"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 3

3 आज  के  विचार 

( "भानु" की लली - श्रीराधारानी )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 3 !!



प्रेम की लीला विचित्र है .....प्रेम की गति भी विचित्र है ....

इस प्रेम को  बुद्धि से नही समझा जा सकता है .......इसे तो हृदय के झरोखे से ही देखा जा सकता है ...........।

हो सकता है  मिलन की चाँदनी रात का नाम प्रेम हो ........या  उस चाँदनी रात में  चन्द्रमा को देखते हुए  प्रियतम की याद में आँसू को बहाना .......ये भी प्रेम हो सकता है ........।

मिलन का सुख प्रेम है ..........तो विरह वेदना की तड़फ़ का नाम भी प्रेम ही है .........शायद  प्रेम  का बढ़ना .....प्रेम का तरंगायित होना ........ये विरह में ही सम्भव है .............विरह वो  हवा है    जो  बुझती हुयी  प्रेम की आग को   दावानल बना देनें में  पूर्ण सहयोग करती है ।

कालिन्दी के किनारे   महर्षि शाण्डिल्य  श्रीकृष्ण प्रपौत्र वज्रनाभ को  "श्रीराधा चरित्र" सुना रहे हैं.....और सुनाते हुए भाव विभोर हो जाते हैं ।

हे वज्रनाभ !    मैं बात उन हृदय हीन की नही कर रहा ..........जिन्हें ये प्रेम  व्यर्थ  लगता है ............मैं तो उनकी बात कर रहा हूँ ........जिनका हृदय प्रेम देवता नें   विशाल बना दिया है ........और इतना  विशाल कि  सर्वत्र उसे  अपना प्रियतम  ही दिखाई देता है .........कण कण में ....नभ में  , थल में , जल में........क्या ये प्रेम का चमत्कार नही है ?

इसी प्रेम के बन्धन में  स्वयं    सर्वेश्वर  परात्पर  परब्रह्म  भी बंधा हुआ है .............यही इस  "श्रीराधाचरित्र"  की दिव्यता है  ।

श्रीराधा रूठती क्यों हैं  ?           वज्रनाभ नें सहज प्रश्न किया ।

इसका कोई उत्तर नही है वत्स !       प्रेम निमग्न महर्षि शाण्डिल्य बोले ।

लीला का कोई प्रयोजन नही होता .......लीला  उमंग ....आनन्द के लिए मात्र होती है    ।      हे यदुवीर वज्रनाभ !      प्रेम की लीला तो और वैचित्र्यता लिए हुए है ......इस प्रेम पथ में तो जो भी होता है .....वो सब प्रेम के लिए ही होता है...प्रेम बढ़े.....और बढ़े   बस  यही उद्देश्य है । 

न  .....न ..........वत्स वज्रनाभ !   बुद्धि का प्रयोग निषिद्ध है इस  प्रेम लीला में ............इस बात को समझो   ।

फिर गम्भीरता के साथ  महर्षि शाण्डिल्य  समझानें लगे .............

ब्रह्म की  तीन मुख्य शक्ति हैं ....................महर्षि नें  बताया  ।

द्रव्य शक्ति,  क्रिया शक्ति और  ज्ञान शक्ति ...............

हे वज्रनाभ !    द्रव्य शक्ति  यानि महालक्ष्मी ............क्रिया शक्ति यानि महाकाली........और  ज्ञान शक्ति यानि महासरस्वती  ।

हे वज्रनाभ !   नौ दिन की नवरात्रि होती है  तो इन्हीं  तीन शक्तियों की ही आराधना की जाती है.......एक शक्ति की आराधना  तीन दिन तक होती है ........तो तीन तीन दिन की आराधना..  एक एक शक्ति की........तो हो गए  नौ दिन ......नवरात्रि इसी तरह की जाती है  ।

पर  हे वज्रनाभ !  ये तीन शक्तियाँ  ब्रह्म की बाहरी शक्ति हैं .......पर एक  मुख्य  और इन तीनों से  दिव्यातिदिव्य  जो ब्रह्म की निजी  शक्ति है ....जिसे ब्रह्म भी  बहुत गोप्य रखता है......उसे कहते हैं "आल्हादिनी" शक्ति ..........महर्षि शाण्डिल्य नें  इस रहस्य को खोला  ।

आल्हाद मानें   आनन्द का उछाल ................।

हे वज्रनाभ !    ये तीनों शक्तियाँ     इन आल्हादिनी शक्ति की  सेविकाएँ हैं ........क्यों की  द्रव्य  किसके लिए  ?     आनन्द के लिए ही ना ? 

क्रिया किसके लिए ?    आनन्द ही उसका उद्देश्य है ना  ?

और  ज्ञान का  प्रयोजन भी   आनन्द की प्राप्ति ही है ............।

इसलिये   आल्हादिनी  शक्ति  ही  सभी शक्तियों का मूल हैं......और समस्त जीवों के लिये यही   लक्ष्य भी हैं  ।

फिर मुस्कुराते हुए महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ............ब्रह्म  अपनी ही  आल्हादिनी शक्ति से विलास करता रहता है ........ये सम्पूर्ण सृष्टि  उन आल्हादिनी   और ब्रह्म का विलास ही तो है ...........यानि यही महारास है ...........सुख दुःख  ये हमारी भ्रान्ति है   वज्रनाभ ........सही में देखो  तो  सर्वत्र आल्हादिनी ही नृत्य  कर रही हैं ............।

इतना कहते हुए  फिर   भावातिरेक में डूब गए थे  महर्षि शाण्डिल्य ।

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कहाँ हैं   श्याम सुन्दर ?   

  बताओ   चित्रा सखी !   कहाँ हैं   मेरे कृष्ण !

आज  निकुञ्ज में  आगये थे  गोलोक क्षेत्र से    कृष्ण के अंतरंग सखा ।

वो  श्रीराधा को मना रहे हैं .........रूठ गयी हैं   श्रीराधा  !

इतना ही कहा था   चित्रा सखी नें .....पर  पता नही क्या हो गया  इन "श्रीदामा भैया" को .......क्या हो गया इनको ......आज इतनें क्रुद्ध  ।

निकुञ्ज में प्रवेश कहाँ है  सख्य भाव वालों  का .....पर आज पता नही  निकुञ्ज में  कुछ नया ही हो रहा है ...............।

पैर पटकते हुए   श्रीदामा   चले गए थे   उस  स्थल में  जहाँ श्रीराधा रानी बैठीं थीं ...........ललिता और विशाखा भी  वहीं थीं  ।

क्यों  ?  रूठती रहती हो  मेरे सखा से  तुम ?    

ये क्या हो गया था  आज श्रीदामा को ..........श्रीराधा रानी  भी उठ गयीं थीं .........और स्तब्ध हो   श्रीदामा का   मुख मण्डल देख रही थीं ।

ललिता और विशाखा का भी चौंकना बनता ही था ।

क्या हुआ  श्रीदामा ?      तुम इतनें क्रोध में क्यों हो  ? 

कन्धे में हाथ रखा  श्याम सुन्दर नें ...........कुछ नही  ........कृष्ण !   तुम्हे कितना कष्ट होता है ...........ये  श्रीराधा रानी बार बार  रूठती रहती हैं  तुमसे ............फिर  तुम  इन्हें मनाते रहते हो .........।

पर  तुम अपनें सखा का आज इतना पक्ष क्यों ले रहे हो  श्रीदामा !

क्यों न लूँ ?          मेरा कितना सुकुमार  सखा है .......देखो तो ! 

इतना कहते हुए  नेत्र सजल हो उठे थे  श्रीदामा के ....।

तुम्हे अभी पता नही है ना !   कि विरह क्या होता है .......वियोग क्या होता है .......हे राधे !     कृष्ण  सदैव   तुम्हारे पास ही रहते हैं ना !   इसलिये ............लाल नेत्र हो गए थे    श्रीदामा के  ।

मेरा ये  श्राप है   आपको  श्रीराधे ! ...............श्रीदामा बोल उठे ।

तुम पागल हो गए हो क्या श्रीदामा ?   ललिता  विशाखा बोल उठीं  ।

हाँ  मेरा श्राप है .......कि  तुम जाओ  पृथ्वी में ....और जाकर  एक गोप कन्या के रूप में जन्म लो ............श्रीदामा के मुख से निकल गया ।

और इतना ही नही .......सौ वर्ष का वियोग  भी तुम्हे सहना पड़ेगा ।

मूर्छित हो गयीं  श्रीराधा रानी   इतना सुनते ही ..................

श्याम सुन्दर दौड़े ........अष्ट सखियाँ दौड़ीं .............जल का छींटा दिया ..........पर  कुछ होश  आया  तब   भी   वो   "कृष्ण कृष्ण कृष्ण' .....यही पुकार रही थीं   ।

प्यारी !  अपनें नेत्र खोलो .........श्याम सुन्दर व्यथित हो रहे थे  ।

श्रीदामा को अब अपनी गलती का  आभास हुआ था......मैनें ये क्या कर दिया ......इन दोनों  प्रेम मूर्ति को  मैने  अलग होनें का श्राप दे दिया  ।

तब कन्धे में हाथ रखते हुए  श्रीदामा के ...........श्रीकृष्ण नें कहा ......मेरी इच्छा से ही सब कुछ हुआ है.......हे श्रीदामा !   आप ही  श्रीराधा रानी के भाई बनकर जन्म लोगे .....अवतार की पूरी तैयारी हो चुकी है ................इसलिये  अब  हे श्रीराधे !    जगत में   दिव्य प्रेम  का प्रकाश करनें के लिये ही आपका अवतार होना  तय हो गया है ......।

कुछ  शान्ति मिली  श्रीराधा रानी को .......श्याम सुन्दर की बातों से ।

पर  मेरा जन्म  पृथ्वी में  किस स्थान पर होगा ?   और आपका ? 

हम आस पास में ही प्रकट होंगें .......भारत वर्ष के  बृज क्षेत्र में ......।

हमारे पिता कौन होंगें  ?     श्रीराधा रानी नें पूछा  ।

चलो !   हे  प्यारी !   मैं आपके अवतार की पूरी भूमिका बताता हूँ ।

इतना कहकर   गलवैया दिए  श्याम सुन्दर और  राधा रानी  चल दिए थे  उस स्थान पर .......जहाँ  हजारों वर्षों से कोई तप कर रहा था ।

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हे सूर्यदेव  !   हे भानु !      आप अपनें नेत्रों को खोलिए  !     

श्याम सुन्दर  नें   प्रकट होकर  कहा  ।

सूर्य नें अपनें नेत्रों को खोला ...........पर   मात्र श्याम सुन्दर को देखकर फिर अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया  ।

हे  भगवन् !    मुझे मात्र आपके दर्शन नही करनें ..............मेरे सूर्यवंश में तो आपनें अवतार लिया ही था ............पर  एक जो कलंक आपनें लगाया ..........वो   मैं अभी तक मिटा नही पाया हूँ  ।

मुस्कुराये श्याम सुन्दर ..........."सीता त्याग की घटना" से अभी तक व्यथित हो ......हे  सूर्य देव !  

क्यों न होऊं ?     आपकी विमल कीर्ति में  ये सीता त्याग एक धब्बा ही तो था ...............इसलिये !     

क्या इसलिये ?          मैं तभी अपनें नेत्रों को खोलूंगा  जब  मेरे सामनें  श्रीकिशोरी जी प्रकट होंगीं ..............स्पष्टतः  सूर्य नें कहा ।

तो  देखो   हे सूर्यदेव !      ये हैं  मेरी  आत्मा श्रीकिशोरी जी  ।

यही   सब शक्तियों के रूप में विराजित हैं ........यही सीता,  यही लक्ष्मी ....यही   काली .......सबमें इन्हीं का ही अंश है ............।

हे वज्रनाभ !     सूर्यदेव नें   जैसे ही  अपनें नेत्रों को खोला ..........सामनें दिव्य तेज वाली   तपते हुए  सुवर्ण की तरह  जिनका अंग है ..........ऐसी  श्रीराधिका जी प्रकट हुयीं ..............

सूर्य नें  स्तुति की ..................जयजयकार किया .........।

आप क्या चाहते हैं ?   आपकी कोई कामना ,  हे सूर्यदेव !  

अमृत से भी  मीठी वाणी  में  श्रीराधा रानी नें  सूर्य देव से पूछा ।

आनन्दित होते हुए सूर्य नें .........हाथ जोड़कर  कहा .........मेरे वंश में  श्रीराम नें अवतार लिया था .......पर   आप   का अपमान हुआ ......ये मुझे सह्य नही था ..........श्रीराम  तो अवतार पूरा करके  साकेत चले गए........पर  मेरा हृदय अत्यन्त दुःखी ही रहता था ......कोमलांगी  भोरी  सरला मेरी  बहू  किशोरी को  बहुत दुःख दिया  मेरे वंश नें  ।

तभी से मैं तपस्या कर रहा हूँ ..........सूर्य देव नें अपनी बात कही ।

पर  आप क्या  चाहते हैं  ?    राधा रानी नें कहा ।

इस बार  आप मेरी पुत्री बनकर आओ  ! 

सूर्यदेव नें   हाथ जोड़कर  और  श्रीराधिका जू के चरणों की ओर देखते हुए ये प्रार्थना की   ।

हाँ .........मैं आऊँगी .........मैं  आपकी ही पुत्री बनकर आऊँगी ।

.हे सूर्यदेव !   आप बृज के  राजा होंगें......वृहत्सानुपुर ( बरसाना ) आपकी राजधानी होगी.......और आपका नाम होगा .......बृषभानु .......आप की पत्नी का नाम होगा .......कीर्तिदा  ! 

सूर्यदेव को  ये वरदान मिला .........सूर्यदेव नें    श्रीराधिकाष्टक का गान किया ....युगल सरकार अंतर्ध्यान हुए ।

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पर प्यारे ! आपका अवतार ?   

   निकुञ्ज में प्रवेश करते ही  श्री राधा रानी नें कृष्ण से पूछा  था  ।

मैं ?      मुस्कुराये  कृष्ण ..........मैं  तो एक रूप से वसुदेव का पुत्र भी बनूंगा और  गोकुल में नन्द राय का भी ........देवकी नन्दन भी और यशोदानन्दन भी ...........गोकुल से बरसाना दूर नही हैं .........फिर  हम लोग गोकुल भी तो छोड़ देंगें   और आजायेंगे   तुम्हारे राज्य में ही .....यानि बरसानें में ही  ।

हम यहाँ नही रहेंगी .......हम सब भी जाएँगी ..........

श्रीराधा रानी की अष्ट सखियों नें  प्रार्थना की ......और मात्र अष्ट सखियों नें ही नही ........उन अष्ट की  अष्ट सखियों नें भी .......निकुञ्ज के मोरों नें भी ........निकुञ्ज के पक्षियों नें भी ...............लता पत्रों नें भी  ।

श्रीराधा रानी नें कहा ......... ये सब भी जायेंगें  .............ख़ुशी की  लहर दौड़ पड़ी ....निकुञ्ज में  ।

हे वज्रनाभ !   आस्तित्व  प्रसन्न है .............आस्तित्व अब प्रतीक्षा कर था है  उस दिन की .....जब   प्रेम की स्वामिनी   आल्हादिनी   ब्रह्म रस प्रदायिनी .......श्रीराधा रानी का प्राकट्य हो  ।

वज्रनाभ के आनन्द का ठिकाना नही है.......इनको न भूख लग रही है न प्यास.....श्रीराधाचरित्र को सुनते हुए  ये देहातीत होते जा रहे थे ।

भानु की लली ! या सावरिया सों नेहा ,  लगाय के चली ....!

शेष चरित्र कल -

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