#श्री_भक्तमाल_कथा... "श्री_चैतन्य_महाप्रभु_के_प्रति_शिष्य_श्री_गोविन्द_की_अनन्यता...


एक बार की बात है-

हर वर्ष की तरह गौड़ देश से ग़ौर भक्त नीलांचल जगन्नाथ पुरी आया करते थे।

वहां श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीजगन्नाथ जी की मंगला आरती मे सभी भक्तों के संग ख़ूब नृत्य संकीर्तन  गान किया, श्रीचैतन्य महाप्रभु को उत्कृष्ट भावो का उदय होनें के कारण सम्पूर्ण देह कदली की डाल की तरह काँप उठता था पुलक कम्प आदि सात्विक विकार प्रकट हो गए , प्रेम के आवेश में मुख से पूर्ण ज ज ज ग ग न न थ थ जगन्नाथ भी नहीं कहा जा रहा था।

महाभाव रस संकीर्तन श्रीमहाप्रभु जी ने ख़ूब नृत्य किया। श्रीनित्यानंद प्रभु ने श्रीगौर को थका हुआ जान कर विश्राम करने की प्रार्थना करें।

इस पर श्रीमहाप्रभु ने संकीर्तन बंद करवा दिया और विश्राम को चले गए
श्रीमहाप्रभु जी का एक सेवक था श्रीगोबिंद (यह श्रीमहाप्रभु जी के गुरु श्रीईश्वरपुरी का शिष्य था), वह सदा श्रीमहाप्रभु जी की सेवा करता था।

वह श्रीमहाप्रभु जी को प्रसाद खिला कर, उनकी सेवा करके ही स्वयं प्रसाद पाता था। उस समय श्रीमहाप्रभु अपनी लीला के छह वर्ष श्रीराधा भाव दिव्यनुमाद मे रहते थे।

तब वह अपना अधिक से अधिक समय श्री काशी मिश्र के घर मे एक छोटा सा कक्ष था, जहाँ केवल एक व्यक्ति के जाने की जगह थी, उस कमरे का नाम गम्भीरा था, वहाँ श्री महाप्रभुजी रहा करते थे।

उस दिन जब श्रीमहाप्रभु जी ने संकीर्तन से श्रमित होकर उस कमरे गम्भीरा मे जाकर अपना शीश तो द्वार पर रख दिया और अपने चरण कमल कमरे के भीतर रख दिए। वह कमरा गम्भीरा छोटा होने से अब श्री महाप्रभु जी को बिना लांघे उस कमरे में कोई जा नहीं सकता था और अब स्थिति यह थी कि महाप्रभु जी का शीश द्वार पर था।

हर दिन की सेवा नियम के अनुसार वह सेवक श्रीगोविंद चैतन्य महाप्रभु के कमरे गम्भीरा मे प्रवेश करने लगा, परंतु प्रभु का शीश द्वार पर होने से गोविंद प्रवेश नहीं कर सका।
गोविंद प्रभु से बोला " प्रभु! आप मुझे अंदर आने का स्थान दीजिए मैं अंदर कैसे आऊं?

आपकी सेवा करनी है...

प्रभु बोले- गोविंद! मेरे मे हिम्मत नहीं मै बहुत थका हुआ है। मैं हटना नहीं चाहता तुम स्वयं ही अंदर आ जाओ मै नहीं हिल सकता।

गोविंद ने कहा प्रभु मै कैसे अंदर आऊँ...

प्रभु बोले मुझे नहीं पता आना है, तो आओ नहीं तो मत आओ...

गोविंद दुखी हुआ- प्रभु की सेवा का नियम कैसे तोड़ सकता हुँ, चाहे अपराध हो जाए पर प्रभु की सेवा नहीं छोड़ सकता। तभी गोविंद अपराध आदि का विचार ना करते हुए श्रीमहाप्रभु जी के मुख पर कपड़ा रख कर, ताकी गोविंद के चरण की धूल नहीं पड़े, गोबिंद प्रभु के शीश से लाँघते हुए अपना पैर उठा कर गम्भीरा कक्ष मे आ गया।

गम्भीरा मे आकर प्रभु के चरणों की सेवा करने लगा, कई घंटो तक चरण सेवा करता रहा, श्रीमहाप्रभु जी को आँख भी लग गयी।
जब बहुत समय बीत गया तब महाप्रभु जी उठे और देखा गोविंद अभी भी चरण दबा रहा है...

प्रभु बोले- गोविंद तेरा तो नियम है, कि मेरी सेवा करने के बाद जब मैं सो जाता हुँ, तब तु भी प्रसाद पाकर सो जाता है।

प्रभु क्रोध(प्रेम सहित) में बोले- "परंतु आज तूनै अभी तक  प्रसाद क्यूँ नही पाया" जाकर क्यूँ नहीं सोया...

गोविंद रोते हुए प्रभु के चरणों में गिर पड़ा और बोला- प्रभु! आपके शीश के ऊपर लाँघने का अपराध तो मैंने किया आपकी सेवा के लिए चाहे इसके लिए कितने वर्षों ही मुझे नरक जाना पड़े  वह ठीक है,
परंतु अब अपने "भोजन सुख" के लिए फिर आपको लाँघ कर बाहर जाऊँ।

यह मेरा सामर्थ्य नहीं कि मै अपने सुख के लिए ऐसा कोई काम नहीं कर सकता, आपका प्रेम ही  मेरा सुख है, भोजन करने का सुख लेने के लिए और आपको लाँघू ऐसा मै कभी नहीं कर सकता...

हे नाथ मैं सम्पूर्ण जीवन भूखा रहूँगा परंतु आपको लाँघ कर कभी भोजन को देखूँगा तक नहीं। श्री गोविन्द की ऐसी अनन्यता को देख श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें हृदय से लगा लिया...

Hare Krishna 🙏🏻🌹

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