वैदेही की आत्मकथा - भाग 60

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 60 )

राम राम कही राम कही ......
( रामचरितमानस )

**कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही  !

"पिता जी !     नही ......आप ऐसे  हमें छोड़कर नही जा सकते !

माँ !  आपके वस्त्र सफेद क्यों है  ?   सफेद वस्त्र तो  विधवा के होते हैं ।  

भरत भैया !     आप   इतनें लोगों को लेकर  चित्रकूट क्यों आये  ?

हट्ट !    ये शियार क्यों रो रहा है   आज  ?     

सीते !     सीते !   उठो ...क्या हुआ    ?   तुम नींद में क्या बोल रही हो ?

मै सो रही थी .........और ये सब बड़बड़ा रही थी ..............मेरे श्रीराम नें मुझे  उठाया था ...........।

ओह !  स्वेद स्नान कर ली थी मैं  तो.....पसीनें से नहा गयी थी....जैसे ही  उठकर मैने  श्रीराम को देखा.....उनके हृदय से लग गयी  ।

मेरा सपना झूठ हो .........हे  नाथ !    मेरा सपना झूठा निकले  ।

मै रोये  जा रही थी और यही कह रही थी ...........।

पर हुआ क्या  सीते !   इस तरह  घबड़ाओ मत......बताओ तुमनें क्या देखा  !    बोलो  !   मैथिली !    तुमनें क्या देखा  स्वप्न में  ?

मै शून्य में तांकनें लगी थी ..........ओह !     अयोध्या का दीया बूझ गया था ......अयोध्या में चारों और अँधेरा !.....मैने यही तो देखा सपनें में  ।

......चिता की धड़कती अग्नि  में  चक्रवर्ती महाराज दशरथ  !  

और ! और ! ............मैं  अभी भी   घबराई हुयी  हूँ ...........।

लो ! जल पीयो ........मृत्तिका के पात्र में जल था ..........मेरे श्रीराम नें  जल  मुझे पिलाया ........

हाँ  अब बताओ   .....क्या देखा  स्वप्न  वैदेही  ! 

मै  सुनानें लगी थी सपना.......वो भयानक  स्थिति अयोध्या की ......।

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नही !  सुमन्त्र !   तुम झूठ बोल रहे हो ...........कहो ना !    कि  राम तुम्हारे साथ आये हैं  !   

देखो !  मेरी परीक्षा मत लो तुम सुमन्त्र !   कहीं मेरे प्राण न निकल जाएँ !

ऐसे मत कहिये महाराज !       तभी आगे आयीं थीं कौशल्या माता ।

पूछो ना !  कौशल्या !  पूछो ना इस सुमन्त्र से .............कि मेरा  राम कहाँ है   मेरी सीता,  मेरा लक्ष्मण  ?   

सिर झुकाकर खड़े हैं  सुमन्त्र और रो रहे हैं   ।

आप धैर्य रखिये महाराज !  चौदह वर्ष की ही तो बात है  ............

क्या !   नही  आया मेरा राम !    सुमन्त्र !  तुम तो बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे  .....फिर क्यों  नही ला सके  मेरे राम को .....बोलो  ?  

नही नही .........मुझे  श्राप मत दो ।

 .....कौशल्या !  मुझे बचाओ ....वो देखो  !  श्रवण कुमार के  अन्धे माता पिता  मुझे श्राप दे  रहे हैं........श्रवण कुमार को मैने मार दिया ना .....मेरे शब्द भेदी बाण गलती से उसे लग गए ना ! 

अब ये  अन्धे  माता पिता मुझे श्राप देंगें ..........देख !  दे रहे हैं ......

सुना !  सुना  कौशल्या !    .......नही  .......मत दो मुझे श्राप....  गलती से मेरे बाण  तुम्हारे पुत्र को लग गए हैं .......मत दो श्राप ।

पर.....कौशल्या !   श्राप दे दिया मुझे.......मुझे श्राप दिया है   ये कहकर   कि  "तुम भी अपनें पुत्र के वियोग में मरोगे"  

आर्य !     मैने सपना देखा ..............पिता जी  देह त्याग दिए  ।

फिर ?   आगे क्या देखा तुमनें सीते  ! 

मेरे श्रीराम  बड़ी बैचेनी से पूछ रहे थे ............।

भरत  भैया  आये ..............अपनी माता कैकेई के महल में गए .....उनके साथ शत्रुघ्न भी थे  ।

कैकेई   के मुख से  सारी बातें  आदि से अंत तक सुनीं ........भरत नें ।

जा !     आज के बाद  ये भरत तेरा पुत्र नही है ........कैकेई !   जा  तू मेरी माँ नही हैं ......तेनें मुझे जन्म लेते ही मार क्यों नही दिया !  

मै रोती जा आरही थी ...और  अपनें  प्राणनाथ को  सपना सुना रही थी ।

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आ गया मेरा  राम !       आजा !   मैं तेरा ही  इंतज़ार कर रही थी ।

पर तू  रो क्यों रहा है   मेरे राघव !      कौशल्या माँ  भरत को देखकर  भावावेश में बोल रही हैं   ।

अच्छा !   सुबह से कुछ खाया नही है क्या  तेनें ?     रुक !   मैं  अभी तेरे लिये कुछ लाती हूँ ..............।

मैं  भरत हूँ  माँ !  मैं  आपका और  सम्पूर्ण अयोध्या का अपराधी भरत !

भरत !        कुछ  देर  सोचती हैं .........पर मेरा राम कहाँ है ?  

सब कुछ  याद आजाता है  माँ कौशल्या को ...........ओह !  

वो तो वन में गया है ना .......सीता भी गयी ......लक्ष्मण भी गया  ।

नंगे पाँव चल रहे होंगें ना ........ओह ! कोमल चरण हैं मेरे राघव के ........काँटे गढ़ रहे होंगें ............वो मेरी  बहु सीता ..........भूख लगती होगी  तो क्या खाते  होंगें  ?  

कहाँ सोते होंगें  ?    

आपका  अपराधी  तो ये भरत है  ना  माँ !  चरण पकड़ लिये थे भरत नें ।

आप मार डालो ..........इस भरत को ...............।

भरत !      तू  तो निर्दोष है रे !      और निर्दोष तो  कैकेई भी है ....पर पता नही विधाता नें  उसे   कहीं का नही छोड़ा .......तू कुछ बोलना नही  उस बेचारी को  .................।

छोड़ माँ ..................

चिता में  महाराज चक्रवर्ती  श्रीअवधेश का शरीर ...............

मै ये बताते बताते रो गयी थी ......................प्रभु श्रीराम भी  अपनें आँसू पोंछ रहे  थे  ।

फिर सभा लगी ............हजारों  लाखों  अवध के नर नारी ..........

पर ये सभा  राजा से शून्य थी .......................

हे भरत !    तुम  राजा बनो !   राज्य का भार तुम सम्भालो  !

गुरु वशिष्ठ जी नें   भरत से कहा  ।

भरत भैया  नजर झुकाकर ही बैठे रहे ...................

पुत्र   भरत !  तुम राज्य का भार स्वीकार करो .............हमारे कुल की यही रीत है .......वचन का पालन करो  पुत्र !    

भरत से माँ कौशल्या जी नें   कहा था  ।

नाथ !     ये कैसा सपना है ?       

मैने अपनें श्रीराम से पूछा  ।

सीते !  ये सपना है .......सपनें को सपनें की तरह ही लो  ।

अच्छा आगे क्या हुआ  ?         बताओ  मैथिली !   आगे क्या देखा तुमनें  सपनें में  ? 

मैं     शोकाकुल हो उठी थी............पर मेरे श्रीराम नें  मुझे आगे का  सपना  सुनानें को कहा.......मैं   अपनें आपको सम्भाले  आगे का सपना सुनानें लगी थी ...........

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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