!! श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र - भाग 7 !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र - भाग 7 !!

जयति सततमाद्यम्  राधिका कृष्ण युग्मम्....
( श्री औदुम्बराचार्य )

( साधकों !       भला हो गौरांगी का ......कि शाश्वत से उसनें मेरी कल बात करा दी ..........वो मोबाइल नही रखता ..........उससे सम्पर्क का कोई साधन नही है .........मैने दो दिन पहले .... जब मेरी  गौरांगी से बातें हुयी थीं.....तब मैने उससे कहा था .......कहीं मिले  शाश्वत   तो उससे मेरी बात करा देना ........।

उसे मिल गया ......श्री राधा बल्लभ जी में  ।

गौरांगी ने बताया मुझे .......फोन लगाकर    उसके हाथ में दे दिया था ।

कौन है  ?   पूछा था शाश्वत नें ।   ......हरि जी  !    बात करो  ।  

साधकों !     उसकी स्थिति  बहुत ऊँची है ......मैने उससे  पहला प्रश्न किया था ........तुम कहाँ थे  ?  

बरसानें की पहाड़ियों में था .....उसनें उत्तर दिया  ।

आप कैसे हो ?    मुझ से पूछा  उसनें ।

मै ठीक हूँ ..............और सुनो  यार !   कुछ पूछना था मुझे ।

शाश्वत को मोबाइल में ज्यादा बातें करना पसन्द नही है  ।

हाँ पूछो ।

शाश्वत !    ये श्री निम्बार्काचार्य चरित्र जो तुमनें लिखा है...ये इतिहास है.....या तुम्हारी कल्पना  ?         क्यों की शाश्वत !   कई लोग मुझ से कह रहे हैं .........ऐसा नही है......ऐसा नही  है ...........।

शाश्वत दो टूक बोला .......उनसे कह दो ..........न पढ़ें  ।

ये क्या बात हुयी ..............मैने  शाश्वत से कहा  ।

और क्या !      देखो !     हमारे   सनातन धर्म नें इतिहास को  लिखना नही जाना है ...........हमारे यहाँ  इतिहास लिखे भी नही गए हैं .......हमारे यहाँ काव्य लिखे गए हैं .....हमारे यहाँ   शास्त्र लिखे गए हैं ..हमारे यहाँ पुराण लिखे गए हैं ...........शाश्वत  कितना सटीक बोलता है ...........बताओ  !     ये  कुछेक सौ वर्ष पहले  के  पाश्चात्य से प्रभावित हुये  लोगों नें  इतिहास लिखना शुरू किया है ......और  इनके कारण ही  हमारे इतिहास की दुर्दशा हुयी है  ।

हमारी सोच है ......."सम्भवामि युगे युगे"   वो हर युग में आएगा .....आता है .......जब जब आवश्यकता पढ़ती है  वो आता रहेगा ।

पर उनके पाश्चात्य  में ऐसा नही है......उनका क्राइष्ट  एक बार आया......बस ...........इसलिये उनको  इतिहास  एग्जेक्ट चाहिए। ....और उनके यहाँ  यही एक हुये ..........इसलिये इतिहास लिखना उनके यहाँ  शुरू हुआ ।

हमारे यहाँ .......हमारी  सनातन फिलॉसफी में ............वो आस्तित्व  नाना रूपों में  आता रहता है .........कभी  राम , कभी कृष्ण , कभी बुद्ध  कभी  शंकराचार्य ..........शाश्वत जोर देकर कहता है ......श्री कृष्ण नें गीता में कहा है .....ये  जितने  आचार्य हैं .....ये सब मेरा ही रूप है ।

तो बताओ ....कभी वो आस्तित्व शंकराचार्य के रूप में आता है....कभी  निम्बार्काचार्य के रूप में ....कभी रामानुजाचार्य के रूप में ........कभी भक्तों के रूप में ............तो  हरि जी !  बताइये .........हम क्यों लिखे इतिहास ? ......हम तो  काव्य लिखेंगें   .......उनके सिद्धान्त लिखेंगें ......वो कितनें सम्वत् में  पैदा हुए .......और कितनें सम्वत् में परमधाम गए .........इसपर  हम लोग ज्यादा विचार नही करते ........और कोई  आध्यात्मिक  लाभ भी नही है  विशेष इससे ........बताओ  है क्या ?

मैने कहा .......शाश्वत ! ठीक कह रहे हो तुम !    

लो फोन ......... उसनें गौरांगी को फोन पकड़ा दिया ।

फोन कट गया .......

मै सोच रहा था ...........इतनी गहरी दृष्टि इसको कहाँ से मिली ।

सही कहा  शाश्वत नें .......हमारे यहाँ  इतिहास नही लिखे गए.......शास्त्र लिखे गए .....पुराण लिखे गए ..........काव्य लिखे गए  .....उपनिषद् लिखे गए ...........हाँ .....ये मानव जाति को ज्यादा जरूरी थे  ।

सम्वत् को याद रखनें की  या उसे लिखनें की आदत हम लोगों में नही थी .......और सही भी  है ................।

श्रीनिम्बार्काचार्य जी के बारे में  कई भ्रांतियाँ फैलाई गयीं  आधुनिक इतिहासकारों नें ..............किसी नें लिखा   ये   रामानुजाचार्य के बाद हुए ............किसी नें लिखा    ये  पाँच हजार वर्ष पहले  हुए ।

जो भी हो ....शाश्वत इन झंझटों में नही पड़ता....वो  सार सार लेता है ।

हम भी सारग्राही बनें.........साधकों ! आप लोग समझ रहे हैं ना ?

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आगे का प्रसंग ...................

श्रीनिम्बार्क प्रभु   नारायण सरोवर से होते हुए    द्वारिका पहुँचे थे ।

उनके साथ कई शिष्यों की मण्डली भी अब चलनें लगी थी  ।

"गोपी तालाब" के पास में ही उन्होंने  अपना  आसन लगाया था ।

ध्यान में बैठ गए  थे  श्री निम्बार्क प्रभु  ।

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श्री राधा हैं  ये !

.............हमारे प्राणेश्वर की प्रेयसि  ।

इसी गोपी तालाब के पास ही कुटिया बना दी थी  श्रीकृष्ण  नें .....और श्री राधा अपनी सखियों के साथ कुछ दिन के लिए  यहीं रह रही थीं ।

अपनें साथ  रुक्मणी,   अन्य रानियों को भी ले आयीं थीं ..........रुक्मणी की भेंट तो कुरुक्षेत्र में हो ही गयी थी श्री राधा से . .......पर ये सब रानियाँ  नही मिलीं थीं......आज   जब श्रीराधा रानी द्वारिका में आयीं हैं ....ये सुना, तो सुबह से ही  रुक्मणी को जिद्द कर बैठीं .....हमें भी मिलाओ न ।

रुक्मणी नें  श्रीकृष्ण से कहा था ..............आप चलिये !

नही .....तुम लोग जाओ ..........मिल के आजाओ  ।

इतना कहकर श्री कृष्ण फिर अपना  राजकाज करनें लगे थे ।

ये हैं श्री राधा.....

..........एक अत्यंत सुन्दरी  खड़ी हैं  कुटीर के पास ..........तब  सत्यभामा नें    जाम्बवती से कहा ।

नही  ये श्री राधा नही हैं ........ये ललिता सखी हैं .............श्री राधा की प्रिय सखी  ।  रुक्मणी नें  सत्यभामा को बताया ।

ओह !  इतनी सुन्दर !........हम तो  इनके   पैर की धूल भी नही हैं ।

रुक्मणी  सत्यभामा के इस बात पर कुछ नही बोलीं थीं ।

चलो !   मै मिलाती हूँ ............तुम लोगों को  श्री राधा से ।

ये कहते हुए  रुक्मणी उस अत्यंत सुन्दरी ललिता सखी के पास गयीं ।

श्री राधा से मिलनें आयीं हैं ये सब.....रुक्मणी नें ललिता सखी से कहा ।

अभी भावावस्था में हैं    श्रीजी........हे कृष्ण पत्नियों !  कुछ क्षण के लिए रुक जाओ ।

ललिता सखी नें  रुक्मणी और अन्य रानियों से कहा ।

नही .............हमें अभी मिलनें दीजिये  ।

हम  बहुत आस लेकर आई हैं ......हमसे  प्रतीक्षा नही होगी  ......।

ठीक है चलिये....कुछ सोच कर रानियों को लेकर चलीं....ललिता सखी ।

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हरि जी ! 

  ले  गौरांगी का फोन फिर आगया ........

मैने  लिखना बन्द किया .......और फोन उठाया  ।

पता है हरि जी !   श्रीनिम्बार्क मत में ...............ये बताया गया है कि ब्रह्म रस है .........गौरांगी  उत्साहित होकर मुझे बतानें लगी  थी ।

और वह रस  श्री राधा कृष्ण के रूप में  दिखाई देता है ।

एक गौर वर्ण है ...और एक श्याम वर्ण है .........।

और हरि जी !    पता है आपको .......अरे !  मै भी पागल हूँ .....आपको क्यों नही पता होगा ....।

हरि जी !    श्रीनिम्बार्क मत में  ये बताया है .......कि निकुञ्ज में  ये "रस  तत्व"  सदैव विराजमान हैं ......फिर अवतार जब लेते हैं  ......तब ये सब  लीलायें   होती है ........कि कभी मिलन हो रहा है  श्री राधा का कृष्ण के साथ,   तो कभी वियोग हो रहा है  ।

ये लीला है ..........पर   निकुञ्ज में  ये दोनों  मिले ही  रहते हैं ........तब भी   जब अवतार लेकर आते हैं ..।

गौरांगी को ये सब कहते हुए  आनन्द आरहा था ।

ये अलग नही हैं .....ये दो लगते हैं  राधा और कृष्ण .......पर हैं एक ही ।

निकुञ्ज में सखियाँ  इनकी सेवा में रहती हैं .......वहाँ नित्य उत्सव चलते रहते हैं .......वहाँ  रस तत्व उछलता है .....वहाँ आनन्द बरसता है ।

श्री राधा और कृष्ण  दो नही एक हैं.......लगते दो हैं ....पर हैं एक  ।

यही तो है शायद द्वैताद्वैत !   है ना हरि जी ?  

फिर गौरांगी हँसती है ............और फोन रख देती है  ।

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आइये !   

ललिता सखी  कृष्ण पत्नियों को  लेकर  श्री राधा जी के पास आई हैं ।

अरे !  क्या हुआ  ?    बोलो ना !    प्यारे !  क्यों नही बोल रहे ।

श्री राधा,   चिन्तन में  ऐसे ही कुछ बोलनें लगी थीं  ।

सत्यभामा  और अन्य रानियाँ तो   श्री राधा जी की ओर देख भी नही सकीं ........उनका तेज़ ही इतना था  ।

ललिता !  देखो ना .....प्यारे !   चुप हो गए हैं ......बोल ही नही रहे ।

ये श्री कृष्ण पत्नियां आई हैं .......ललिता सखी नें  श्री राधा से कहा ।

ओह !  तभी तुम नही बोल रहे हो  !

श्री राधा नें मुस्कुराते हुए कहा  ।

आप को  श्री कृष्ण मिले नही .....इस बात का कष्ट तो होता ही होगा न ?

सत्यभामा  नें ये प्रश्न किया था  श्री राधा से ।

श्री राधा रानी हँसी ......खूब हँसी ...............

उनकी हँसी इतनी सुन्दर थी कि ..........द्वारिका की प्रकृति  आनन्दित हो उठी थी ...............।

मुझे श्रीकृष्ण नही मिले ?    

अरे ! मुझे श्री कृष्ण के अलावा और कुछ मिला ही नही है ।

श्री राधा  ये कहकर आनन्दित हो रही थीं ।

फिर बोलीं .........वो सदैव मेरे साथ हैं ...........अभी मेरे ही साथ हैं ....हम बातें कर रहे थे  ।

कहाँ हैं .......बताइये  श्रीराधे !    कहाँ हैं श्री कृष्ण ?

रुक्मणी मौन बैठी रहीं .........क्यों की श्री राधा की महिमा को ये कुरुक्षेत्र में देख चुकीं थीं    ।

पर सत्यभामा नें  पूछा था ......कहाँ हैं  श्री कृष्ण  ?

तब श्री राधा रानी  आँखें बन्दकर बैठ गयीं ..............

देखते ही देखते ........एक दिव्य प्रकाश छा गया उस कुटिर  में ....

किसी को कुछ नही दिखाई दे रहा था ............

तभी  वो प्रकाश छंटा .....और एक दिव्य  सिंहासन दिखाई दिया ...

उस सिंहासन में ........श्री राधा रानी  वाम भाग में हैं ........

श्री कृष्ण चन्द्र जू  दाहिनी ओर विराजमान हैं ........

हजारों सखियाँ   सेवा में जुटी हुयी हैं .............कोई चँवर ढुरा रही है .....कोई जल ला रही है .....कोई माला पहना रही है ।

बाँसुरी धारण किये हुए हैं  श्री कृष्ण ....और  ..श्री राधा के  दाहिनें हाथों में कमल है.....बायां हाथ  श्री कृष्ण के कन्धे में है  ।

जय हो ....जय हो ....जय हो ........करते हुए    रुक्मणी इत्यादि रानियाँ प्रणाम करनें लगीं थीं ..........युगल वर को ।

तभी  वह दिव्य झाँकी अंतर्ध्यान हो गयी.......और श्री राधा रानी की मधुर आवाज गूँजी.....हम दोनों एक ही हैं......हम दोनों  अलग नही हैं ।

सत्यभामा   बोलना चाह रहीं थीं   ....पर क्या बोलें   ।

श्री कृष्ण पत्नियां  समझ गयीं थीं कि...ये दोनों एक ही हैं....दो लगते हैं ।

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श्री निम्बार्क प्रभु  ....... ध्यान में  झाँकी का दर्शन करते हैं............

उस लीला का दर्शन करते हैं .........।

फिर  गोपी तालाब में स्नान करते हुए ........वहाँ के रज की महिमा का गान करते हैं .....गोपी चन्दन का माहात्म्य अपनें शिष्यों को सुनाते हैं .......गोपियां  इसी तालाब में नहायी थीं .......।

चक्र और शंख के  छाप की परम्परा भी  द्वारिका में  श्री निम्बार्काचार्य जी के द्वारा ही चलाई गयी है ............

पर  श्री निम्बार्काचार्य जी नें  तप्त छाप की अपेक्षा  शीतल छाप  गोपी चन्दन के द्वारा ही शिष्यों  को लगानें की प्रेरणा देकर ............

द्वारिका की भूमि को प्रणाम करते हुए ,बद्रीनाथधाम के लिए चल दिए थे ।

शेष चर्चा कल ............

Harisharan

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