह रहा है ............मै चाहूँ तो ब्रह्मा शिव विष्णु इन सबको इस गुफा में बन्द कर सकता हूँ ।
फिर क्या दोगे मुझे ?
राक्षस ये कहते हुए राम के चरणों को फिर सहलानें लगा ।
फिर कुछ देर बाद बोला ..........सुनो ! यहीं रह जाओ ना ! मै तुम्हारी बहुत सेवा करूँगा .........यहाँ बहुत सुन्दर गुफा है ..........झरनें बहते रहते हैं .............गुफा में विश्राम करना ............झरनों के शीतल जल से स्नान करना ......खरगोश इत्यादि बहुत हैं यहाँ .....उनको ले आऊंगा मै ......उनको खाना ......मधु के छत्ते हैं .....उनका मधु पीना .......।
नही ......हमें जाना पड़ेगा .........राम नें अपनी असमर्थता जताई ।
ओह ! जाना है तुम्हे राम ? तो मै नही रोकूँगा ....तुम जाओ ।
मै तो अब आँखें बन्द करके बैठ जाऊँगा .....................और खोलूंगा ही नही .....खोलूंगा सीधे तब , जब तुम्हारे पास पहुंचूंगा ।
इतना कहकर वो राक्षस तो आँखें बन्दकर के बैठ गया ।
उसके हृदय में, सामने जो प्रकट थी......वही झाँकी प्रकट हो गई ......
नेत्रों से अश्रु गिरे राम के .........वो अश्रु उस राक्षस के सिर में पड़े ।
धन्य हो तुम धन्य हो ................कहते हुए राम प्रभु ने उस राक्षस राज को प्रणाम किया ।
आपसे उसनें कुछ माँगा नही प्रभु ! लक्ष्मण जी नें राम से कहा ।
ये राम स्वयं भिखारी है लक्ष्मण ! सजल नयन से राम बोले थे ।
भक्त से ये राम स्वयं प्रेम प्राप्त करता है .......प्रेमियों को ये राम क्या देगा ......ये तो स्वयं प्रेम का भिखारी है ...........
ये कहते हुए उस राक्षस को मुड़ मुड़कर देख रहे थे राम .......और राम के नयन बह चले थे ।
इस राक्षस का शरीर तो कब का गिर गया .........ये तो राम के धाम में पहुँच भी गया था .............।
उस राक्षस को याद करते हुए आगे के लिए चल पड़े थे राम ।
क्या ये श्री तुलसी दास जी की चौपाई आप लोगों को अच्छी नही लगती ! .........मुझे तो बहुत प्रिय है साहब !
"राम ही केवल प्रेम पियारा"
Harisharan
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