वैदेही की आत्मकथा - भाग 63

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 63 )

पाहि नाथ कहि पाहि गोसाँई...
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

ना  थ !  ! ! !    

मैं  चौंक गयी ,  मुझे आनन्द भी आया ....ये आवाज  भरत भैया की थी ।

ना  थ ! ! ! 

इस बार लक्ष्मण भी  चौंकें  .......आवाज भरत भैया की ही थी ....पर करुणा से भरी हुयी थी .........वो भी इधर उधर देखनें लगे थे ।

पर  मेरे श्रीराम का ध्यान उस और जा ही नही रहा था  ।

श्रीराम ,  लक्ष्मण को जो ब्रह्मज्ञान दे रहे थे नित्य की तरह   वही दिए जा रहे थे .............

वत्स !    शरीर मिथ्या है ........मन  भी  तो मिथ्या हुआ ना !  

ये क्या बात हुयी .......ऐसे समय  में   ये क्या लीला कर रहे थे ।

ना  थ !     ना  थ !    

पास ही आगये थे   भरत भैया .......क्यों की उनकी आवाज  साफ़ होती सुनाई दे रही थी  ।

जब  शरीर मिथ्या है  तो मन को सत्य क्यों समझ रहे हो .........मन भी मिथ्या  .......बुद्धि, चित्त   ये सब भी मन ही हैं ......मन के ही प्रकार हैं ......वत्स !  इस बात को समझना  ।

श्रीराम  लक्ष्मण को आत्मज्ञान दे रहे हैं ............पर   लक्ष्मण का ध्यान  मेरी तरह  भरत भैया की पुकार में ही था  ।

वो भरत भैया की  हल्की आवाज .......जो  निषादराज से बातें करते हुये हमारी ओर ही बढ़ रहे थे .............

आज मै  पिता तुल्य अपनें श्रीराम के दर्शन करूँगा ......हे निषाद राज !

आज मै अपनें प्राण धन "सीता राम" के चरणों को देखूंगा .......उन्हें अपनें नेत्रों से लगाउँगा .........पर ...........फिर मुझे सुबुकनें की आवाज आयी ......भरत भैया  फिर  मार्ग में ही बैठ गए थे  और रो रहे थे.........कहीं  मुझ जैसे पापी भरत का नाम सुनकर  प्रभु यहाँ से चले तो नही जाएंगें ?       क्या निषाद राज !   ये हाथ  उन पवित्र चरणों को छूनें के अधिकारी हैं  ?       ओह !  कैकेई पुत्र !    मेरे नाम के साथ  ये "कैकेई" कलंक भी तो जुड़ा है ना  ........।

ये सब कहते हुये   रो रहे  थे भरत भैया .................।

नही  भरत जी !   आप उठिये ......करुणानिधान श्रीराम  आपको देखकर प्रसन्न होंगें .........आप  के समान भक्त  कौन होगा   इस जगत में ।

निषाद राज नें  समझाया था ......शायद हाथ पकड़ कर भरत भैया को उठाया ...........शत्रुघ्न कुमार   की हल्की   आवाज मुझे  सुनाई दी थी ....भरत भैया !    प्रभु  यहीं  आस पास  ही हैं ..........।

क्या  मेरे नाथ  यहीं आस पास हैं  ? 

भरत  उठे थे ......और   वृक्षों से गले लग कर रोनें लगे थे ..........

ये वृक्ष भी भाग्यशाली हैं ना  इस चित्रकूट के  ?  

शत्रुघ्न !     ये   वन , यहाँ के  पशु पक्षी.......ये सब  नित्य मेरे श्रीराम के दर्शन करते होंगें ना  ? 

धीरे धीरे  बढ़ते आरहे थे,   अब  भरत भैया ....................।

एक अलग ही ऊर्जा फ़ैल रही थी पूरे चित्रकूट  में ............

प्रेम की ऊर्जा.......निष्काम प्रेम की सुगन्ध ..............।

तभी मैने देखा .............सामनें भरत भैया .......शत्रुघ्न कुमार ...निषाद राज .............मै उठी   ।

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वो देखो ! भरत जी !    वो वट वृक्ष के नीचे ..................

निषाद राज नें जहाँ  इशारा  किया था.....उसी ओर तो देख ही रहे थे  भरत भैया  ।

अपलक नेत्रों से देख रहे थे   भरत .................

कितना सुन्दर रूप है ना  प्रभु का  !

हाँ .....कितना सुन्दर !   भरत भैया  मुस्कुराते हुये  नयनों से अश्रु बहाते हुये   प्रभु के रूप को निहार रहे थे ......उन्हें देह भान कहाँ था !

कुशा के आसन पर ,  सिंह स्कन्ध वाले रघुत्तम श्रीराम .......इन्दीवर सुन्दर, जटाधारी, वल्कल वसन पहनें हुए .......शान्त भाव से विराजमान  श्रीराम  ।

मेरे नाथ !  मुझे अपनाओ ! मेरे नाथ !   इस अधम भरत को क्षमा करो ।

भरत भैया  दौड़े ........और दौड़ते हुए  धरती में गिर पड़े .......धूल शरीर में लग गयी .......पर   वहीँ से  धरती में ही  साष्टांग प्रणाम करते हुये  तेज़ी से  आगे आनें लगे थे  ।

उस "भरत प्रेम" की ऊर्जा  वन प्रान्त में फ़ैल चुकी थी ............

पशुओं  को तो  अश्रु बहाते  हुये देखा जा सकता था उस समय....पक्षी मूक हो गए थे....उनके समझ में नही आरहा था  कि ये हो क्या रहा है ।

अरे ! इतना ही क्यों ..............पाषाण पिघलनें लगे थे .............।

प्रेम का चमत्कार मैने  चित्रकूट में देखा  ।

अब लक्ष्मण से रहा नही गया .............उठे  और   जब भरत भैया को देखा .................नाथ ! नाथ ! कहते हुये  साष्टांग प्रणाम करते हुए चले आरहे हैं .................तब  -

प्रभु !  भरत भैया .....   देखो ना प्रभु !  भरत भैया .....

उठो  आर्य !    भरत भैया  कितनी देर से  आपको पुकारे जा रहे हैं ......उठो .........उन्हें  अपनें हृदय से लगा लो   ।

लक्ष्मण नें  रोते हुये  श्रीराम से कहा था  ।

मै वैदेही  अब समझी .......कि भरत  की ओर देख क्यों नही रहे थे  मेरे श्रीराम......क्यों की लक्ष्मण के  कहनें की प्रतीक्षा कर रहे थे .........

श्रीराम चाहते थे  कि लक्ष्मण ही कहे की ...  भरत आये हैं   उन्हें  अब तो  हृदय से लगा लो .......................

क्यों की लक्ष्मण नें भरत भैया को बहुत बुरा भला कहा था ।

कहाँ है भरत !        श्रीराम उठे .........बोल  लक्ष्मण !  कहाँ है भरत !

ओह !  ये क्या हो गया था मेरे श्रीराम को ..............

दौड़ पड़े   श्रीराम ............भरत  के पास  ।

भरत तो    जमीन में  साष्टांग प्रणाम करते हुये  आरहे हैं ............

गए .............भरत !  उठ भाई !  उठ   !

भरत को पकड़ा  और  उठानें लगे ..............

नही  नाथ !  इन  चरणों में ही रहनें दो ...................

पागल  उठ !   मेरे हृदय में है तेरा स्थान तो भरत !  

नही ...नाथ ! नही ..........भरत तो इतना पापी है कि    आपके चरणों में भी इसका स्थान नही है ........रो  रहे हैं  भरत भैया ।

मेरे श्रीराम नें   जबरदस्ती  उठाया भरत को ...................

और  अपनें हृदय से लगा लिया ................

देवों नें पुष्प बरसाए ..............पक्षियों का  कलरव गूँज उठा ।

चित्रकूट के ऋषि  जिनकी आँखें आज तक सूखी थीं.......वो बह चली  ।

भरत भैया और मेरे श्रीराम  दोनों गले  मिल रहे थे ........................

मै वैदेही,      क्या लिखूँ  उस  प्रसंग के बारे में ........

प्रेम शब्दातीत होता है ................।

शेष चरित्र कल ..............

Harisharan

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