"एकनिष्ठता"

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          साधक भय और प्रलोभन से बचते हुए एकनिष्ठ होकर एक आदर्श साध्य का लक्ष्य रखकर चुपचाप बिना किसी पर आक्षेप किये अपने मार्ग पर चलता रहे। फिर, आपको मार्ग बढ़ाने वाले मिल जायेंगे और सफलता आकर आपके पैर चूमेगी परन्तु यदि आप विचलित हो गये, भटक गए और नाना प्रकार के रसों में फँस गये तो गिर जायेंगे।
          पार्वतीजी जब तप कर रही थीं और भगवान् शिव के ध्यान में मग्न थीं तो भगवान् शिव ने सोचा कि पार्वती के गौरव को प्रकट करना है। पार्वतीजी की क्या परीक्षा ? वे तो भगवान् शङ्कर की नित्य अर्धाङ्गिनी हैं। यह कथा विविध पुराणों में विविध भाँति से आती है और सभी कथाएँ बड़ी सुन्दर हैं, सुरम्य हैं। यहाँ पर श्रीरामचरितमानस की कथा का थोड़ा-सा अंश बतलाया जा रहा है- जब पार्वतीजी तप कर रही थीं तो भगवान् शिव ने सप्तर्षियों को भेजा कि जाकर पार्वती की परीक्षा करो। वे पार्वती के पास गये और उनके नेत्र खोलने पर उन्होंने पूछा कि यह क्या कर रही हो ? पार्वतीजीने उत्तर दिया कि महाराज ! तप कर रही हैं। उनके कारण पूछने पर बोलीं-'महाराज ! भगवान् शंकर को प्राप्त करने के लिये।' इतना सुनते ही सप्तर्षि एक साथ हँस पड़े। बुद्धिमान् किसी को देखकर हँसे तो इससे उसकी मूर्खता परिलक्षित होती है। सप्तर्षियों ने हँसते हुए कहा-पगली ! तुम उससे विवाह करना चाहती हो जिसके घर में कोई नहीं है। वह श्मशान में रहे, वहाँ की भभूत शरीर में लगाये, साँपों के गहने पहने, अजगरों की गले में माला पहने, मुण्डमाला पहने, बैल की सवारी करे, नंगा रहे, पहनने को वस्त्र नहीं, इस प्रकार के एकाकी, धतूरा खाने वाले, भाँग पीने वाले, कभी कालकूट पी लेने वाले पुरुष को पति बनाकर क्या तुम सुखी होगी ? तुम भी जड़ प्रतीत होती हो, पहाड़ की बेटी हो न !
          इस प्रकार उलाहना दिया और भय दिखाया। पार्वतीजी मुस्कराने लगीं और बोलीं-वाह ! आपने भगवान् शंकर का बड़ा अच्छा रूप दिखाया। जो संसार के परित्यागी होते हैं, विरक्त होते हैं, जो वास्तव में शिवस्वरूप होते हैं, जगत् से विरहित हो, जो स्वरूप में स्थित होते हैं, वही तो ऐसे होते हैं। बड़ा सुन्दर है। वे मुस्कराकर रह गयीं। सप्तर्षियों ने देखा कि यह दाँव तो नहीं लगा, दूसरा अस्त्र फेंका। वे बोले- सुनो, पार्वती ! हमने तुम्हारे लिये एक वर खोजा है जो बहुत ही ऐश्वर्यवान्, महान् सुन्दर है। वे सौन्दर्य-माधुर्य-ऐश्वर्य-निधि, सर्वसद्गुणसम्पन्न, अनन्त गुण-ऐश्वर्य के समुद्र, वैकुण्ठनाथ भगवान् विष्णु हैं। तब पार्वतीजी ने कहा कि महाराज ! विवाह कराने का आप लोगों को शौक हो तो संसार में वर-कन्या बहुत पड़े हैं। आप जाकर शादी कराओ, यही काम करो। महाराज ! मैं क्या कहूँ आपसे, मेरे लिये तो-

          महादेव अवगुन  भवन  बिष्नु  सकल गुन  धाम।
          जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥
                                               (रा०च०मा० १।८०)

          माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, परंतु महाराज ! जिसको मन जिसमें रम गया उसको तो उसी से काम है।

                       जन्म कोटि लगि रगर हमारी।
                       बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
                               (राच०मा० १। ८१। ५)

          मेरा तो करोड़ों जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं
तो कुमारी ही रहूँगी। सप्तर्षियों ने उनका अविचल विश्वास देख लिया तब बोले-बेटी !
घबड़ाना नहीं, शिवजी आयेंगे। तुम तो शिवजी की नित्य अर्धाङ्गिनी हो।
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                      - श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (श्रीभाईजी)
                                                           'सरस प्रसंग'

                          "जय जय श्री राधे"
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