44 आज के विचार
( महारास )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 44 !!
प्रिय सामनें हैं .......उनके आगे, उनके साथ ललित गति से नाचना ।
उनकी ओर देख- देखकर सहज भाव से मुस्कुराना .....प्रिय को प्रेम से निहारना .....उनको जरा भी इधर उधर मुड़ते देख रूठ जाना ......फिर मान जाना ....मान इसलिए जाना क्यों की अभी उन्होंने हाथ जोड़ लिए हैं हमें मनानें के लिए ।
जैसे जैसे वे विहरें, वैसे वैसे उनकी छायाँ बनकर विहरना ।
अपनें होश खो देना .........कोई नही सिर्फ तू ........बस इसी भाव में भावित रहना .............और कोई सत्ता नही .......कोई देश नही .....कोई काल नही .........बस वे हैं, और अलग अलग "मैं" बनी - हम हैं ।
ये प्रेम की एक उन्मदान्ध यात्रा है ............ये प्रेम का पूरा पागलपन है महारास ...........पर पूरे पागल बने बिना महारास में सम्मिलित भी तो नही हो सकते ।
ज्ञान , प्रकाश, अच्छाई ये तो सब दे सकते हैं अपनें प्रियतम को .....पर अपना अंधकार, अपनें हिस्से का पाप , अपनें भाग की बुराई .....इनको देनें का साहस किसी प्रेमी में नही होता ..........बल्कि हम तो अच्छाई को दिखाते हैं अपनें प्रिय को .....और बुराई को हृदय के कोनें में कहीं छुपा लेते हैं ..........और उस पाप को ऐसी जगह छुपाते हैं ........ कि प्रिय कहीं देख न ले ...........ये डर बना ही रहता है ।
पर महारास में सब कुछ प्रियतम के सामनें रखना है ......जीवन का प्रकाश ही नही अंधकार भी ......पुण्य ही नही पाप भी .......अपनी सुन्दरता ही नही भीतर की कुरूपता भी ।
क्यों कि हमारे हृदय में अब वो प्रियतम बैठ चुका है.......अब वह टटोलेगा...पर.डर कैसा ? जब प्रिय अपना है तो पाप भी उघाड़ दो ।
पर याद रखो ! अपनें को पराया समझ, उसे अपना समझो......तब दुराव नही होगा .........तब कोई छुपाव नही होगा .........और छुपाव तो वहाँ होता है ना ........जहाँ उसे अपना न मान कर अपनें को अपना माना जाए ...!
वह सब देख सकता है .......वह सब जगह है .........वह तुम्हारे भीतर भी देख सकता है ....और बाहर भी देख सकता है ........वह सर्वत्र है .......वही है ...........।
उसकी हर ताल में अपनी ताल मिलाना ............यही महारास है ।
उसके हर राग में अपना राग मिलाना ..........यही महारास है ।
उसकी हर इच्छा में अपनें आप को बहा देना .............यही महारास है ।
बस घूमते रहना ....उसके चारों ओर घूमते रहना .........उसकी एक झलक में ही अपनें आपको न्यौछावर कर देना .......यही महारास है ।
सब ले ले मेरा .......मेरा मन , मेरी बुद्धि, मेरा चित्त मेरा अहंकार सब लेले ........तेरे ही रँग में रँग जाऊँ मैं ..............
हे वज्रनाभ ! यही महारास है ।
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कोई नही है इस वृन्दावन में आज .................
न कोई पुरुष है, न कोई स्त्री है, न कोई कृष्ण है न ही गोपी हैं ।
बस रस है .......मात्र एक ही तत्व है इस वृन्दावन में ......वो है रस ।
रस ही गोपी हैं .....रस ही गोपाल हैं .....रस की रसीली ही श्रीराधा हैं.... ...रस ही वृन्दावन है ....उन्हीं रसो के समूह का ही नाम "रास" ......महारास है ।
हे वज्रनाभ ! इस भूमि नें .....इस पवित्रतम भूमि श्रीधाम वृन्दावन में जो रस बरसा ........जिस रस के समूह का एक साथ नर्तन हुआ ........वो देवों को भी और महादेवो को भी चकित करनें वाला था ।
देव विमानों में बैठ अंतरिक्ष में आगये थे .......वे सब अकेले नही थे उनकी पत्नियाँ भी साथ में थीं ..........पूरा अंतरिक्ष विमानों से छा गया था .........और जैसे ही महारास प्रारम्भ हुआ वृन्दावन में .......फूलों की वर्षा शुरू कर दी थी देवों नें........गन्धर्वों नें वाद्य सम्भाले थे .....नारद जी अपनी वीणा बजाते हुए नाच रहे थे ।
हाँ अप्सराओं नें गोपियों की नकल करनी चाही नृत्य में......पर कहाँ ?
हाँ ये गोपियाँ, जो भोग विलास से दूर मात्र विशुद्ध प्रेम की दीवानी ......और कहाँ ये स्वर्ग की अप्सरायें ......जिनका उद्देश्य ही भोग में लिप्त रहना है ..........कोई बराबरी ही नही थी इन दोनों में ।
इन्द्र पत्नी नें अप्सराओं को बिठा दिया ................भद्दा लग रहा है तुम्हारा नाचना ......कहाँ ये देहातीत गोपियाँ और कहाँ तुम ?
अप्सरायें बैठ गयीं ।......श्रीधाम वृन्दावन में महारास चल रहा है ।
कृष्ण नें स्पर्श किया गोपियों को .........बस उन मुरली मनोहर का स्पर्श पाते ही , सन्निधि मिलते ही गोपियों की पद गति तीव्र से तीव्रतम होती गयी .........।
मध्य में रसशेखर श्याम सुन्दर ........अपनी "श्री जी" के साथ ठुमुक रहे हैं ......इतना ही नही .......बाँसुरी भी बजा रहे हैं .......और गा भी रहे हैं .......श्याम सुन्दर और उनकी श्रीराधारानी अन्य गोपियों की ये मण्डली इतनी सुन्दर लग रही थी कि देवों को भी देह सुध न रही ।
अप्सरायें उनकी चोटी ढीली हो गयी ...........उनमें से फूल गिरनें लगे .........साड़ी जो पहनी हुयी थीं.........वो साड़ी खिसकनें लगी ।
उन सबका देह काँपने लगा था ।
इधर वृन्दावन में चाँदनी रात है .............पूर्णिमा है, चन्द्रमा अपनी पूर्णता में खिला है ....यमुना का सुन्दर पुलिन है .............
रासेश्वर नें सप्तम स्वर उठाया ...........और वह गूंजता चला गया ......सारे ब्रह्माण्डों को चीरता वह स्वर ब्रह्म लोक से भी आगे निकल गया था ।
गगन में सब स्तब्ध हो गए थे ......गायन अपनें चरम पर था .........सब नाच रही थीं गोपियाँ ......और द्रुत गति से नाच रही थीं ...... साथ में गायन भी चल रहा था ................
पर अब गायन को रोक दिया गया .......क्यों की ताल की गति तीव्रतम हो रही थी ........अब बस नृत्य हो रहा है ..........बड़ी तेजी से सब नाच रहे हैं .........तीव्रता से नाचनें के कारण .......गोपियों के केश खुल गए हैं ...........बेणी से फूल झर रहे हैं........तीव्रता से नाचनें के कारण गोपियों के वस्त्र भी इधर उधर हो रहे हैं..........उन गोपियों के कुण्डल उनके कपोल को छू रहे हैं ............गले की माला टूट कर इधर उधर बिखर गयी है .......अरुण मुख हो गया है सबका ।
हे वज्रनाभ ! इस महारास में सम्पूर्ण सृष्टि का कण कण अस्थिर हो उठा था ........सब अणु अनन्त काल तक इस नृत्य वेग से नर्तन करते रहेंगें ...........इतना ही नही वायु ही क्यों ....ग्रहों की गति भी थकित हो गयी थी .......केवल कालिन्दी में ही उत्ताल तरंगें उठ रही थीं ।
यमुना का प्रवाह उलटा हो गया था ...........और अनन्त अनन्त कमलों को, लाकर किनारे में ढ़ेर लगा दिया था यमुना नें ।
चीत्कार कर उठीं थीं देव पत्नियाँ ...........ऋषि अंतरिक्ष से .......श्रीकृष्ण चन्द्र जू की जय जय ........आल्हादिनी श्रीराधिका रानी की जय जय .......समस्त सखी वृन्द की ....जय जय ......श्रीधाम वृन्दावन की ....जय जय ................
नृत्य अब बन्द हुआ !
...गोपियों नें प्रगाढ़ आलिंगन किया अपनें प्रिय को ।
एक गोपी नें आगे बढ़कर कृष्ण को चूम लिया ।
एक गोपी नें आगे बढ़कर अपनें द्वारा चर्वित पान कृष्ण के मुख में स्वयं मुख से ही दे दिया........एक गोपी अधर रस का पान कर रही है ।
एक गोपी बस निहार रही है अपनें प्राणेश कृष्ण को ।
रासेश्वर नें अपनी रासेश्वरी की अलकें सुलझाईं .........उनके कपोल को पोंछे अपनें पटुके से ......फिर एक प्रगाढ़ आलिंगन किया ।
हे वज्रनाभ ! गोपियों से अब श्याम सुन्दर नें कहा ........तुम लोग अपनें अपनें घर जाओ ...............
पर हमारे घर वाले ? गोपियों नें मना किया ।
नही ......उन्हें कुछ पता नही है ............उन्हें लग रहा है तुम उन्हीं के पास हो.........इसलिये निश्चिन्त होकर तुम जाओ ........
गोपियों को बड़े प्रेम से कृष्ण नें कहा ............गोपियाँ अपलक नेत्रों से देखती रहीं अपनें प्यारे को........जानें की कहाँ इच्छा थी इनकी ।
ये महारास है वज्रनाभ ! ये दिव्य मधुरातिमधुर महारास है ।
ये योग, ज्ञान, कर्म ,और भक्ति से भी आगे की स्थिति है - महारास ।
ये प्रेम का एक अलग ही छलकता हुआ रूप है..........इसको वही जान या समझ पाता है ......जिसके ऊपर रासेश्वर या रासेश्वरी की कृपा हो.......बाकी तो नैतिकता के छूछे माप दण्ड में ही उलझे रहते हैं ।
इतना कहकर महर्षि उसी रस के,
महारास के अगाध सिन्धु में फिर डूब गए ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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