आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 58 )
आवत देखी सकल मुनि वृन्दा ...
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
चित्रकूट की सन्ध्या .......सायंकाल ...............
वट वृक्ष के नीचे विराजें हैं मेरे श्रीराम ..............
आस पास की गुफाओं से निकल निकल कर आजाते हैं बड़े बड़े ऋषि मुनि .................उनका आदर सत्कार अपनी वाणी और दोनों कर जोर कर करते हैं मेरे श्रीराम ।
मै भी बैठ जाती हूँ ................सत्संग सुननें के लिये ।
मेरे पास भीलनियाँ हाँ कुछेक ऋषि पत्नियां भी........बैठ जाती हैं ।
शीतल हवा चल रही है ...............सुगन्धित वातावरण हो गया है ।
हे रामभद्र ! हमें आपसे आज ये पूछना है कि सन्त किसे कहते हैं ?
एक ऋषि नें उठकर मेरे श्रीराम से पूछा था .........।
नही नही .....ये प्रश्नोत्तरी का प्रसंग आज ही नही हो रहा था .......ये नित्य का नियम ही था .......सन्ध्या के समय ।
और कुछ प्रश्न हैं ?
मुस्कुराते हुये श्रीराम नें सभी ऋषि मुनियों की ओर देखा ।
जी ! राम भद्र ! प्रश्न बहुत हैं .................पर आप के ही द्वारा सही समाधान मिलेगा इसलिये आपसे ये सब प्रश्न कर रहे हैं हम ।
हे राम ! आप जो कहेंगें हमारे लिये वही वेद वाक्य हैं ..........क्यों कि हमारे गुरु महर्षि वाल्मीकि जी नें हमें कहा है .........आप ही पूर्णब्रह्म हैं ।
तो हे रामभद्र ! ब्रह्म की श्वास ही तो वेद है ................इसलिये ही हमें आपकी वाणी पर पूर्ण विश्वास है ।
आप निःसंकोच पूछें ........................श्रीराम नें कहा ।
सन्त कौन हैं ?
सत्संग क्या है ?
जीवन में विषयों से वैराग्य कैसे आवे ?
मन आपके चरणों में कैसे लगे ?
ऋषि गण पूछते थे ..............और मेरे श्रीराम उनका उत्तर बड़ी मधुरता से .........सरलता से देते .........।
नही नही .....ये सारे प्रश्न एक ही दिन में किये गए थे....ऐसा नही है ....और इनके उत्तर भी एक ही दिन में नही दिए .........
ये सत्संग नित्य चलता था .....सायंकाल के समय ..............
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हे ऋषि ! जिनमें नाम मात्र का व्यक्तित्व शेष रह गया हो उसे ही "सन्त" कहते हैं । सन्त की परिभाषा मेरे श्रीराम नें बताई ।
क्यों की अध्यात्म की और गति हो जानें पर तो स्वाभाविक रूप से शरीर का मोह, और अपना स्वार्थ घटनें लग जाता है .........और घटना भी चाहिये ........हे ऋषि ! अध्यात्म के मार्ग पर चलनें पर भी अगर नाम, प्रतिष्ठा , इस नाशवान शरीर की और आसक्ति बनी रही ....तो वह अध्यात्म की और बढ़ ही नही रहा.......फिर ऐसे को आप सन्त कैसे कह सकते हैं .............उसे व्यापारी कहिये ।
मेरे श्रीराम जब चित्रकूट में बोलते थे ......सन्तों और ऋषियों के मध्य में तब ऋषि गण मन्त्रमुग्ध होकर उनको सुनते रहते थे ..........नही नही मैने तो देखा है ........पक्षी भी मौन व्रत धारण कर लेते थे .........जब मेरे श्रीराम बोलते .........वो मेरी चंचला गिलहरी ...जिसका मैने नाम रखा था ......शुभा ..........ये नाम क्यों रखा था अभी मुझे याद नही आरहा ।
पर वो मुझे बहुत प्यारी लगती थी .....इधर उधर फुदकती रहती ......पर सांयकाल के समय वो शान्त मेरी गोद में पड़ी रहती ........सुनती रहती मेरे श्रीराम की अमृतमय वाणी ।
जैसे जैसे मनुष्य अध्यात्म की और बढ़ता है .........वैसे वैसे आत्मा के जो शाश्वत गुण हैं ............वो उस मनुष्य में प्रकट होनें लग जाते हैं ।
और जब आत्मा के गुण प्रकट होते हैं .......तब उस मनुष्य को ये समझ आजाती है कि "बाकी तो नाशवान है" !
मेरा ये शरीर ......जैसा आज है वैसा कल नही रहेगा .............परसों तो राख ही बननें वाला है .........फिर इस देह का अभिमान क्यों ?
नाम ? मेरा नाम हो ? अरे ! किसका नाम ? शरीर का नाम ?
जब शरीर ही मिथ्या है तो उसके नाम के लिए क्यों दुःखी हों .......उस मिथ्या देह का नाम भी तो मिथ्या ही हुआ ना ?
हे ऋषि ! आत्मा अनाम है ........आत्मा का कोई नाम नही ।
सन्त उसे ही कहते हैं .....जिसनें अपनें व्यक्तित्व का लगभग अंत ही कर दिया ..........वही तो सन्त है ।
और ऐसे सन्तों के पास जानें से अपनें में भी वैसे गुण प्रकट होनें लग जाते हैं ...........हमारी भी दिशा बदल जाती है ।
ऐसे सन्तों का संग ही .....सत्संग कहलाता है .........।
हे ऋषि ! हम जैसे लोगों का संग करते हैं ....हम वैसे बनते हैं ।
इसलिये हमें संग पर विशेष ध्यान देनें की आवश्यकता है ।
एक क्षण का संग भी हमारे जीवन की दिशा बदलनें के लिये काफी है ।
इसलिये जैसे भी हो ......सत्संग मिले यही प्रयास रहना चाहिये ।
सत्संग के अभाव में ही मनुष्य दुःखी होता फिरता है ..........मन में क्लेश लेकर रात दिन रोता रहता है ..........
हे ऋषि ! देखा जाए तो अज्ञानी ही कहे जायेंगें वे लोग ............जो छोटी छोटी वस्तु के लिये दुःखी होते हैं ...................दुःखी होनें से क्या लाभ ? दुःखी होना कोई समाधान तो नही है ..........पर कौन समझाये इन लोगों को ..........।
फिर क्या करे वो दुःखी मनुष्य ? एक युवा ऋषि नें पूछा ।
हे ऋषि ! जब जीवन में दुःख आये ......तब वो मनुष्य ऐसे व्यक्ति की खोज करे .......जिसकी महत्वाकांक्षा ना के बराबर हो .........जो कुछ न होते हुये भी प्रसन्न हो .........जिसके देह के परमाणु से सकारात्मकता की सुगन्ध निकल रही हो ..............जो प्रसन्न हो और अपनें आस पास के वातावरण में प्रसन्नता को बाँट रहा हो ।
जिसके मन में लोभ नही हो ...........जिसके मन में ईर्श्या , राग, द्वेष और अहंकार ना के बराबर हो .........ऐसे सन्तों का संग करो .....
ऐसे सन्तों की आज्ञा मानों ...........इनकी बातें बड़ी श्रद्धा से सुनो .....और जीवन में उतारो .....क्यों की इन सन्तों को तुमसे कुछ चाहिये नही .............ये निःस्वार्थ हैं ............।
मेरे श्री राम बोलते गए....... बोलते गए .....
हम सब मन्त्रमुग्ध से सुन रहे थे ।
अब मुस्कुराये थे मेरे श्रीराम .................
कुछ कहना चाह रहे थे ..........पर चुप हो गए ।
नाथ ! कहिये ना ............आपके हृदय में जो आरहा हो ...........हमारे ऊपर कृपा करके उसे कहिये नाथ !
लक्ष्मण भैया नें हाथ जोड़कर निवेदन किया था ........
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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