"पाप कर्म से बचें"


          एक शहर के किसी स्कूल में एक मुहल्ले के दो लड़के एक क्लास में साथ पढ़ते थे, दोनों में मित्रता थी। स्कूल की मित्रता प्रायः निष्कपट हुआ करती थी। स्कूल से निकलकर भिन्न-भिन्न मार्गो का अवलम्बन करने तथा स्थिति में छोटे-बड़े होने पर मित्रता रहना, न रहना दूसरी बात है। अच्छे लोग तो श्रीकृष्ण-सुदामा की तरह हैसियत में बड़ा भारी अन्तर पड़ जाने पर भी लड़कपन की मित्रता निबाहा करते हैं; परंतु ऐसे लोग विरले ही होते हैं। अधिकांश तो राजा द्रुपद की भाँति धन या उच्चपद मिलने पर लड़कपन के प्यारे मित्र का उसकी गरीब हैसियत होने के कारण प्रायः तिरस्कार ही किया करते हैं। धन या पद के मद से अंधे हुए उन लोगों को एक गरीब कंगाल को मित्र मानने या कहने-कहलाने में बड़ी लज्जा मालुम होती है। आजकल तो कुछ पढ़े-लिखे सभ्य बाबू और धनवान् पुत्रों के लिये अपने सीधे-सादे गरीब ग्रामीण पिता को भी अपने पाँच मित्रों में पितारूप से परिचय देना संकोच का विषय हो गया है। अस्तु।
          दोनों मित्र पढ़कर स्कूल से निकले, एक सदाचारी धर्मपरायण भक्त ब्राह्मण का लड़का था, दूसरा एक घूसखोर और दुराचारी धनी राजपूत का! घर की सङ्गति का असर बालकों पर सबसे ज्यादा हुआ करता है। ब्राह्मण का बालक स्कूल से निकलकर पिता की भाँति पाठ-पूजा तथा भक्ति-भाव में लग गया और राजपूत का लड़का दुराचार में प्रवृत्त हो गया। अच्छे-बुरे गुण सभी में होते हैं, किसी में ज्यादा, किसी में कम। राजपूत-बालक धनी और दुराचारी होने पर भी गरीब ब्राह्मण-बालक से मित्रता का सम्बन्ध कभी नहीं भूला। दोनों मित्र समय-समय पर मिलते, एकान्त में एक-दूसरे के सुख-दु:ख की बातें कहते-सुनते। जो जिस काम में रहता है। उसमें उसे स्वाभाविक ही सुख की प्रतीति होने लगती है। इसी से वे दोनों अपने-अपने मार्ग में आनन्द की अधिकता बतलाकर परस्पर अपनी-अपनी तरफ खींचने की चेष्टा करते, परन्तु दोनों का एक मत कभी नहीं होता। प्रेम में कमी न होने पर भी मतभेद के कारण दोनों का मिलना-जुलना स्वाभाविक ही कम हुआ करता। ब्राह्मण-कुमार भक्त-मण्डली में रहना अधिक पसंद करता तो राजपूत को शौकीन-मण्डली में ज्यादा आनन्द मिलता। ब्राह्मण बेचारा भीख माँगकर बड़े कष्ट से घर का काम चलाता, उधर राजपूत के यहाँ रोज गुलछरें उड़ते। कई बार वह राजपूत अपने मित्र ब्राह्मण से कहता भी कि 'तू हमारी मण्डली में क्यों नहीं आ जाता ?' कई बार वह धन भी देना चाहता, पर सन्तोषी ब्राह्मण अन्यायोपार्जित धन को अन्त:करण अपवित्र हो जाने के भय से कभी लेता नहीं। तब वह कहता, 'भाई ! तेरे भाग्य में ही दु:ख लिखा है तब मैं क्या करूँ ?' ब्राह्मण को अपनी निर्धनता पर असन्तोष नहीं था, वह अपनी स्थिति में सन्तुष्ट था, परन्तु इधर उस राजपूत को पिता की ओर से काफी धन मिलने पर भी रात-दिन हाय-हाय ही लगी रहती थी; क्योंकि हर तरह से बाबूगिरी में उड़ाने के लिये तथा खुशामदी गुण्डों की जेब भरने के लिये उसको धन की सदा जरूरत बनी रहती थी।
          निर्जला एकादशी का दिन था। ब्राह्मण ने एकादशी का निर्जल उपवास किया, रात को जागरण के लिये वह मन्दिर में गया। रातभर जागकर उसने हरि-नाम-कीर्तन किया। प्रात:काल मन्दिर से निकलकर वह नंगे पाँव घर लौट रहा था, रास्ते में एक काँच का टुकड़ा पड़ा था, अचानक पैर में गड़ गया, खुन की धारा बह निकली। गर्मी का मौसम, छत्तीस घंटे का भूखा-प्यासा, रात भर की नींद, तिस पर यह वेदना! ब्राह्मण घबरा-सा गया!
          नगर में एक नयी वेश्या हाल में ही आयी थी, रात को उसका गाना था, शौकीन बाबुओं का जमघट वहीं पर था, बिजली के पंखे चल रहे थे, शराब-कबाब की कोई कमी नहीं थी। जागे जितनी देर सुरीले सुरों का आनन्द लूटा और जब मन में आया तब सो गये तो नींद का सुख; बाबुओं ने बड़े सुख से रात बितायी। कहना नहीं होगा कि ब्राह्मण का मित्र भी वहाँ जरूर पहुँचा था। प्रात:काल वेश्या के यहाँ से निकलकर सब अपने-अपने घर जाने लगे। सभी नशे में चूर झूम रहे थे। एक की पाकेट से 'मनीबैग' गिर गया, उसमें पाँच हजार के नोट थे। उसको नशे में क्या पता था कि मेरा मनीबैग कहीं गिर गया है। राजपूत-कुमार पीछे से आ रहा था, उसने भाग्यवश कुछ शराब कम चढ़ायी थी, इससे वह कुछ होश में था। चलते-चलते मनीबैग पर उसकी नजर पड़ी; उठाकर देखा तो पूरे पाँच हजार के पाँच नोट; वह आनन्द के मारे उछल पड़ा! सोचा, पिताजी ने इधर कुछ हाथ सिकोड़ लिया था, चलो कई दिनों के लिये मौज-शौक का सामान सहज ही मिल गया। बैग जेब में रखकर वह चलता बना।
          जिस रास्ते से वह जा रहा था, उसी रास्ते में उस ब्राह्मणके पैर में काँच लगा था, वह बेचारा खून पोंछकर जल की पट्टी बाँध रहा था। मित्र को देखकर उसे कुछ हिम्मत हुई, पूछने पर उसने सारी कथा सुना दी। राजपूत ने कहा-'भाई ! तुम तो किसी की बात मानते नहीं। दिन-रात पाठ-पूजा और राम-नाम के व्यर्थक बखेड़े में लगे रहकर जीवन बरबाद कर रहे हो! भला, क्या होता है राम-नाम बड़बड़ाने और मंदिरों में जानेसे ? खाने को पूरा अन्न मिलता नहीं, कमाई करना तुम जानते नहीं, बात-बात में तुम्हें पाप का डर लगता है, बाल-बच्चे दु:खी हो रहे हैं, तुम्हारी तो हड़ियाँ ही चमक रही हैं, तिस पर कहते हो धर्म और राम-नाम संसार-सागर से तार देगा। मरने पर वैकुण्ठ मिलेगा! कोई देखकर आया है कि मरने पर आगे क्या होता है ? भाई ! आगे-पीछे कुछ नहीं होता, व्यर्थ शरीर को कष्ट मत दो, खाओ-पियो, मौज करो, जब तक जियो सुखसे जियो, इन्द्रियों से आराम भोगो । मर जाने पर तो सिवा खाक के और कुछ होता नहीं। मुझे देखो, कितनी मौज में हूँ! रात-दिन चैन की वंशी बजती है। रात को गया था परी गुलशन का गाना सुनने, बड़े आनन्द से रात कटी, सुबह वहाँ से निकला तो पूरे पाँच हजार के नोट मिले।' यह कहकर उसने मनीबैग में से नोट निकालकर दिखलाये और फिर बोला-'छोड़ो इन बखेड़ों को, मेरे साथ चलो और आराम से रहो।' ब्राह्मण घबराया हुआ था, विपत्ति के समय सहानुभूति भरे हृदय से जो बातें कही जाती हैं उनका असर विपदाग्रस्त मनुष्य पर अवश्य होता है, अतएव ब्राह्मण के हृदय पर भी मित्र की बातों का कुछ असर हुआ, थोड़े समय के लिये उसे अपने धर्ममार्ग पर सन्देह हो गया, वह सोचने लगा-'ठीक ही तो हैं, मैं जिन कामों को महापातक समझता हूँ उन्हीं में यह दिन-रात रत रहता है, तब भी इसे कितना सुख है और मैं दिन-रात भजन-पूजन में रहता हूँ, भला, कल तो मेरे चौबीसों घंटे केवल भजन में ही बीते थे, जिस पर मुझे तो यह संकट मिला और इसे पाँच हजार रुपये मिल गये।' इन विचारों के पैदा होते ही अभ्यस्त शुभ संस्कारों ने जोर दिया, मन-ही-मन ब्राह्मण पहले विचारों का खण्डन करने लगा। उसने सोचा 'यह तो सर्वथा पाप है, क्या हुआ जो इसे रुपये मिल गये, पराया धन लेना क्या अच्छी बात है ? जिस बेचारे के रुपये खोये हैं उसको इस समय कितना क्लेश हो रहा होगा? मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिये।' इस तरह मन में अनेक सङ्कल्प-विकल्प हुए। अन्त में ब्राह्मण को उस महात्मा की बात याद आयी जो उस समय नगर में आये हुए थे, बड़े सिद्ध योगी थे; भूत-भविष्यत्, वर्तमान तीनों काल की बातें जानते थे। राजा-प्रजा सब पर उनका प्रभाव फैला हुआ था। वे कई लोगों को कई प्रकार के चमत्कार दिखला चुके थे। ब्राह्मण ने सोचा, इसका निर्णय भी उन्हीं से कराना चाहिये। उसने अपने मित्र से यह प्रस्ताव किया। राजपूत ने कहा-'भाई ! निर्णय तो कुछ कराना है नहीं; प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। परन्तु तुम कहते हो तो चलो उन्हीं के पास।' राजा की श्रद्धा होने की वजह से राजकुमारी के इस पुत्र के मन में भी उस महात्मा पर कुछ श्रद्धा थी। दोनों वहाँ पहुँचे, हाथ जोड़ प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी उन्हें सुना दी।
          तदनन्तर योगी ने ध्यान से सब बातें जानकर कहा कि जिसको रुपये मिले हैं, वह बड़ा पापी है और जिसके पैर में चोट लगी है, वह बड़ा पुण्यात्मा है। क्योंकि प्रारब्ध के अनुसार पहले को आज सम्राट् का पद मिलना चाहिये था और दूसरे को सूली होनी चाहिये थी; परन्तु पहले के प्रबल पाप ने सम्राट् का पद केवल पाँच हजार रुपयों में बदल दिया और ये पाँच हजार भी, इसके अमुक साथी ने जो पहले इसी के घर से चुरा लिये थे, हैं; नहीं तो पराया धन ले लेने का भारी पाप इसे और होता तथापि इसने 'पर-धन' जानकर भी मन चलाया, इसका पाप तो इसे अवश्य होगा। परन्तु दूसरे के प्रबल पुण्य से सूली टलकर केवल काँच मात्र की चोट में ही फल भुगत गया। इतना कहकर महात्मा ने योगबल से दोनों को उनके पूर्वकृत कर्मो का दृश्य दिखलाया, जिससे उन लोगों को स्पष्ट विदित हो गया कि ब्राह्मण के पूर्वकृत कर्म अच्छे नहीं थे जिससे वह दरिद्र था तथा आज उसे सूली होनी चाहिये थी। राजपूत के कर्म अच्छे थे जिससे वह धनी था और आज उसे सम्राट् का पद मिलने वाला था। यह दृश्य देखकर ब्राह्मण और राजपूत दोनों मित्रों को बड़ा दुःख हुआ। राजपूत को तो अपने वर्तमान कर्मों के लिये बड़ा भारी पश्चात्ताप था और ब्राह्मण अपने मित्र के दुःखसे दु:खी था।
          महात्मा कहने लगे-'ब्राह्मण ! तू अच्छे संग से बड़े ही सन्मार्ग में चल रहा है। पूर्व कर्म बुरे भी हों पर यदि मनुष्य इस जन्म में अच्छे कर्मो में लगा रहे तो पूर्व के कर्म उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। कर्म करने की स्फुरणा सञ्चित से होती है। सबसे पहले स्फुरणा प्रायः उस सञ्चित की होती है जो अत्यन्त नवीन होता है। जैसे, एक व्यापारी ने किसी बड़े गोदाम में बहुत-सा माल भर रखा है और नित्य नया माल भरता चला जा रहा है, अब यदि उसे उसमें से माल निकालना होता है तो सबसे पहले वही माल निकालता है जो सबसे पीछे रखा गया है; क्योंकि वही पहले के माल से आगे रखा हुआ है। मनुष्य ने पिछले जन्मों में जो कुछ कर्म किये हैं वे सब सञ्चित हैं और अब जो कुछ कर्म कर्तृत्वभाव से कर रहा है वह सब भी सञ्चित बन रहे हैं। स्फुरणा सञ्चित की होती है इसलिये सबसे पहले वैसी ही स्फुरणा होगी जैसा नया सञ्चित होगा। नये सञ्चित के अनुसार स्फुरणा होने में सन्देह हो तो दो-चार दिन लगातार किसी काम में लगकर देखिये, मन में उसी विषय की स्मृति रहती है या नहीं! रोज नाटक में जाइये, नाटकों की बात स्मरण आयेगी। साधुओं के पास जाइये उनका स्मरण होगा। यह स्मृति ही स्फुरणा है जो नये सञ्चित से होती है। नये सञ्चित का आधार है कर्म। अतएव वर्तमान कर्म अच्छा होगा तो उसका सञ्चित भी अच्छा होगा। सञ्चित अच्छा होगा तो स्फुरणा भी अच्छी होगी तो पुनः कर्म अच्छा होगा। अच्छे कर्म से पुनः अच्छा सञ्चित और अच्छे सञ्चित से पुनः अच्छी स्फुरणा, फिर उससे पुन: अच्छा कर्म होगा। इस प्रकार लगातार शुभ कर्म बनते रहेंगे, जिससे अन्त:करण शुद्ध होकर कभी भगवत्कृपा से तत्त्वज्ञान की उपलब्धि हो जायगी तो समस्त सञ्चित जलकर भस्म हो जायँगे। इसलिये सबको वर्तमान में अच्छा कर्म करना चाहिये। दुष्ट सञ्चितवश मन में बुरी स्फुरणा भी हो तो मनुष्य को उसे सत्संग से-विचार से दबाकर अच्छे ही कर्म में लगे रहना चाहिये।'
          मनुष्य अधिक समय तक जिस विषय का स्मरण करता है क्रमशः उसी में उसकी समीचीन बुद्धि होकर राग हो जाता है। जिसमें राग होता है उसी की कामना होती है। जैसी कामना होती है वैसी ही चेष्टा होती है। वह चेष्टा ही कर्म है। फिर लगातार जैसे कर्म होते हैं, वैसी ही स्मृति होती हैं। यह ताँता चलता ही जाता है। इस विषय में किसी प्रमाण को आवश्यकता नहीं, यह तो प्रतिदिन का सबका प्रत्यक्ष अनुभव है।
          हे ब्राह्मण ! तेरे पूर्व सञ्चित अच्छे न होने पर भी तू इस जीवन के सत्संग से अच्छे कर्म करने लगा, जिससे तेरे हृदय की पूर्वजन्मार्जित कर्मजन्य बुरी स्फुरणाएँ दब गयीं। इस राजपूत के पूर्वसञ्चित शुभ होने पर भी इसने कुसंग से बुरे कर्म करने आरम्भ कर दिये, जिनसे लगातार बुरी स्फुरणायें हुईं और उनसे फिर लगातार बुरे कर्म होते गये। अच्छी स्फुरणाओं को प्रकट होने का अवसर ही नहीं मिला। तेरे सत्कर्म बढ़ते रहे और इसके दुष्कर्म। फल यह हुआ कि फलदानोन्मुख प्रारब्ध कर्म में रुकावट पड़ गयी। रुकावट ही नहीं पड़ी, तेरी सूली की वेदना काँच की चोट में और इसका सम्राट् पद पाँच हजार रुपयों के लाभ में बदल गया।
          ब्राह्मण ने कहा-स्वामिन् ! मैंने यह सुन रखा है कि कर्मो को भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।' सञ्चित का नाश तो सम्भव है परन्तु प्रारब्ध का नाश नहीं होता। वह तो छूटे हुए तीर की भाँति भोगना ही पड़ता है। फिर क्या कारण है कि हम लोगों के प्रारब्ध कर्म के फल में इतना परिवर्तन हो गया ?
          संत बोले-तेरा कहना ठीक है, प्रारब्ध का फल भोगे बिना नाश नहीं होता, परन्तु पहले यह समझो कि प्रारब्ध क्या वस्तु है ? अपने पूर्वकृत कर्मो के फलस्वरूप में ही तो प्रारब्ध बना है, परन्तु अब से एक क्षण पहले तुम जो कर्म कर चुके वह क्या पूर्वकृत नहीं है ? भाई ! कुछ कर्म ऐसे प्रबल होते हैं जो तुरंत सञ्चित बनकर प्रारब्ध के रूप में परिणत हो अपना फल दे डालते हैं। ऐसा न होता तो ‘पुत्रेष्टि'-यज्ञ में पुत्रहीन प्रारब्ध वाले व्यक्ति को पुत्र की प्राप्ति कैसे होती ? यज्ञरूप क्रियमाण से सञ्चित होकर तुरंत प्रारब्ध बन जाता है और वह पुत्र न होने के प्रारब्ध को पलट देता है। या यों कहो कि वह भी एक दूसरा प्रारब्ध ही बन जाता है। दूसरे, प्रायश्चित्तादि से जो कर्मो की निवृत्ति लिखी हैं, उसमें भी तो रहस्य है। प्रायश्चित वास्तव में कर्मों का भोग ही तो है। किसी के ऋण को कोई रुपये देकर चुका दे या उसकी चाकरी करके भर दे, दोनों ही मार्गों से मनुष्य ऋण मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार नवीन प्रारब्ध का निर्माण या परिवर्तन होता है। अवश्य ही ऐसे हाथों-हाथ प्रारब्ध बनने वाले प्रबल क्रियमाण कर्म बहुत थोड़े होते हैं। तुम दोनों के हो गये, इससे तुम लोगों के भाग्य ने भी पलटा खाया। हरिभक्ति और हरिनाम से बड़े-से-बड़े पापों का प्रायश्चित अनायास ही हो जाता है। अतएव हे ब्राह्मणकुमार ! इस कुसंग में पड़े हुए अपने मित्र राजपूत को अपने साथ ले जाओ और दोनों हरिसेवा रूपी सत्कर्म में लगे रहो। तदनन्तर संत राजपूत को सम्बोधन कर कहने लगे-'हे राजपूत ! तेरा भी बड़ा सौभाग्य है जो तुझे ऐसा सदाचारी मित्र मिला है, अब इसके साथ रह। कुसंगति का त्याग कर दे और भगवान् का भजन कर। तुम लोगों का मंगल होगा।' साधु इतना कहकर चुप हो गये। दोनों मित्र दण्डवत् प्रणाम करके घर लौट आये और भगवद्भजन में लग गये।
          इस दृष्टान्त से यह सिद्ध हो गया कि ईश्वर के घर अन्याय नहीं हैं। अपनी-अपनी करनी का फल यथार्थ रूप से ही सबको मिलता है। जिन पाप कर्म करने वालों की सांसारिक उन्नति देखने में आती है उनके लिये यह समझना चाहिये कि या तो उनका शुभ प्रारब्ध इस समय फल भुगता रहा है, वर्तमान पाप कर्मो का फल उन्हें आगे चलकर मिलेगा; या उनकी जो उन्नति देखी जाती है उससे बहुत ही अधिक होने वाली थी जो वर्तमान के प्रबल पाप कर्मो के फल से नष्ट हो गयी। यह कभी नहीं समझना चाहिये कि पाप करने से उन्नति होती है। लाखों-करोड़ों रुपये की आमद-रफ्त होने पर भी शेष में बचता उतना ही है जितना प्रारब्ध वश बचने का होता है। रात-दिन का कठिन परिश्रम, परिश्रमजन्य बीमारियाँ और लोभवश किये हुए पापों का सञ्चित और बुरे सञ्चित से होने वाली कुवासनारूपी हृदय की बीमारियाँ आदि अवश्य बढ़ जाती हैं जो उसे चिरकाल के लिये दुःख देनेवाली होती हैं।
          अतएव पापकर्मों से सर्वदा बचे रहकर श्रीभगवान् का भजन-स्मरण करना चाहिये। भगवान् न्यायकारी होने के साथ ही दयालु भी हैं, यह बात सदा स्मरण रखनी चाहिये। जो उनकी ओर एक कदम आगे बढ़ता है, भगवान् उसकी ओर पाँच कदम आगे बढ़ते हैं। वे जीवों को सतत अपनी ओर खींच रहे हैं। उनकी कृपा का प्रवाह निरन्तर बह रहा है, जो उसमें डुबकी लगा लेता है, वही कृतार्थ हो जाता है।
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                      - श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (श्रीभाईजी)
                                                            'सरस प्रसंग'
                           "जय जय श्री राधे"
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