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गुरु कृपा

जनकपुर सीताजी के कृपा प्रसाद से सुख पाया है। उनके जन्म से पहले तो भीषण हाहाकार मचा था, वर्षा विहीन भूमि थी, सब प्यास से त्रस्त थे।
जनक जी गुरुजी के पास गए, निवेदन किया कि वर्षा कैसे हो? गुरुजी ने जैसा कहा, जनक जी ने वैसा ही किया। तर्क नहीं किया।
हल लिया, सुनयना जी को साथ लेकर लगे खेत जोतने, अचानक हल का फल किसी वस्तु से टकराया, देखा एक घट है, उसी घट से सीताजी प्रकट हुईं।
बस उनके आते ही वर्षा हो गई, समस्त जनकपुर में ऐश्वर्य छा गया। फिर भगवान को खोजने जाना नहीं पड़ा, बुलाने की भी अवश्यकता न पड़ी, भगवान अपनेआप ही चले आए। आप भी ऐसा ही करें, भगवान आ जाएँगे।
सुनयना साथ हो, माने सुंदर दृष्टि हो, दृष्टि भगवान पर टिकी हो तो ही सुंदर है, सांसारिक दृष्टि तो कुदृष्टि है। यह मनुष्य देह ही खेत है, इसमें पाप की या पुण्य की, कैसी भी खेती की जा सकती है।
हल माने समाधान, संत के उपदेश पर मनन, विचार करना ही हल चलाना है। खूब विचार करते चलो।
बस एक दिन अचानक, हल का फल, विचार का फल मिल जाएगा, क्या? आपके ही अंतःकरण रूपी घट से भक्ति रूपी सीता जी का प्राकट्य हो जाएगा।
सीताजी के आने से, भक्ति की प्राप्ति से, वर्षा हो जाएगी, माने भगवद्कृपा बरसने लगेगी, प्यास बुझ जाएगी माने कामना रहेगी नहीं।
हाहाकार, दुख, चिन्ता, तनाव समाप्त हो जाएगा, न केवल लोक बन जाएगा, परलोक भी बन जाएगा। भगवान स्वयं चले आएँगे।
रामजी सुख हैं, सीताजी शांति हैं। यदि आप अभी सुखी हो जाएँ तो शांत भी हो जाएँगे, या अभी, यहीं, जैसे, जिस अवस्था में भी हैं, शांत हो जाएँ, तो इसी क्षण सुखी हो जाएँगे।
देखो, दशरथजी ने रामजी को पा लिया, सीताजी चली आईं, जनकजी ने सीताजी को पा लिया, रामजी चले आ रहे हैं। दूसरे शब्दों में समझें तो जिसे भक्ति की प्राप्ति हो जाए उसे भगवान का मिलना, और जो भगवान का हो गया उसे भक्ति देवी की प्राप्ति सहज ही है।
हैरानी नहीं कि पौराणिक कथाओं में, जिस जिस को भगवान के दर्शन हुए, सभी को भगवान ने अपनी भक्ति प्रदान की। और जो भक्ति को पा कर भक्त हो गया, उसे भगवान स्वयं आ मिले।
वास्तव में रामजी और सीताजी दिखते दो हैं, दो हैं नहीं, हैं एक ही, ऐसे ही भगवान और भक्ति भी कहने मात्र को ही दो कहे जाते हैं, दो हैं नहीं, हैं एक ही। बिलकुल किसी छोटे से धागे के दो सिरों की तरह, एक को पकड़ो तो दूसरा अपनेआप पकड़ा जाता है।
गजब बात यह भी है कि भगवान तो सबके हैं, पर जिसने संसार की स्मृति में भगवान को विस्मृत कर दिया, उसके लिए नहीं ही हैं। युंही भक्ति सब में है, पर जिसने उसे भगवान की जगह संसार से जोड़ दिया, उसे भक्ति दूर की कौड़ी हो गई। कल्याण करने वाली भक्ति, आसक्ति होकर बंधनकारी हो गई।
मेरे देखे, प्रेम सब के हृदय में है, प्रेम विहीन कोई है ही नहीं, पर जो प्रेम हमें भगवान के चरणों में लगाने के लिए मिला था, उसे हमने संसार में लगा दिया।
इस प्रकार प्रेम को, भक्ति को, सीताजी को, हमने बाजारों में सजा रखा है, दो दो कौड़ी की वस्तुओं के लिए चौक चौराहों पर खड़ा कर रखा है, हमें उनका कोई ख्याल नहीं है।
ऐसे कैसे चलेगा? रावण ने भी यही भूल की, भगवान से भक्ति को हटाकर, अपने सुख के लिए रखने का प्रयास किया।
फल क्या मिला, आप जानते हैं या नहीं?
जनकजी के हृदय आँगन में खेलते खेलते भक्ति देवी, वृद्धि को प्राप्त हो गईं, युवा हो गईं। बस अब यह उन्हें सौंप दें, जिनकी धरोहर है, तो जीवन का संपूर्ण लाभ मिल जाए।
और इसके लिए कुछ करना नहीं है, बस प्रतीक्षा मात्र करनी है।
भीतर तक, वर्षा की टपाटप आवाज आ रही है, बाहर आकाश में घनघोर काले बादल होंगे ही, इसमें संशय कैसा? यहाँ भक्ति उफान पर है, तो भगवान आएँगे ही, इसमें भी संशय न करें।
पर भगवान कैसे आएँ? अभी तक गुरुजी नहीं आए ना। बस गुरुजी के आने की देरी है, भगवान के आने में देरी नहीं है।
आज संदेशवाहक दौड़े आए। संदेश दिया कि मुनि विश्वामित्रजी आ रहे हैं। बस जनकजी सिंहासन से उतर गए। उतरना ही था। जिन संत का हृदय पटल, उन अखिल कोटि ब्रहमाण्ड नायक आनन्दकंद भगवान श्री रामचंद्र जी का सिंहासन हो गया हो, उनके सामने जगत का बड़े से बड़ा सिंहासन भी मिट्टी है। जहाँ हीरा मिल रहा हो, वहाँ कौन मुट्ठियों में मिट्टी पकड़े रहे?
जनकजी मंत्रिमंडल सहित नगर के बाहर आ खड़े हुए।
जन्मों की प्यास बुझने को तैयार है, अब तो गुरुजी आ जाएँ बस। एक एक पल बरस सा बीत रहा था, कि सामने से गुरुजी आते दिखाई दिए। जनकजी दौड़ कर चरणों से लिपट गए।
गुरुजी ने उठाया, जनकजी उठे। बस उठते ही आँखें भगवान की आँखों से मिल गईं, जनकजी खड़े के खड़े रह गए।
आप सुधि पाठकजन विचार करें कि आपके पास गुरुजी तो हों, पर आपके हृदय आँगन में भक्ति देवी ही न खेलती हों, वहाँ कामना पिशाचिनी का वास हो, वासना का नंगा नाच चलता हो, तो गुरुजी भी क्या करें? कैसे भगवान से आपको मिला दें?

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