श्रीहरिराम व्यासजी श्रीयुगलकिशोर जी को इष्ट और भक्तों को अपना परम इष्ट मानते थे। इन्होंने उद्धर्व पुंड्र तिलक तथा तुलसी कण्ठी माला की बड़ी महिमा गायी है। कोई कोई तो श्रीमत्स्य, कच्छप, नरसिंह, वाराह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण आदि अवतारों की आराधना करते हैं। एक समुदाय ऐसा है जो नवधा भक्ति में निष्ठा रखता है परन्तु श्रीसुमोखन शुक्ल जी के पुत्र श्रीहरिराम व्यासजी ने तो वैष्णवों को ही प्रेम पूर्वक दुलराया।
श्री हरिराम व्यासजी रामलीला के समय महत्पुरुषों की सभा में अपना (ब्राह्मण के नवगुण परम धर्म के ऊपर न्यौछावर करके अथवा) यज्ञोपवीत तोड़ कर उसमें श्रीप्रिया जी के पाँव का नूपुर गूँथा था।
श्रीहरिराम व्यासजी के मन में श्रीधाम वृन्दावन के प्रति अनुराग उमड़ा तो आप घर छोड़कर वृन्दावन चले आये और यहाँ आने पर आपका हृदय श्रीधाम के प्रति ऐसा अनुरक्त हुअा कि जो भी धाम से बाहर जाते उन पर बहुत नाराज़ होते। इनके कुल कुटुम्ब के लोग लिवाने के लिये आये लेकिन आप श्रीधाम वृन्दावन को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। जब लोगों ने बहुत पीछा किया तब एक भंगिन की डलिया से श्रीराधावल्लभलालजी का प्रसाद एवम् संतों की सीथ प्रसादी निष्ठा से एक पकौड़ी खा ली जिससे संसार का पीछा छूट गया। जाति-बिरादरी के लोग इन्हें छोड़कर ओरछा लौट गये।
ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह स्वयं आपको लिवाने के लिये वृन्दावन आये और सीधे श्रीहित हरिवंश जी से मिले। राजा ने कहा- महाप्रभो ! हमारे गुरुदेव व्यासजी यहाँ रहकर केवल आत्म श्रेय सम्पादन करेंगे और ओरछा में रहने पर भक्ति का प्रचार एवं अनन्त जीवों का कल्याण होगा। ऐसा सुनकर श्रीहितहरिवंश जी ने श्रीव्यासजी को ओरछा लिवा ले जाने की आज्ञा दे दी। ऐसा समाचार एक सन्त के द्वारा सुनकर श्रीव्यासजी अपने मुँह में कालिख पोतकर सभी वृक्षों लताओं से लिपटकर रोने लगते और कहते-
श्रीवृन्दावन के रुख़ हमारे मातु पिता सुत बन्धु।
गुरु गोबिन्द साधु गति मति सुख फल फूलनकौ गन्ध॥
इन्हहिं पीठि दै अनत दीठि करैं सो अंधनि में अंध।
व्यास इन्हैं छौड़े रु छुड़ावै ताकौ परै निकन्ध॥
इनकी प्रेम विह्वलता को देखकर एक सन्त ने श्रीहित जी से यह बात बताई तो तुरन्त आदेश दिया कि अब हरिराम व्यासजी वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे। मधुकर शाह राजा ओरछा लौट गए। श्रीहितजी ने श्रीव्यासजी को बुलाकर पूछा- 'तुमने मुख में काली श्याही क्यों लगा ली ?' व्यासजी ने कहा- 'संसार का परित्याग कर श्रीधाम में आने से मुख उज्जवल होता है और श्रीधाम छोड़कर पुनः संसार में जाने से मुख काला ही होगा। अतः मैंने पहले से ही कालिख पोत लिया था।' ऐसा आपका श्रीवृन्दावन धाम का अनुराग था।
श्रीव्यासजी के ओरछा न जाने पर इनकी पत्नी, तीन पुत्र, एक पुत्री भी यथा सम्भव सम्पत्ति लेकर श्रीवृन्दावन धाम में आ गये। श्रीहितहरिवंश जी की आज्ञा से भक्ति में बाधक न जानकर बल्कि सहायक समझकर समीप रहने की स्वीकृति दे दी। यथा योग्य सभी को सन्त-भगवन्त की सेवा सौंप दी।
*"जय जय श्री राधे"*🙏🏻🌹
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