( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र- भाग 8 !!
जयति कुञ्जविभूषण राधिका प्रियतमस्य सदा सुख साधिका..
( श्रीराधिकाष्टक )
( साधकों ! शाश्वत लिखता है ........अपनी कहानियों में .........श्रीनिम्बार्काचार्य जी के बारे में ...........।
श्री निम्बार्काचार्य जी भक्ति के प्रथम "मधुर रस" उपासक हैं .....
और इस "मधुर रस" की उपासना पद्धति, विश्व को इन्हीं नें दी है ।
"मधुर रस" के बारे में .......शाश्वत लिखता है -
"मधुर रस या इसे "श्रृंगाररस" भी कहा जाता है ..........ये प्रेम की पराकाष्ठा है ...........और इसे स्वार्थ और वासना से भरे हुए चित्त अगर नही समझ पाते ......तो ये स्वाभाविक ही है ।
इसलिये इस निम्बार्क सम्प्रदाय में ...........हमारा चित्त उस मधुर रस को ले सके ............इसके लिए कुछ साधनाएं बताई गयीं हैं ....।
शाश्वत लिखता है ............गोपालमन्त्र का जाप ...........शरणागति मन्त्र का जाप ...........गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ ।
और युगल मन्त्र का निरन्तर जाप ।
निम्बार्क सम्प्रदाय में.........6 महिनें , गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान करना............ये आचार्यों का आदेश है ।
इसके बाद चित्त उस "मधुर रस" के लिए तैयार हो जाता है ।
चित्त की कलुषता समाप्त हो जाती है ।
इस निम्बार्क सम्प्रदाय की एक और विशेषता है ......इस अनुष्ठान के बाद ........"महावाणी" नामक एक ग्रन्थ है ...........उसको पढ़नें का अधिकार प्राप्त होता है ...............महावाणी में अष्टयाम सेवा ........और मधुर रस की दिव्यातिदिव्य लीलाएं हैं.......।
शाश्वत आश्चर्य करता है ......बृजभाषा का ये ग्रन्थ है ....महावाणी ।
इसमें सुन्दर सुन्दर पद हैं...............पर माइक में गानें की आज्ञा अभी तक नही है .............और इस महावाणी को श्रीधाम वृन्दावन से बाहर ले जाकर पाठ करनें का अधिकार भी नही है ........।
हाँ कोई उस स्थिति का हो......अधिकारी हो .........तो अलग बात है ।
जैसे गोरखपुर में बैठे श्रीराधाबाबा जी इस महावाणी का पाठ करते थे ।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्धार जी तो स्वयं श्री निम्बार्क सम्प्रदाय के ही थे ........राजस्थान में "चिढ़ावा" नामक एक स्थान है ......वहाँ के निम्बार्की सिद्ध सन्त श्री राधिका दास जी से उन्होनें कण्ठी ली थी ।
पोद्धार जी भी महावाणी का पाठ करते थे ।
शाश्वत लिखता है .........मैने उस महावाणी को पढ़ा है ..........दिव्य रस है उसमें......श्री निम्बार्काचार्य जी से 32 वीं परम्परा में एक सिद्ध महापुरुष हुए .....श्री हरिव्यास देवाचार्य जी.....उन्होंने इसे लिखा है
अस्तु ।
शाश्वत आगे लिखता है ............
"इस मधुर रस में अपना सुख , अपनी तृप्ति, अपना सम्मान ......कुछ है ही नही । यहाँ तो सब कुछ सौंप देना है ......।
श्रंगार इसलिये कि वे देखकर प्रसन्न हों , भोजन इसलिये की ....ये देह उनका दिया हुआ है ........हमें इसे ठीक रखना है ।
उनका सुख, उनका आनन्द , उनका आल्हाद ......अपनेंपन का इतना उत्सर्ग की .........अपनी सत्ता ही समाप्त .......बस तू ।
इस मधुर रस में हम इतनें डूब गए ........कि एक ही हो गए ।
उनका आभास अपनें में ही होंनें लगा .........ओह !
पर इसके बाद कुछ लिखा नही जा सकता .......क्यों की वो सिर्फ अनुभव का विषय है .........शब्दातीत है ।
महाभाव की साक्षात् मूर्ति श्री राधारानी इस निम्बार्क सम्प्रदाय की प्राण हैं .........उनका स्मरण करना ......।
अब आगे का चरित्र पढ़िए.....कल से आगे का -
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आगे का चरित्र -
श्री निम्बार्क प्रभु जब द्वारिका से बद्रीनाथ जा रहे थे ....तब नैमिषारण्य में भी गए ..............
शौनक इत्यादि अट्ठासी हजार ऋषियों नें.......श्री निम्बार्क प्रभु को सुदर्शन चक्रावतार के रूप में ....अपनें सामनें पाकर गदगद् हो गए थे ।
हे सुदर्शन चक्र के अवतार श्री निम्बार्क ! समस्त ऋषियों की एक प्रार्थना है ......अगर आप कहें तो मै उस प्रार्थना को निवेदित करना चाहता हूँ .....ऋषि शौनक जी नें निम्बार्क प्रभु से कहा था ।
मुस्कुराते हुए ......निम्बार्क प्रभु नें कहा ........हाँ अवश्य कहिये !
हे निम्बार्क ! ये सब ऋषि आपके सुदर्शन चक्र का रूप देखना चाहते हैं ..........अगर आप हमें दर्शन कराएं तो ।
शौनक जी नें प्रार्थना की .............।
तभी देखते ही देखते ......चक्र तीर्थ नैमिष में ............श्री निम्बार्क प्रभु सुदर्शन चक्र के रूप में प्रकट हो गए ।
तेज़ इतना था ......प्रकाश इतना था ......कि समस्त ऋषि उस रूप को देख भी नही पाये ..........शौनक जी उस दिव्य रूप का दर्शन करके आनन्दित हो गए थे ....और उन्होनें बड़ी ही श्रद्धा से स्तुति की थी ।
वहाँ गौरमुख नामके ऋषि थे ....उनको वैष्णवी दीक्षा देकर श्री निम्बार्क प्रभु बद्रीनाथ के लिए आगे चल दिए ।
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बद्रीनाथ पहुँच कर....नर नारायण भगवान नें प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिये ।
अलकनन्दा में नित्य स्नान करते थे श्री निम्बार्क प्रभु ।
एक दिन .......रात्रि की वेला थी.......ध्यान में लीन थे कि तभी .....
सामनें श्री कृष्ण भगवान प्रकट हो गए ......ऐसा निम्बार्क प्रभु को लगा ।
उन्होंने तुरन्त उठकर.......प्रणाम किया ........और कहा ....हे भगवन् ! मै आपके दर्शन करके धन्य हो गया ।
तब आवाज आई ..........नही ! हे निम्बार्क ! मै श्री कृष्ण नही हूँ .....मै तो उनका सखा उद्धव हूँ .............
उद्धव जी ! श्री निम्बार्क प्रभु आनन्दित हो उठे थे ।
हाँ ............हे निम्बार्क ! मै तो यहाँ इसलिये हूँ .......कि भगवान श्री कृष्ण नें मुझे आज्ञा दी थी ........पर दूसरे रूप से मै....... इतना कहकर चुप हो गए थे श्री उद्धव जी ।
कहाँ हैं आप दूसरे रूप में ? .......निम्बार्क प्रभु नें पूछा ।
मै दूसरे रूप में ............. बृज भूमि में रहता हूँ .......श्री गिरिराज जी की तलहटी में ...........।
आहा ! जैसे ही श्री बृज और गिरिराज जी का नाम लिया उद्धव जी नें... श्री निम्बार्क प्रभु को रोमांच हो गया था ............
फिर कुछ देर में उद्धव जी नें कहा .......आप कहाँ भटक रहे हैं .........हे निम्बार्क ! आप तो उसी बृज में जाइए ......और वहीँ गिरिराज जी में ही वास कीजिये.....।
उद्धव जी रुक रुक कर बोल रहे थे ..........हे निम्बार्क ! आप ऐसा मत सोचना कि ......मै उद्धव अपनें मन से ये सब कह रहा हूँ ..........नही .....मुझे श्री कृष्ण नें ही ये आज्ञा दी थी ..........मै आपको अब वहीं गिरिराज जी में ही वास करनें की बात कहूँ .......।
सच कह रहा हूँ ..........मेरा मन तो श्री वृन्दावन के सिवाय कहीं नही लगता .....हे निम्बार्क ! श्री वृन्दावन का हृदय हैं गोवर्धन ।
श्री वृन्दावन क्षेत्र के अंदर गिरिराज जी , यमुना जी ..ये सब आते हैं ।
श्री निम्बार्क प्रभु नें उद्धव जी का हाथ पकडा ....और बड़े प्रेम से उन्हें सामनें की एक शिला में बैठाया .....स्वयं नीचे बैठे ।
परमधाम जब जा रहे थे ......श्री कृष्ण चन्द्र जू ....तब आपको क्या कहा था ?
इस प्रसंग को सुनना चाहते थे और वो भी उद्धव जी के ही मुखारविन्द से ।
श्री निम्बार्क प्रभु के इस प्रश्न पर उद्धव जी कुछ क्षण के लिए रुक गए ।
फिर बोले ......ज्ञान की बातें बहुत कहीं .......वो आप जानते ही हैं ।
पर अंतिम में मुझे बोले थे .........तुम बद्रीनाथ जाओ .....उद्धव ! तुम बद्रीनाथ जाओ ।
मै रो पड़ा था ...........आज्ञा थी ....इसलिये मै चरणों में वन्दन करके जैसे ही जानें लगा ........तब हे निम्बार्क ! मेरा हाथ पकड़ा श्री कृष्ण नें ...........और मुझ से कहा ......सुनो ! बद्रीनाथ जाते समय ....मेरे वृन्दावन भी होते जाना ! इतना कहते हुए ....उनके नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे थे ।
उद्धव ! मुझे पता है .....मेरी श्री राधा .....मेरे ग्वाल सखा .....गोपियाँ .....सब मेरे इस धरा धाम को छोड़ते ही .........मेरे साथ ही वो सब भी नित्य निकुञ्ज में चली आयेंगीं ।
पर उद्धव ! वहाँ की माटी को अपनें माथे से लगाना .......उद्धव ! सब कहते हैं तू मेरा रूप है ........मेरे जैसा लगता है .........इसलिये मै तुझे वहाँ भेज रहा हूँ ............जाना !
हे निम्बार्क ! उस समय मै श्री कृष्ण के चरणों में अपनें मस्तक को रख कर बहुत रोया था ...........मेरे साथ श्री कृष्ण भी रोये थे ।
इतना कहते हुए .......अपनें आँसू पोंछे उद्धव जी नें .........ये सब उनकी लीला है ......वो लीला धारी हैं ......उनके लिए क्या दुःख क्या सुख ! क्या संयोग और क्या वियोग ! वो भूमानन्द हैं ..........।
तुम जाओ ! निम्बार्क ! श्री धाम वृन्दावन जाओ ...वहीँ श्री गिरिराज जी की तलहटी में .....जहाँ तुम्हारे माता पिता ऋषि अरुण और माँ जयंती इन्तजार कर रहे हैं ......जाओ वहाँ ।
इतना कहकर उद्धव जी अंतर्ध्यान हो गए ........
निम्बार्क प्रभु नें प्रणाम किया ......और प्रातः काल में ही स्नानादि करके ........नर नारायण भगवान के दर्शन करके ..........श्री धाम वृन्दावन के लिए निकल गए थे ।
शेष चर्चा कल ............
Harisharan
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🙏🙏
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