वैदेही की आत्मकथा - भाग 62

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 62 )

भरतहि होई न राज मद, बिधि हरि हर पद पाई...
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही  !

नही लक्ष्मण !   नही  ।    ऐसे उत्तेजित नही होते भाई  ।

लक्ष्मण को बाण सन्धान करते हुये  जब  मेरे श्रीराम नें देखा  तो उठकर खड़े हो गए ......और  लक्ष्मण को  अपनें हृदय से लगा लिया था ।

भाई !   मुझे पता है  तुम्हारा शौर्य  अद्भुत है ........तुमसे कौन जीत सकता है ......काल को भी पराजित करनें का साहस रखते हो तुम लक्ष्मण !

पर  वो मेरा भरत है  !       ये कहते हुये  करुणा से भर गयीं थीं आँखें मेरे श्रीराम की   ।

भरत  पर मुझे  इतना विश्वास है  कि.......पश्चिम से सूर्य उदित हो सकता है.....पर  मेरे भरत को  अयोध्या का पद  अहंकारी नही बना सकता.....अरे !   अयोध्या का राज्य क्या ,  विधाता ब्रह्मा की  पदवी या  विष्णु की पदवी भी मिल जाए ना   तब भी  भरत को अहंकार नही होगा ।

लक्ष्मण !   ये बाण का सन्धान क्यों ?      भरत के लिए ? 

मेरे श्रीराम नें लक्ष्मण की और देखते हुए पूछा था  ।

लक्ष्मण  सिर झुकाकर खड़े हैं .........।

लक्ष्मण !      तुमनें कहा ......कि भरत मुझे मारनें आरहा है .......और कारण तुमनें ही  स्वयं सोच लिया कि .......अयोध्या चौदह वर्ष के बाद मै जब जाऊँगा   तब मुझे राज्य सौपना पड़ेगा,   इसलिये भरत मुझे मारना चाहता है  ?         तुमनें यही कहा ना  लक्ष्मण ?

पर  लक्ष्मण !  भरत मुझे जानता है ............मुझे  इसकी भनक भी लगी कि भरत के मन में ऐसा है .........तो  ये राम  स्वयं  जीवन भर वन में रहेगा ......और  लौटकर कभी अयोध्या नही जाएगा ......।

क्यों की राम के लिये  परिवार में   प्रेम, शान्ति,   यही मुख्य है  ।

मेरे कारण अगर मेरा भाई भरत दुःखी है ...........तो इस राम के शरीर धारण करनें का औचित्य  ही क्या ?       मर जाएगा ये राम ......पर  अपनें भाइयों को दुःखी नही करेगा .................।

मेरे भाई, मेरे स्वजन, मेरे आश्रित जन   ये सब सुखी रहें   यही तो  जीवन व्रत है  राम का ............।

गम्भीर होकर  बोल रहे थे  मेरे श्रीराम .....लक्ष्मण से .......मै देख रही थीं  उन्हें  और लक्ष्मण को   ।

पर एकाएक  रघुवंश  का रथ   दिखाई दिया  श्रीराम को ..............माथे में  चिन्ताओं  की लकीरें साफ़   दिखाई देनें लगीं ...............

लक्ष्मण !    सचमुच  चिन्ता की बात है ये तो ........रथ तो  अवध का ही है ..........हमारे पिता जी का रथ है  ।

फिर श्रीराम     दूसरे टीले पर  खड़े हो जाते हैं ................और रथ को  गौर से देखते हैं   ।

पर लक्ष्मण !  रथ में कोई नही है ............मात्र  सारथि है  रथ में तो !

भरत कहाँ है  ?             

उनकी आँखें भरत को ही खोज रही थीं ..................

तीसरे टीले में जाकर  फिर खड़े हो गए  श्रीराम .........इधर उधर  दृष्टि दौड़ाते रहे ........पर  ।      लक्ष्मण !    बता ना !  मेरा  भरत कहाँ है   ?      रथ तो खाली है ......और रथ तो   चल भी नही रहा  ।

मै देख रही थी अपनें प्राणनाथ के मुखमण्डल को .............उनके मुखमण्डल में   बेचैनी साफ़ देखी जा सकती थी आज  ।

वहीं  एक शिला थी .........उसी में धम्म् से बैठ गए  ...........

भरत  कहाँ है ?   भरत कहाँ है  ?    
बस यही बोले जा रहे थे........मेरे श्रीराम   ।

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भगवन् !      भरत  चतुरंगिनी सेना लेकर आगये हैं  ।

भीलों का मुखिया आगया था  और उसनें  आकर  फिर ये समाचार दी ।

चेहरा कुछ खिला  मेरे श्रीराम का  .....पर वे कुछ बोले नही  ।

भगवन् !     आना भी था  तो अकेले  या कुछ मित्रों के साथ आजाते ....इस जंगल में  इतनी सेना  लेकर आने का औचित्य क्या  ? 

भील लोग भी समझ नही पा रहे थे   ।

पर  मुखिया बोल गया ...........हम गरीब सही    .........हम भोले सही ....पर हमारा एक रूप और भी है .........हम क्रूर  से भी महाक्रूर है  ।

मृत्यु से खेलना  हमारा प्रिय खेल है .................

आप तनिक भी चिन्ता ना करें  भगवन् !         भले ही हमारे प्राण चले जाएं  पर आप तक  उस भरत को पहुंचनें नही देंगें  !

मुखिया  आक्रोशित था......क्रोध के कारण उसका शरीर काँप रहा था  ।

मुखिया जी  की जय हो ...............।

एक  भील आया  और  सन्देश लाया था मुखिया  के लिये ।

क्या बात है  बोलो ...............मुखिया   नें कहा  ।

भरत के साथ  हमारे राजा  निषाद राज जी भी  हैं ..........

सिर झुकाकर  उस भील नें सुचना दी  थी ।

क्या !       मुखिया चौंक गया  .............

कहीं हमारे राजा निषादराज  को  भरत नें बन्दी तो नही बनाया  ?

नही ......मुखिया जी !  नही .......हमारे राजा निषाद राज जी तो  बड़े आनन्दित हैं भरत के साथ .......इतनें आनन्दित तो हमनें आज तक नही देखा था  अपनें राजा निषाद राज को  ।

चिन्ता में पड़ गए थे मुखिया भी..........कि भरत  क्यों आया है ? 

मुखिया जी !    फिर  एक और भील आया......वो भी सूचना लाया था ।

क्या बात है बताओ  ?  

मुखिया जी  !    भरत पैदल चल रहे हैं ........उनकी जटायें बढ़ी हुयी हैं ।

उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं .........उनके वस्त्र भी  वनवासियों की तरह ही हैं......और  हमारे राजा  निषाद राज भी  पैदल ही  आरहे हैं .......सेना को रोक दिया है.........कुछेक   होंगें  चार  या पाँच लोग ........वही आरहे हैं ......और सब लोग   -

"राम राम राम राम राम राम राम राम राम"     यही कहते हुए  इस ओर ही आरहे हैं   ।

उस भील की बात सुनते ही    मेरे  श्रीराम गम्भीर हो गए थे .......

मैं  उनको ही तो देख रही थी.......उनके मुखारविन्द की  ओर ही तो मेरी दृष्टि थी........मै समझ नही पाई........कि ये क्या होगया  मेरे श्रीराम को .........गम्भीर हो गए ,  और   जिस तरफ से  भरत भैया आरहे हैं .....उस तरफ  तो अपनी पीठ कर ली ........और  ऐसे बैठ गए   जैसे   उन्हें मतलब ही नही हो  भरत से  ।

ये क्या  हो गया था एकाएक उन्हें................मै समझ न पाई ।

शेष चरित्र कल ..........

Harisharan

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