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श्री अंगद सिंह जी भाग 1⃣



रायसेनगढ(वर्तमान मध्य प्रदेश विंध्य पर्वत श्रंखला की तलहटी ) के राजा सिलाहदी सिंह थे । उनके चाचा अंगद सिंह जी पहले भगवद्विमुख थे, पर उनकी पत्नी भगवद्भक्ता थी । एक बार उनके श्रीगुरुदेव घर पर आये और भक्ता शिष्या की प्रार्थना पर वे सुखपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण की कथा कहने लगे । क्यों कि अंगद जी को भक्ति पसंद नही थी इसलिए अलग कक्ष में कथा करने लगे । इसी बीच अंगद जी आ गये और फटकारते हुए श्री गुरुदेव से बोले -स्त्री जाति के साथ यहां क्या कर रहे हो ? इतना सुनते ही श्री गुरुदेव महाराज वहाँ से चले गये ।  श्री अंगद जी की पत्नी ने अपने गुरूदेव के अपमान से दुखित होकर अन्न- जल का परित्याग कर दिया ।

श्री अंगद सिंह जी तो संसारी सुखो के वशीभूत थे । अत: स्त्री को मनाते-मनाते इन्होने उसके पैर पकड़ लिये और कहा -अब जो कुछ भी तुम कहो, मै वही करूँगा । उस समय मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी थी । अत: अनुचित वाक्य मुंह से निकल गये । पतिदेव के दैन्य को देखकर उस भक्ता का हृदय दया से भर गया । उसने कहा- अब आप मेरे चरणो को छोडकर मेरे गुरुदेव के चरणो में जा पडिये और उन्हें प्रसन्नकर उनको अपना गुरु बनाइये । स्त्री की यह बात सुनकर अंगद जी श्रीगुरुजी के पास गये और बड़े प्रेम के साथ उन्हें घर लिवा लाये । दीनभाव से विनति कर उनके शिष्य बन गये । उन्हें सादर भोजन कराकर उनका उच्छिष्ट प्रसाद लिया।

संत की सीथ प्रसादी पाकर अब श्री अंगद जी के हृदय मे शीघ्र भक्त, भगवान् और श्री गुरुदेव में एक नवीन प्रीति प्रकट हो गयी । अपने भतीजे राजा सिलाहदी सिंह के आदेशानुसार एक बार आपने एक शत्रु राजा के ऊपर चढायी की और विजय प्राप्त कर ली । राजभवन की लूट मे इन्हें शत्रु राजा की टोपी मिल गयी । उस टोपी के अंदर सौ नग जड़े हुए थे, उनमे से एक नग सबसे मूल्यवान था । टोपी के निन्यानवे (९९) नग बेचकर श्री अंगद जी ने पूज्य संतो की सेवा कर दी और एक नग जो सबसे बडा कीमती था, उसे आपने अपनी पगडी में  लपेटकर रख लिया और मन मे निश्चय किया कि इसे मै श्री जगन्नाथ भगवान् को अर्पण करूँगा ।

फौजी सिपाहियों में कानाफूसी होते – होते सौ नगों से जडी हुई उस टोपी की बात राजा सिलाहदी सिंह ने सुन ली । राजा ने उन लोगों से कहा कि आज यदि चाचाजी उस एक हीरे को दे दें तो निन्यानवेे हीरे हम माफ कर देंगे । तुम लोग जाकर चाचा जी को समझाओ । लोगों ने आकर इन्हें खूब समझाया बुझाया। अनेक युक्तियां की, परंतु अंगद जी ने किसी की भी बात नहीं मानी । तब श्री अंगद सिंह जी की एक बहन, जो इनके यहाँ रसोई बनाया करती थी, राजा ने उसे लोभ लालच देकर भेद नीति से उससे कहा कि तुम अंगद जी को विष देकर मार डालो, फिर मैं तुम्हें बहुत सा धन -धरती दूंगा । उसने राजा की बात मान ली, विष घोलकर भोजन मे मिला दिया और नित्य की भाँती भगवान् को भोग भी लगा दिया । फिर अपने भाई अंगद जी को कहा – आओ, भगवान् को भोग लग गया है ,भोजन कर लो । थाली परोसकर उनके भाई अंगद के सामने रख दी ।

श्री अंगद जी की बहन की एक लडकी थी । ये जब भोजन करते थे तो श्री राधा जी की सखी मानकर उसे भी साथ बैठा लेते थे । अपनी लडकी को बचाने के लिये उसने उसे कही किसी के घर छिपा दिया था । अंगद जी उस बालिका के बिना भोजन नहीं कर रहे थे । अंगद जी की बहन सोचने लगी – हाय ! मेरे भैया मेरी बेटी से कितना स्नेह करते है, उन्हें राधा जी की सखी मानकर भोजन कराते है और मै उन्हें विष देकर मारने चली हूं ।अपनी लडकी मे अपने भाई का ऐसा अपार प्रेम देखकर उसके मन मे भ्रातृ प्रेम उमड़ आया । भाई के मृत्यु से डरकर वह रोने लगी । गले से लगकर रोते रोते उसने सब बात सत्य कह दी ।

वह कहने लगी -अब तुम इसे मत खाओ और ऐसा कहकर वह विषमिले भोजन की थाली को लेकर वहाँ से जाने लगी । यह देखकर श्री अंगद जी ने कहा -तूने विषमिले भोजन का भगवान् को भोग लगा दिया और अब हमें खाने से रोकती है । यह तो भगवान् का प्रसाद हो गया ।ऐसा कहकर उन्होने उसे ढकेलकर बाहर निकाल दिया और भगवदिच्छा बलवती मानकर पुन: किवाड़ बन्दकर सब प्रसाद पाकर लेट गये । श्री अंगद जी के ऊपर विष का कुछ भी प्रभाव नहीं  हुआ । उलटे प्रसाद में निष्ठा एवं प्रेम से इनके मुख पर नयी चमक आ गयी, परंतु इनके मन मे इस बात का असह्य कष्ट बना हुआ था कि विषमिश्रित  पदार्थ भगवान् को भोग लगाया गया।

क्रमशः

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