( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीशंकराचार्य चरित्र - भाग 3 !!
का ते कांता कस्ते पुत्रः संसारो यमतीव विचित्र ...
( मोह मुदगर )
( साधकों ! "शाश्वत की कहानियाँ" अपनें इतिहास को गौरवान्वित होकर पढ़नें का विषय है .........।
बौद्ध धर्म गलत नही है ...कोई गलत नही है .....गलत होता है तब .... जब इन सब में पाखण्ड का प्रवेश हो जाता है ।
और मूल सनातन को हम गाली देना शुरू कर देते हैं ।
इतिहास साक्षी है .......सनातन धर्म नें बहुत आघात सहे हैं .......पर इतनें आघात सहनें के बाद भी ये सनातन धर्म आज भी उसी ठसक से खड़ा है ...........क्यों की समग्र को स्वीकार करता है सनातन ।
शाश्वत कितनी सटीक टिप्पणी करता है ..........."ईसाई धर्म में अगर ईसा कभी हुए ही नही थे ये सिद्ध होजाये ...तो ईसाई धर्म खत्म हो जाएगा .........मुस्लिम धर्म में मोहम्मद हुए ही नही थे .....ये मात्र प्रतीक रूप से इनका वर्णन है ....ऐसा कहा जाए ....तो मुस्लिम धर्म टिकेगा ही नही ......ऐसे ही बौद्ध धर्म में बुद्ध नही हुए थे .....तो क्या बौद्ध धर्म टिकेगा ?
पर हिन्दू धर्म में ?
राम नही हुए थे .....ये मात्र पौराणिक पात्र हैं ..........कृष्ण नही हुए थे ये मात्र एक प्रतीक हैं ...............ऐसा भी अगर कोई सिद्ध कर दे ....तो भी हिन्दू धर्म में कोई फर्क नही पड़ेगा ...........।
क्यों की ये सनातन हिन्दू धर्म ईसाई या मुस्लिम की तरह एक व्यक्ति विशेष पर नही टिका है .......ये तो समस्त को स्वीकार करता है ।
सबके अंदर वही है ......सब वही हैं ............उसके अलावा और कुछ है ही नही ........और जो भी उसके अलावा दीख रहा है ....वो झूठ है ।
श्री शंकराचार्य के चरित्र को लिखते हुए शाश्वत कहता है ..........
ये एक अद्भुत योद्धा थे आचार्य शंकर ................जिन्होनें अपनें सनातन धर्म की रक्षा के लिये ........युद्ध किया .........भले ही वो वाक् युद्ध हो ...........जिसे शास्त्रार्थ कहा जाता है ।
वो युग शास्त्रार्थ का था......हार जीत का शास्त्रार्थ से ही निर्णय होता था........अद्भुत मेधा सम्पन्न थे आचार्य शंकर ।
इन्होनें शाक्त लोगों से शास्त्रार्थ किया .......ये लोग वाम मार्गी थे ।
इन्हीं लोगों की क्रूरता, बली प्रथा के कारण ही आम जन मानस सनातन धर्म से दूर जा रहा था ......और इन आम जन मानस को आधार मिल रहा था बौद्ध धर्मानुरागियों का .......जिनके बौद्ध विहार शान्त थे ..........और हमारे मन्दिर में रक्त का स्नान कराया जाता था भगवती को .......बली चढ़ाई जाती थी .......पशु ही नही .....नर बली भी ।
शाश्वत लिखता है ........ऐसे समय काल में आचार्य शंकर नें सनातन धर्म की ....... धर्म ध्वजा फहराई ।
कर्मकाण्ड को पूर्वमीमांसा कहा जाता है ..............कर्मकाण्ड का प्रभाव व्याप्त था ............उसको भी कम करना आवश्यक था ........
और उस समय पूर्वमीमांसा के अद्भुत विद्वान् थे मण्डन मिश्र ।
इनका शास्त्रार्थ जग प्रसिद्ध है ..................और इनकी पत्नी उभय भारती का भी .................।
शाश्वत विशेष प्रभावित है आचार्य शंकर से ...............
और क्यों न हो ? सनातन धर्म का जो प्रेमी है .....वो आचार्य को नमन करेगा ही ...........इन्होनें कार्य ही ऐसा किया है ।
*******************************************************
कल से आगे का चरित्र ....................
पूर्वमीमांसा के उद्भट विद्वान् हैं ...........मण्डन मिश्र !
( कई लोग मण्डन मिश्र को मिथिला का भी बताते हैं ..और कई लोग नर्मदा के किनारे ओंकारेश्वर का भी बताते हैं .... .......शाश्वत नें नर्मदा का किनारा लिखा है .....और ओमकारेश्वर के पास में बताया है ..मण्डन मिश्र का घर ......पर मैने मिथिला में सुना था की मण्डन मिश्र मिथिला के थे .....पर मै इन विवादों से अपनें आप को अलग करता हूँ )
मुझे क्या कोई बताएगा कि ...........मण्डन मिश्र का घर कौन सा है ?
आचार्य शंकर नें पूछा था ।
हाँ ................हे सन्यासी ! हम आपको बताते हैं ............आप जाइए सीधे ......और जहाँ कुँए से पनिहारिन पानी भरते हुए संस्कृत में काव्य की रचना करती जा रही होंगीं ...........बस समझ लेना पास में ही है मण्डन मिश्र का घर ।
हे सन्यासी ! आप जाइए सीधे ........जिस घर के पिंजड़े में बैठे तोता मैना .....जीव जगत और ईश्वर के सम्बन्ध में शास्त्रार्थ कर रहे होंगें बस समझ लेना वही घर मण्डन मिश्र का है ।
और इतना ही नही ..........उनकी पत्नी, वो भी अद्भुत विदुषी हैं ...."उभय भारती" नाम है उनका.......कुछ वार्ता उनसे भी कर लेना ।
मार्ग बतानें वाले ने जब ये सब जानकारी दी .....तब आचार्य शंकर चकित हो गए थे.........बौद्ध धर्म से टक्कर लेना है ....तो अपनें ही लोग जो बिखरे हुए हैं .......इनको अपनें पक्ष में करना ही होगा ।
ओह ! हमारे पास ऐसे ऐसे विद्वान् हैं ..............फिर भी बौद्ध धर्म हम पर हावी हो रहा है ! आचार्य को यही दुःख था ।
गए मण्डन मिश्र के धाम ।
जो जो सुना था वो सब सच निकला ........पानी भरनें वाली पनिहारिन तुरन्त संस्कृत में काव्य की रचना करके सुना रही थीं ......और दूसरी ओर से उसका उत्तर भी तुरन्त ही मिल रहा था ।
आचार्य गदगद् थे .............ये गांव मण्डन मिश्र का था !
तोता व मैना ..............सच में ही बहस कर रहे थे .....और बहस का विषय था जीव , जगत और ईश्वर........मुस्कुराते हुए द्वार पर खड़े थे आचार्य .....और साथ में थी उनके शिष्यों की मण्डली ।
आइये ! आचार्य ! चरण धोये मण्डन मिश्र नें ..........
गृहस्थी सन्यासी के चरण धोता ही है ।
वेदान्त का श्रवण ही आत्मतत्व का ज्ञान करा देता है.....हे ब्राह्मण !
फिर क्या आवश्यकता है कर्मकाण्ड की ?
आचार्य शंकर नें प्रश्न किया ।
ओह ! आप मुझ से शास्त्रार्थ करनें आये हैं ?
पर आचार्य ! न्याय कौन करेगा की जीत मेरी हुयी या हार आपकी ?
मण्डन मिश्र नें मुस्कुराते हुए कहा ।
आपकी अर्धांगिनी महाविदूषी हैं .....न्याय यही करेंगीं ।
ठीक है ...................मण्डन मिश्र नें कह दिया .........अगर मै हार गया ........तो गृहस्थ धर्म छोड़ कर आपका सन्यासी बन जाऊँगा ।
और मै हार गया तो सन्यास धर्म को त्याग दूँगा .........आचार्य नें सबके सामनें ये बात कही .....और शास्त्रार्थ शुरू हुआ ।
******************************************************
मात्र शब्द से क्या होगा आचार्य ?
कर्मकाण्ड के बिना ...यज्ञ यगादि के बिना ?
शब्द ब्रह्म है ...............अगर विधि पूर्वक उसे सुना जाए ......अधिकारी बनकर सुना जाए .........तो श्रवण से ही पूर्ण ज्ञान मिल जाएगा ।
और ज्ञान से ही तो मुक्ति है ना ! आचार्य शंकर नें कहा ।
पर कर्मकाण्ड.......स्वर्ग के द्वार खोलती है ....वेद के पूर्वमीमांसा में यही सब हैं .........मण्डन मिश्र के तर्क थे ।
स्वर्ग जानें के बाद लौटना पड़ता ही है.....हे मण्डन मिश्र ! स्वर्ग जाओ......पर कब तक रहोगे वहाँ ? जब तक पुण्य है.?.......पर पुण्य के खतम होनें पर ?
इस तरह 22 दिनों तक लगातार शास्त्रार्थ चलता रहा ................
और 23 वें दिन ...................
क्या आवागमन ही लक्ष्य है ? या मुक्ति लक्ष्य है ?
अगर मुक्ति लक्ष्य है ........तो इन कर्मकाण्डों से मुक्ति नही मिलनें वाली ..........इन बली यागादि से मुक्ति नही मिलनें वाली .....मुक्ति मिलेगी ज्ञान से ....और ज्ञान मिलेगा ........ श्रवण से .....
आचार्य शंकर की इन बातों को सुनकर ...मौन हो गए थे मण्डन मिश्र ।
वातारण मौन हो गया ..............तभी मण्डन मिश्र की पत्नी भारती नें देखा .........सुबुक रहे हैं मण्डन मिश्र ।
मै हार गया...........हे आचार्य ! मुझे सन्यास धर्म की दीक्षा दीजिये ।
हाथ जोड़कर खड़े हो गए ।
तभी ...............सुन्दरी भारती खड़ी हुयी ...........
नही आचार्य ! आप जानते हैं अर्धनारीश्वर को ......ये भगवान शंकर और पार्वती का ही रूप है .........अभी तो आपनें मेरे आधे अंग को हराया है .............आधा अंग मै भारती अभी बाकी हूँ .........।
अब मेरा और आपका शास्त्रार्थ होगा ............आप मुझे हराइये ।
आचार्य चकित थे भारती का तेज़ देखकर ।
******************************************************
काम शास्त्र में काम की कितनी कलाएं बताई गयीं हैं ?
ये क्या प्रश्न हुआ ..............आचार्य शंकर भी इधर उधर देखनें लगे थे ।
क्यों ? क्या ये मेरा प्रश्न सही नही है ? आचार्य कह दें की मेरा प्रश्न सही नही है ? भारती नें दृढ़ता से सामना किया ।
काम शास्त्र, क्या शास्त्र नही है ?
है .........काम शास्त्र, शास्त्र है .........आचार्य शंकर नें स्वीकार किया ।
सम्भोग की शुरुआत कहाँ से होती है ?
और सम्भोग का चरम कहाँ पर है ?
कितनें आसन हैं सम्भोग के ?
स्त्री के किस अंग में काम का वास होता है ?
भारती प्रश्न पर प्रश्न किये जा रही थी ...।
आचार्य शंकर मौन हो गए ।
हँसी भारती ................हार गए आचार्य ?
नही ..........बस मुझे एक महिनें का समय दिया जाए ।
क्यों ? क्यों एक महिनें का समय आपको दूँ मै ? भारती नें पूछा ।
क्यों की हे देवी ! मै बालक अवस्था से ही सन्यास धर्म को ग्रहण कर चुका हूँ ...........मुझे काम शास्त्र के बारे में कुछ भी ज्ञान नही है ....मै इसका ज्ञान प्राप्त करूँगा ........फिर आऊंगा तुम्हारे पास ।
और हाँ ......शास्त्रार्थ अभी समाप्त नही हुआ .......बस कुछ समय के लिए स्थगित हुआ है । इतना कहकर आचार्य शंकर उठकर जानें लगे ।
मै आपकी प्रतीक्षा करूंगी आचार्य !
भारती नें कहा ।
और आचार्य शंकर अपनें शिष्यों के साथ निकल गए थे ।
*******************************************************
कुछ समझ में नही आरहा था कि क्या किया जाए .....जिससे काम शास्त्र का अनुभव पाया जाए ।
तभी उस प्रदेश के "राजा अमरुक" की शव यात्रा जा रही थी ।
आचार्य प्रसन्न हुए .....और अपनें शिष्यों को बोले .......सुनो !
मै अपनें इस शरीर को छोड़ रहा हूँ ........और अपनें सूक्ष् शरीर को मृत राजा के शरीर में प्रवेश करा रहा हूँ ..........।
मेरी एक ही आज्ञा है तुम लोगों को ......कि मेरे इस शरीर को सुरक्षित रखना ...........मै आऊंगा ..........काम विद्या का अनुभव लेकर मै आऊंगा ............।
फिर कुछ विचार करके आचार्य नें कहा ............सुनो ! मोह, आसक्ति बुरी चीज है ..........कहीं मै फंस गया उसी काम वासना के जाल में तो.......हे शिष्यों ! मै एक "मोह मुदगल" नामक स्त्रोत्र सुना रहा हूँ....इसे रट लेना ..............और उसी राज सभा में आकर मुझे सुना देना ...............।
इतना कहकर आँखें बन्दकर के आचार्य शंकर बैठे ..........और सूक्ष्म शरीर को योग के द्वारा निकाल कर ...........राजा के शरीर में प्रवेश कर गए ..........राजा का शरीर तो जिन्दा हो गया ।
प्रजा खुश हो गयी ......राजा जिन्दा हो गया .....राजा जिन्दा हो गया !
सर्वत्र यही हल्ला हो रहा था ।
रानी भी बहुत खुश थीं ।
दिन बितनें लगे ................राजा कोई युवा तो थे नही .........पर वृद्ध राजा के मन में इतनी काम वासना कैसे जाग रही है .......रानी कुछ समझ नही पा रही थीं .....कि ये हो क्या रहा है ?
राजा के शरीर में कहीं किसी और की चेतना तो नही आगयी ?
रानी को सन्देह होनें लगा ।
समय बीतता जा रहा था ।
रानी नें अपनें ही राज्य में गुप्तचर घुमानें शुरू कर दिए .......
और गुप्त आदेश दिया कि ........जो भी निर्जीब शरीर मिले ...........उसे जला दो .......रानी कुछ न कुछ गड़बड़ है....... ये समझ रही थीं ।
इधर आचार्य के शिष्य परेशान होनें लगे ...........क्यों की आचार्य के शरीर को बचाकर रखना ये कोई साधारण काम नही रह गया था ...अब ......चारों ओर गुप्तचर घूम रहे थे ।
एक दिन.....राज महल में ही आ धमके ये शिष्य .........गायक बनकर ।
*******************************************************
हम गीत गाते हैं राजन् !
मुस्कुराते हुए इन गायकों नें राज दरवार में हाजिरी लगाई थी ।
राजा क्या बोलते .............वो तो रानी को ही देखकर मुग्ध थे ।
संस्कृत के गीत गानें शुरू किये ...........इन गायकों ने ।
आचार्य शंकर नें जो स्त्रोत्र सुनाये थे ........वही गानें लगे ।
हे राजन् ! कौन स्त्री ? कौन किसका पति ? और कौन किसका पुत्र ?
यह संसार तो विचित्र है ...........यहाँ कोई किसी का नही होता ।
कौन हो तुम ? क्यों आये हो ? क्या इसका चिन्तन करते हो तुम राजन् !
स्त्री के शरीर में मोहित होकर ...........अपनें लक्ष्य को भूल जाना ......ये सही बात तो नही है ना ! यह शरीर कितना भी सुन्दर दीखे .....पर इसमें भरा हुआ तो माँस और रक्त हड्डी ही है ना .... बहुत घृणित है ।
ये सब गीत के रूप में गाये ....... आचार्य शंकर के शिष्यों ने ।
तब राजा के रूप में बैठे आचार्य को सब कुछ याद हो गया .......
और कुछ ही देर में ..........इस देह को त्याग कर ..............अपनें ही आचार्य के देह में चले गए ......और फिर चल दिए थे ........मण्डन मिश्र के घर की ओर ।
*******************************************************
भारती नें प्रणाम किया ...........मण्डन मिश्र नें प्रणाम किया ।
फिर जब शास्त्रार्थ की शुरुआत हुयी ........तो आचार्य शंकर नें एक एक प्रश्न का उत्तर दिया ...........उसके बाद जब प्रश्न किया आचार्य शंकर नें तब निरुत्तर हो गयी थी भारती ।
दोनों ही आचार्य शंकर के शिष्य बनें ...............
मण्डन मिश्र नें तो सन्यास ही ले लिया....ऐसा भी उल्लेख मिलता है ।
फिर तो "तक्ष शिला" मण्डन मिश्र को ही साथ में लेकर गए थे आचार्य शंकर .......और वहाँ बौद्ध धर्माचार्यों से शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ .......कुछ विद्याओं का प्रदर्शन भी किया उन बौद्ध लोगों नें.......पर आचार्य शंकर के आगे इनकी कुछ नही चली ..........और पराजित होना ही पड़ा इन्हें ........।
ऐसे सनातन धर्म के उद्भट योद्धा श्री शंकराचार्य जी को हमारा बारम्बार प्रणाम ।
शेष चरित्र कल .....................
Harisharan
No comments:
Post a Comment