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श्रीकृष्णदासजी

‘नमामि भक्तमाल को’

ये सुनार जाति के थे. इनका मन भगवान श्री राधाकृष्ण की सेवा में ही लगता था. इनकी सेवा की रीति भी अनोखी थी. ये नृत्य और गान के माध्यम से प्रभु को रिझाते थे. जब ये आनंदमग्न होकर नृत्य करते तो इन्हें अपने शरीर की सुध नहीं रहती थी. भगवान भी इनके नृत्य-गान से बहुत आनंदित होते थे.
एक बार की बात है कि नृत्य करते हुए इनके एक पैर का नूपुर खुलकर गिर गया. ये नृत्य में इतने मग्न थे कि इनको इस बात का पता ही नहीं चला. घुँघुरू के बिना ताल बिगड़ने लगा. हमारे नंदनंदन से रहा नहीं गया. श्रीलालजी ने अपने श्री चरणों से दिव्य नूपुर खोलकर कृष्णदास जी के पैरों में बाँध दिया – ‘नंद्कुंवर कृष्णदास कों निज पग तें नूपुर दियो.’ अब तालपर घुंघरू का बजना सुनकर श्रीठाकुर जी बहुत प्रसन्न हुए. जब इनका नृत्य पूर्ण हुआ और इन्हें होश आया तब इन्होंने देखा कि इनके एक पैर का नूपुर तो अलग पड़ा है और उस पैर में दिव्य नूपुर बंधा है. श्री भगवान की कृपालुता को देखकर इनके आँखों से आँसू बहने लगे.
लोग पूछते हैं कि ‘भक्ति कैसे करें ?’ अरे भाई ! जो काम आपको सबसे अच्छा आता हो उसी से भगवान की सेवा करना शुरू कर दो, उसी से प्रभु को रिझाना शुरू कर दो. संसार खीजने को बैठा है तो श्री ठाकुर जी रीझने को बैठे हैं. संसार में आप किसी के लिये कितना भी कर लो, आपकी छोटी सी गलती पर वो आपसे तुरंत रूठ जायेगा. हमारे ठाकुर जी के सामने आप लाख गलतियाँ कर लो, वो आपके द्वारा एक बढ़िया काम होने पर तुरंत रीझ जायेंगे. हमारे ठाकुर को तो रीझने का मौका चाहिए. हमें कुछ नया नहीं करना है, जो कर रहे हैं वो यह सोचकर करें कि इससे ठाकुर जी प्रसन्न हों तो वह ज़रूर प्रसन्न होंगे.
जय श्री राधे कृष्ण

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