आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 59 )
सुनहिं लखनु सिय अति सुख माना ..
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
वो सन्ध्या कुछ दिव्य थी .........क्यों की चित्रकूट में ज्ञान की सरिता बहा रहे थे मेरे श्रीराम ।
हे लक्ष्मण ! ये मनुष्य तीन गुणों में आवद्ध है ......तमोगुण, रजोगुण, और सत्वगुण.......हे लक्ष्मण ! इन्हीं तीन गुणों के कारण ही मनुष्य कभी शान्त अनुभव करता है ....तो कभी अत्यंत क्रोधासक्त होकर दूसरे को कष्ट भी पहुँचाता है .... कभी तमोगुण के अति होनें से वो जीव आलस, दीर्घसूत्री बना हुआ मूढ़ता को प्राप्त होता है ........।
हे लक्ष्मण ! जैसे तमोगुणी जीव आलस्य प्रधान होता है.........रजोगुणी क्रोध और महत्वाकांक्षा में ही रहना पसन्द करता है .........
सत्वगुणी जीव शान्त अनुभव करता तो है .................पर वह सात्विक वृत्ति भी तो स्थिर कहाँ रहती है ..........।
इसलिये हे लक्ष्मण ! इन तीनों गुणों से पार जाना आवश्यक है ।
कैसे नाथ ! कैसे ? लक्ष्मण नें हाथ जोड़े, फिर पूछा ।
इन तीन गुणों से पार जानें का उपाय है.........सत्, चिद्, आनन्द की उपासना........तब मनुष्य न दुःख से विचलित होगा न सुख से ।
फिर वो एक रस , एक स्थिति में सदा बना रहेगा ..........उसे आनन्द की आवश्यकता होगी ही नही ....क्यों की वो नित्य निरन्तर आनन्द के मूल से जुड़ चुका होगा ।
हे लक्ष्मण ! जीव की मुख्य खोज होती है .....सुख .........वो कुछ भी करता है सुख के लिये ही करता है........चाहे वो पाप कर्म ही क्यों न करता हो ............पर उसे सुख मिलता कहाँ है ...........क्यों की उसकी दिशा ही गलत है लक्ष्मण ! मनुष्य जब तक अपनें मूल को त्याग कर इधर उधर से सुख की चाह करता रहेगा ...........तब तक वो दुःख के भँवर में ही डूबता और उवरता रहेगा .........।
मूल क्या है नाथ ? लक्ष्मण नें फिर प्रश्न किया था ।
जीव का मूल है ईश्वर ................ईश्वर को छोड़कर सुख की चाह संसारियों से करना ये बुद्धिमानी कहाँ है लक्ष्मण ?
हे नाथ ! आपनें कहा ...............सत्, चिद् आनन्द ही हमारा मूल है ....इसको पकड़नें से हमारे तीन गुण जिनमें हम बंधे हैं ...........उससे हम मुक्त हो जायेंगें .......इसपर कुछ कहनें की कृपा करें नाथ !
लक्ष्मण नें फिर आग्रह पूर्वक पूछा ।
मुस्कुराये मेरे श्रीराम ............और फिर बोले .......
नही लक्ष्मण ! तीनों गुणों के बन्धन से मुक्त होनें के लिये ........सत्, चिद्, आनन्द में से एक का भी तुम आश्रय ले लोगे ना .....तो तुम मुक्त हो ।
अब इस बात को समझो........जैसे - सत् का मार्ग है ...योग का मार्ग ।
चिद् का मार्ग है ..... ज्ञान का मार्ग .............और आनन्द का मार्ग है भक्ति का मार्ग ..........।
हे लक्ष्मण ! इन तीनों मार्गों में से किसी भी एक मार्ग का आश्रय तुम दृढ़ता से कर लेते हो तो समझो तुम्हारे सारे बन्धन कट गए और तुम मुक्त हो गए ..............।
हे नाथ ! इन तीन मार्गों में से श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है ?
हे लक्ष्मण ! मार्ग तो सभी श्रेष्ठ हैं ......योग का मार्ग भी , ज्ञान का मार्ग भी, और भक्ति का मार्ग भी .........।
लक्ष्मण ! एक बात अच्छे से समझो ...........अहंकार ही सब दुःखों को देनें वाला है ..................जैसे - भोगों में सुख बुद्धि ..........ये मानना की मदिरा का पान करके हमें सुख मिलेगा ......या उस स्त्री देह या उस पुरुष देह को प्राप्त करनें पर ही हमें सुख मिलेगा .....या इतना धन मिल जानें पर ही हमें सुख मिलेगा ........।
हे अनुज लक्ष्मण ! ये बातें अंहकार के कारण ही हमारी बुद्धि में आते हैं .............जैसे देहाभिमान के कारण ही मैं सुन्दर ......मेरा शरीर सुन्दर मुझे सुन्दर देह वाली ही चाहिए .........भोगेच्छा , काम, क्रोध , लोभ, मोह, मान , ईर्श्या, ये सब देह में अहंकार के उत्पन्न होनें पर ही होते हैं ...........इसलिये अंहकार को शीघ्र गलाना आवश्यक है ।
हे लक्ष्मण ! इन तीन मार्गों में योग, ज्ञान और भक्ति ............मेरी दृष्टि में और मेरे मत में तो भक्ति ही एक ऐसा साधन है ......जो शीघ्र अहंकार को गला देती है .............।
योग में अहं शेष रहता है ......जब तक पूर्णता में योगी नही पहुँच पाता ।
ज्ञान में भी "मै" ज्ञान लेनें वाला .............।
पर भक्ति में ...................तेरा सब कुछ तेरा .............मै करनें वाला भी नही .............तू ही करा रहा है .............सब कुछ तू ही है ।
हे लक्ष्मण ! मेरा भक्त योगी, ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है .........क्यों की उसनें अहंकार को मुझ से जोड़ दिया है ............।
हे नाथ ! गुरु कौन है ? और क्या गुरु बनाना आवश्यक है ?
हे लक्ष्मण ! स्वयं का विवेक ही गुरु है .............ज्यादा सम्बन्ध बढ़ानें से भी कोई लाभ नही है .................
पर विवेक न हो तो ?
सत्संग बहुत आवश्यक है लक्ष्मण ! सत्संग से ही विवेक की प्राप्ति होती है ।
और जब विवेक जाग गया .......फिर ज्यादा गुरु, देह धारियों को बनानें से कोई लाभ नही है ........हाँ लक्ष्मण ! श्रद्धा रखो ..........क्यों की सबमें ईश्वर है ..............पर चिपको मत किसी से ....उससे कोई लाभ नही है ....सीधी निष्ठा ईश्वर से ही रखो ना .............किसी देह धारी से रखनें से क्या होगा ?
ये सुनकर लक्ष्मण जी शान्त चित्त हो गए थे ।
मै अध्यात्म के रहस्य को समझ गयी थी .................
समस्त ऋषि मुनि शान्त भाव से मेरे श्रीराम को प्रणाम करते हुए अपनी अपनी गुफाओं में चले गए ..................।
मेरे श्रीराम का ये ज्ञान जो जीवन में उतरेगा ........वो सदैव आनन्द में रहेगा.....उसे कोई दुःख छु नही सकता .................।
शेष चरित्र कल ...
Harisharan
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