श्री अंगद सिंह जी ने सोच विचारकर हीरा भगवान् को धारण कराने की इच्छा से श्री जगन्नाथ पुरी की ओर प्रस्थान किया । समाचार पाते ही खीझकर राजा ने सिपाहियों को भेजा, उन्होने आकर अंगद जी को सब ओर से घेर लिया ।
राजा ने भेजे हुए राजपुरूषों ने कहा -आप हीरा यहीं हमारे सामने रख दीजिये, अन्यथा युद्ध करने के लिए तैयार हो जाइये ।
यह सुनकर श्री अंगद जी ने कहा – आप लोग थोडा ठहरिये, मैं इस कुण्ड मे स्नान करके अभी हीरा दिये देता हूँ ।
अंगद जी के मन मे तो भगवत्प्रेम ओत-प्रोत था । अत: उन्हे न देकर यह कहते हुए हीरा जल मे डाल दिया कि प्रभो ! यह आपकी वस्तु है, कृपया आप इसे स्वीकार कीजिये । प्रेमभरी भक्त की यह वाणी श्री जगन्नाथ जी को अति प्यारी लगी । आजानुबाहु प्रभु ने सात सौ कोस लम्बा हाथ बढाकर उसे ले लिया और अत्यन्त सुख पाकर अपने वक्षस्थल पर धारण कर लिया।
श्री अंगद जी उस हीरे को कुण्ड में फेंक कर (दुखित मन) अपने घर आ गये । उधर राजपुरुष लोग जल मे कूद पड़े और हीरे को ढूंढने लगे । महान् प्रयत्न करने पर भी जब वह हीरा उन्हें न मिला तो वे लोग व्याकुल हो गये । समाचार पाकर राजा भी वहीं आ गया । उसने कुण्ड का सब पानी बाहर निकलवाया । फिर भी जब हीरा न मिला तो कीचड़ में ढुँढ़वाया । कीच (कीचड़) में भी न मिलने पर राजा दुःख सागर में डूब गया । इधर श्री जगन्नाथ जी ने अपने पण्डो (पुजारियों ) को आज्ञा दी कि तुम जाकर भक्त अंगदसिंह जी को खबर दो कि तुम्हारा हीरा प्रभु को मिल गया है और उन्होंने उसे अपने वक्षस्थल पर धारण कर लिया है ।
इस मंगलमय समाचार को जब पण्डो ने आकर अंगद जी को सुनाया तो इन्हें इतना आनन्द हुआ कि अपने शरीर की सुधि बुधि न रही । श्री अंगद सिंह जी ने पुरी मे जाकर देखा तो वही हीरा भगवान् श्री जगन्नाथ जी के हृदय पर जगमगा रहा है । श्री अंगद जी के इस भक्ति के चमत्कार को देख सुनकर राजा के हदय में महान दुख हुआ ।राजा जान गया कि असल हीरे तो भक्तहृदय अंगद जी ही है । अपने द्वारा भक्त का अपमान हुआ जानकर राजा ने अन्न खाना छोड़ दिया तथा ब्राह्मणों को अंगद जी को लिवा लाने के लिये श्री जगन्नाथ पुरी भेजा।
राजा ने उनसे कहा कि जैसे भी हो, किसी न किसी प्रकार से आप लोग अंगद जी को लिवा लाओ । यदि वे मेरे नगर में आयें तो मै अपने बड़े भाग्य मानूंगा । ब्राह्मणों ने राजा के कथनानुसार पुरी मे जाकर श्री अंगद जी से राजा के दुख को सुनाया और प्रार्थना की कि -अब आप वहीं पधारो ।
अंगद जी किसी भी तरह से जब आने को तैयार न हुए तब ब्राह्मण लोग धरना देकर पड़ गये और राजा के अन्न छोड़ देने की बात बताई । तब श्री अंगद जी को दया आयी और वे राजा के दुख को दूर करने के लिये ब्राह्मणों के साथ चल दिये । जब श्री अंगद जी नगर के समीप आये तो राजा यह सुन तत्काल दौडता हुआ आया और अंगद जी के चरणों से लिपट गया । अंगद जी ने राजा को छाती से लगा लिया । आखों से आंसू बहने लगे । राजा ने अपना सर्वस्व श्री अंगद जी के श्री चरणों में समर्पित कर दिया । इस प्रकार नव जीवन प्राप्त कर जीवनपर्यंत राजा ने हरिभक्तिमय आचरण किया ।
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