"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 95

*आज  के  विचार*

*( उद्धव की वृन्दावन से अश्रुपूर्ण विदाई...)*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 95 !!*
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हे उद्धव !   तुम्हीं नें कहा था ,  जब  तुम आये ही थे मथुरा से ........

कि   "हे पितृचरण !   श्रीकृष्ण  ईश्वर  हैं "

तुम कहते हो तो  होगा .........क्यों की  शास्त्रों को तुम जानते हो .....हम नहीं .......धर्म  क्या कहता है .......ये भली भाँति तुम समझते हो ......हम क्या समझेंगें ......हम तो   जंगल - वनों में रहनें वाले हैं  ।

इसलिये एक बात कहता हूँ  उद्धव ! तुमसे ..........श्रीकृष्ण से  हमारा मन कभी उदासीन न हो.......उद्धव ! हमारा प्रारब्ध हमें कहाँ ले जाएगा .....पता नही है ......जहाँ भी कर्मवश हमें जाना पड़े ..........बस  इतना ही हमें  चाहिये कि ....."कृष्ण  हमारा है".......यही भाव दृढ बना रहे  ।

ये कहते हुए   अपनें मुँह को  चादर से नन्दबाबा नें ढँक लिया था .........क्यों की   उनका हृदय भर आया था .........वो  हिलकियों से रो पड़े थे.......।

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वज्रनाभ !   आज  जानें वाले हैं उद्धव  श्रीधाम वृन्दावन से ...........

रात्रि में सोये थे........देर से सोये थे.......सोये कहाँ थे  बस लेटे थे ।

छ महिनें पूरे होगये  ........पावस ऋतू में ये लौट रहे हैं........

छ महीनों में  कभी उद्धव सोये नही ..............सोते कैसे ?    वृन्दावन में जब से कृष्ण गया है ....तब से यहाँ सोता कौन है  ! 

मैया यशोदा रात भर सुबकती रहती हैं..........नन्दबाबा .......मध्य में उठ उठ कर  "नारायण-नारायण"  कहते रहते हैं.........

ऐसे ही  रात्रि बीतती थी........3 बजे ही उठकर  नन्दराय चले जाते यमुना स्नान करनें .....यशोदा मैया उठकर दधि मन्थन करतीं .......नन्दबाबा मना करते.....पर वो मानती नहीं  ।

आज मैं जानें वाला हूँ .......इसलिये आज  मेरे पास नन्दराय आये थे,   ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व........वत्स उद्धव !   क्या यमुना स्नान करनें चलोगे  ?  

उद्धव  आज तक साथ में नही गए,  नन्द बाबा के साथ ........पर आज !

सफेद दाढ़ी ............गौर वर्ण .......सिर  में  पीली  पगड़ी ..........

मैने  शैया को त्यागते ही  सबसे पहले नन्दराय के चरणों में प्रणाम किया..........फिर इधर उधर देखा तो .....बाहर  भीड़ लगी है ........ग्वाल बाल ......गोपियाँ .........और स्वयं  श्रीराधारानी  अपनी सखियों के साथ  !   मैने  मैया  यशोदा को प्रणाम किया........उनके साथ में  श्रीराधारानी .......मैने उनको भी प्रणाम किया .........वो तो मैया के सामनें संकोच  कर रहीं  थीं   ।  

आप लोग इतनी जल्दी आगये ?     अरे !  अभी तो ब्रह्म मुहूर्त भी नही हुआ .........रात भर सोये भी नही क्या  ?    

उद्धव !  हम लोग छ महिनें से  सोये कहाँ  हैं  ?     फिर तू  तो  आज जा रहा है ना  ?          मनसुख रोते हुए बोला  था ।

माखन निकाल रही हूँ मैं........मेरी राधा बेटी भी मेरा साथ देनें के लिये  रात में ही आगयी थी .......यशोदा मैया  श्रीराधारानी  अन्य सबको मैने देखा ...........

जाओ तुम उद्धव !  स्नान करके आजाओ !    जाओ  !

ललिता सखी नें  मुझे  बड़े प्रेम से कहा ....और मैं नन्दराय के साथ यमुना स्नान करनें चला गया  था  ।

स्नान किया .......मैं  सन्ध्या बन्धन करना भूल गया हूँ !    मैं कोशिश करता हूँ  पर !   गायत्री का जाप करना चाहता हूँ.....पर  नही जपा जाता, "प्रेम" नें सब उल्टा पुल्टा कर दिया है......सारे मेरे नियम टूडवा दिए  ।

मैं  नन्दराय के साथ  धीरे धीरे  नन्दमहल की ओर लौट रहा था ।

तब मुझ से  नन्दबाबा नें ये सब कहा  -  "कृष्ण हमारा है"   ये भाव हमारा  और दृढ़ हो जाए........बस हमें यही चाहिये   ।

और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे बाबा नन्द जी .. ......पर  उनके आँसुओं नें उन्हें कुछ कहनें नही दिया .......अति भाव के वेग से उनका कण्ठ रुंध गया था  ।

चादर मुँह में  डालकर वो  रो गए थे  ।

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  सूर्योदय तो नही ......पर  हाँ  उजाला हो गया था,  जब  उद्धव नन्दबाबा के साथ  स्नान से लौटकर नन्दभवन में आये थे ...........

ओह !   भीड़ बढ़ गयी थी पहले से .........

ग्वालों की भीड़ अलग,  गोपियों की अलग , वृद्ध ,  बालक .......पक्षी भी आगये थे .....मोर , कोयल, तोता,  बन्दर   सब आगये थे  ।

मैने वस्त्र धारण किया अपनें कक्ष में जाकर ............फिर मैं बाहर आगया था ...........पर जब मैं बाहर आया .......तब  मुझे  बड़े प्रेम से सब लोग देख रहे थे .............

तुम जा रहे हो  उद्धव !    मथुरा ?

      श्रीराधारानी नें  आगे बढ़कर  पूछा ।

हाँ ..........मैं  आप सबको बता चुका हूँ   मेरे जानें का कारण !   उद्धव नें ये बात  सबको सम्बोधित करते हुए कहा था  ।

मैं भी इन छ महीनों में   वृन्दावन का ही बन चुका हूँ ........मैं  आप लोगों का हूँ ......और  आप लोगों  की ओर से ही जा रहा हूँ मथुरा .........और  मैं सच कहता हूँ  कि -  श्रीकृष्ण यहाँ आयेंगें   ! 

उद्धव !    सुन !  ये माखन है........मेरे कन्हाई को खिला देना ।

यशोदा मैया  उद्धव को  कभी गम्भीरता से नही लेतीं..........इन छ महीनों में  उद्धव  को   पुत्रवत् मानकर ही  वात्सल्य लुटाया है मैया नें ।

देख !  उद्धव !  ये  माखन है......इसे  तू कन्हाई को देना........कहना उसकी मैया नें भेजा है  उसके लिये ..............अपनें सामनें ही खिलाना उसे ......उद्धव !       कहना  उसकी मैया उसको बहुत याद करती है .....अपना ख्याल रखे वो .....कहना -    खाया कर ......दुबला पतला मत होना .............रो गयीं  ये कहते हुये मैया यशोदा  ।

माखन को हाथों में लिया  उद्धव नें  ।

उद्धव !      

श्रीराधारानी नें आगे आकर कहा  -  हमारे "प्रिय" से कहना -

हे व्रजचन्द्र !   तुम वृन्दावन को अंधकारमय करके ........वर्तमान में मथुरा के आकाश में उदित हुए हो .........पर  एक हमारी प्रार्थना है  कि नाथ ! कलंक  के डर से हम  वृन्दावन वासियों का त्याग मत करना .........रो गयीं  श्रीराधारानी ये कहते हुए  ।

चन्द्रमा भी तो कहाँ परित्याग करता है .....अपनें  देह में लगे धब्बे का ...

वह भी तो  कलंक को अपनें वक्ष में धारण करके गगन में विचरते रहता है...उसे तो कोई कुछ नही कहता ........हे श्याम सुन्दर !   हम भी  तुम्हारी अंक -आश्रिता हैं ......हमें भी अपनें हृदय से दूर मत करो .......तुम्हे    हमारे कारण कोई कलंक नही लगायेगा  ।

उद्धव  श्रीराधारानी के मुखारविन्द से ये सब सुनकर  भावावेश में आगये ............और साष्टांग चरणों में लेट गए .........

हे स्वामिनी !   मैं इन चरणों को त्यागकर  मथुरा नही जाता ........मैं तो वृन्दावन वास का ही संकल्प ले चुका हूँ ...........बस  मैं  "उन्हें" वृन्दावन लाना चाहता हूँ .............इसलिये जा रहा हूँ ............

उद्धव !   तुम ये बात ,   बार बार क्यों कह रहे हो भाई !  

श्रीराधारानी नें उद्धव को बीच में टोका  ।

कि  "मैं आप लोगों के लिये  उन्हें लेकर आना चाहता हूँ .....इसलिये जा रहा हूँ "......ये बात  उद्धव !  तुम बहुत बार कह चुके हो ।

तो क्या  मैं   उन्हें  यहाँ आने का अनुरोध न करूँ  ?   

उद्धव नें  श्रीराधारानी से ही पूछा  ।

नही.........स्पष्टतः  मना कर दिया  श्रीराधारानी नें  ।

चौंक गए उद्धव ..............उन्होंने सोचा भी नही था  कि  श्रीराधा मना कर देंगीं  ।

बड़ी गम्भीर मुद्रा में थीं  श्रीराधारानी आज -   उद्धव !   जब तक वो निश्चिन्त होकर न आ सकें .......तब तक वो न आएं  । 

"वो सुखी हैं मथुरा में"..........यही समाचार हमें सुख देता रहेगा ।

"अनुरोध जन्य  मिलन .....सुखकर नही हुआ करता   उद्धव "  

वो जब चाहें आएं .......पर हम उनसे  अनुरोध नही करेंगीं .......उनको जहाँ प्रसन्नता मिले  वे रहें .........हमतो उनके मुखारविन्द  में ही हास्य देखकर आनन्दित हो उठेंगी  .उद्धव !   

उद्धव  को  "प्रेम सिद्धान्त"   दे रही हैं  श्रीराधारानी  ।

और हाँ ......हाँ उद्धव  !     एक बात तो मैं कहना भूल ही गयी .........

आप आज्ञा करें  स्वामिनी जू  !   उद्धव नें हाथ जोड़कर कहा  ।

उद्धव !   हमारे विरह-दशा  का वर्णन  श्याम सुन्दर से जाकर मथुरा में मत करना .......श्रीराधारानी बोलीं  ।

क्या मतलब ?      मैं समझा नहीं   स्वामिनी  !      उद्धव नें पूछा  ।

जैसे उद्धव !   तुमनें  दो तीन बार ये बात कह दी है हमसे ......कि  हमारा श्याम सुन्दर हमें याद करके  रोता रहता है ...............ये तुम्हें  नही कहना था ...........पर कह दिया  तुमनें ........क्यों की प्रेम सिद्धान्त को अभी तक तुम समझे नही हो .............

रो गयीं श्रीराधारानी -   हम तो कठोर हैं उद्धव !  हमारा हृदय तो पत्थर है ........हमारा प्रियतम रोता है हमारे लिये,   ये जानकर भी  हमारे प्राण निकले नहीं ........पर उद्धव !  हमारे  श्याम सुन्दर का हृदय  नवनीत से भी अत्यन्त कोमल है.......कहीं  "हम दिन भर रोते हैं"   ये सुनकर  "उनके" प्राणों को बचाना भारी न पड़ जाये ।

इतना कहते हुये हिलकियाँ  छूट गयीं  श्रीराधारानी की  ।

मत कहना  उनसे उद्धव !    यहाँ की स्थिति मत बताना ............

और अगर वो  पूछें  भी ........तो कहना  -  वो लोग खुश हैं .......बहुत खुश हैं ..........ये कहते हुए  श्रीराधा रानी मूर्छित हो गयीं थीं  ।

सखियों नें सम्भाला  श्रीराधिका जू को ..........

श्रीराधा चरण धूल लेकर माथे से लगाया  उद्धव नें  ।

आगे बढ़े  - ग्वाल बाल खड़े हैं ...........ये मोर का पंख है ........कन्हाई को देना ...........कहना -  उसके गरीब सखा  मनसुख नें दिया है ............रो गया मनसुख ये कहते हुए ..........मोर पंख को  सम्भाला उद्धव नें ..................

मनसुख नें आगे बढ़कर कहा -  देख उद्धव !  मैं दुबला हो गया हूँ ना ! 

तो कहना उससे  .....कि मनसुख फिर दुबला हो गया ...........

पता है उद्धव !    मुझे दुबला देखकर ही    उसनें माखन की चोरी की थी ........कि  हम लोग मनसुख को मोटा बनायेंगें ............और मैं मोटा हो भी गया था ......पर उद्धव !  अब मैं  फिर  दुबला हो गया हूँ ......कहना उसे   ............ये कहते हुए  मनसुख  बहुत रोया   ।

ये  माला है उद्धव !   ये मेरे सखा को देना ......सखा मधुमंगल नें  गुंजा की माला दी ...........श्रीदामा भैया नें  आगे बढ़कर ....एक काली कमरिया दी .................

.उद्धव !     हम लोग वनवासी हैं.....वृन्दावन में रहते हैं .....वन - जंगल में रहनें वाले हैं ..... गूंजा की माला,  मोर का पंख  बाँसुरी  इसके अलावा हम दे क्या सकते हैं ...........ये बात नन्दबाबा नें कही थी ।

मै रथ में बैठ गया था ..............रथ चल पड़ा ...............वृन्दावन मुझ से छूटता जा रहा था ...........वृक्ष भी मुझ से मानों पूछ रहे थे ......कृष्ण आएगा ?.....कृष्ण आएगा ?.......कृष्ण आएगा  ?

मैं रो गया था ......मुझे रोना आरहा था  इस श्रीधाम को छोड़ते हुए ......

मैं दूर तक आया .......मैने एक बार पीछे मुड़कर देखा था ........

ओह !   श्रीराधारानी की वो सूनी आँखें........जिनमे आस है  कि   "फिर मिलन होगा".......यशोदा मैया  रोते हुए  देख रही थीं मेरे जाते हुए रथ को .........उफ़ !  वो  माँ की आँखें !   जो अपनें पुत्र के इन्तजार में  हैं ।

नन्दबाबा तो देवता ही हैं ..............सहते रहते हैं  सब कुछ ..........हाँ, रात में अकेले में रोते हैं ...।

ग्वाल बाल !     गोपियाँ !     

उद्धव रथ को रोक देते हैं ..........और  उतरते हैं रथ से ............

और  बड़े उन्माद  के साथ  वृन्दावन की धूल में लोटते हैं  ......।

यहाँ से अब मथुरा की सीमा प्रारम्भ है   ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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